Friday, August 21, 2009

लेकिन बरबाद होती बीजेपी माने तब न...


निरंजन परिहार
शिमला में बीजेपी की चिंतन बैठक के अपने भाषण में लाल कृष्ण आडवाणी ने भले ही कहा कि जसवंत सिंह को भाजपा से निकाले जाने का उनको दुख है। लेकिन उन्होंने यह कहा कि जसवंत को निकालना जरूरी हो गया था। क्योंकि अपनी किताब में उन्होंने जो कुछ भी लिखा, वह पार्टी के सिद्धांतों और आदर्शों के खिलाफ था। लेकिन बीजेपी के इन लौह पुरुषजी से यह सवाल करने की हिम्मत किसी ने नहीं की कि जसवंत सिंह ने तो सिर्फ अपनी किताब में ही लिखा है, लेकिन आप तो पाकिस्तान की धरती पर उनकी मजार पर गए। श्रद्धा के साथ फूल चढ़ाए। अपना सर झुकाया। जिन्ना को महान बताया। और यह भी कहा था कि जिन्ना से ज्यादा धर्म निरपेक्ष नेता भारत में दूसरा कोई हुआ ही नही। यह पूरी दुनिया जानती है कि भाजपा अपने जसवंत सिंह को बहुत बड़ा नेता बताती रही है। और सच कहा जाए तो भाजपा में जो सबसे बुध्दिजीवी और पढ़े लिखे लोग है, उनमें जसवंत सिंह सबसे पहले नंबर पर देखे जाते रहे हैं। लेकिन सिर्फ एक किताब क्या लिख दी, वे अचानक इतने अछूत हो गए कि तीस साल की सेवाओं पर एक झटके में पानी फेर दिय़ा। बीजेपी को यह सवाल सनातन रूप से सताता रहेगा कि अगर बीजेपी में रहते हुए जसवंत का जिन्ना पर कुछ भी सकारात्मक कहना पाप है तो फिर बीजेपी के लौह पुरुष, वहां पाकिस्तान में जिन्ना की मजार पर जाकर जो कुछ करके और कहके लौटे थे, वह क्या कोई पुण्य था।
बीजेपी से जसवंत सिंह की विदाई की खबर लगते ही देश के जाने माने पत्रकार आलोक तोमर ने जो सबसे पहला काम किया, वह जसवंत सिंह की पूरी किताब अच्छी तरह से पढ़ने का था। लेकिन उसके बाद भी उनकी समझ में यह तक नहीं आया कि जसवंत सिंह ने जो कुछ लिखा है, उसमें आखिर नया क्या है। उनकी राय में जसवंत सिंह की किताब एक विषय का बिल्कुल निरपेक्ष लेकिन तार्किक विश्लेषण है। मगर, इतिहास को अपने नजरिए से देखना कम से कम इतना बड़ा जुर्म तो हो ही नहीं सकता कि तीस साल से पार्टी से जुड़े एक धुरंधर नेता को अचानक दरवाजा दिखा दिया जाए। आलोक तोमर जसवंत सिंह को भाजपा से बाहर करने को उनकी बेरहम विदाई मानते हैं और यह भी मानते हैं कि बीजेपी में यह अटल बिहारी वाजपेयी के युग की समाप्ति का ऐलान है। और जो लोग ऐसा नहीं मानते, उनको अपनी सलाह है कि वे अपने दिल पर हाथ रखकर ईमानदारी के साथ खुद से यह सवाल करके देख लें कि क्या वाजपेयी के जमाने में भाजपा में जो उदारता और सहिष्णुता थी, वह अब खत्म नहीं हो गई। जवाब, निश्चित रूप से हां में ही मिलेगा। नहीं मिले तो कहना।
वह जमाना बीत गया, जब बीजेपी एक विचारधारा वाली पार्टी मानी जाती थी। उसके नेता देश को रह रह कर यह याद दिलाते नहीं थकते थे कि यही एक मात्र पार्टी है, जो हिंदू धर्म का सबसे ज्यादा सम्मान करती है। साथ ही बाकी सभी धर्मों का आदर करना भी सिखाती है। आज उन सारे ही नेताओं से यह सवाल खुलकर पूछा जाना चाहिए कि आखिर क्यों वह पार्टी अपने एक वरिष्ठ नेता के निजी विचारों का सम्मान नहीं कर पाई। बीजेपी के नेताओं में अगर थोड़ी बहुत भी नैतिकता बची है तो वे सबसे पहले तो इस सवाल का जवाब दे कि आखिर आडवाणी का उनकी मजार पर शीश नवाकर जिन्ना को धर्म निरपेक्ष बताना वाजिब और जसवंत का जिन्ना पर लिखना अपराध और कैसे हो गया। और, जो सुषमा स्वराज और रवि शंकर प्रसाद बहुत उछल उछल कर जसवंत सिंह की विदाई को विचारधारा के स्तर पर पार्टी का वाजिब फैसला बता रहे थे, उनसे भी अपना सवाल है कि उनके लाडले लौह पुरुषजी ने जब जिन्ना को धर्म निरपेक्ष बताया था, तब उनके मुंह पर ताला क्यों लग गया था।
दरअसल, जो लोग राजनीति की धाराओं को समझते हैं, वे यह भी अच्छी तरह जानते है कि जो पीढ़ी अपने बुजुर्गों के सम्मान की रक्षा करना नहीं जानती सकते, उनकी नैतिकता भी नकली ही होती है। और बाद के दिनों में ऐसे लोगों का राजनीति में जीना भी मुश्किल हो जाता है। अपना मानना है कि बीजेपी में अब सब कुछ ठीक ठाक नहीं है। जिसने अपने खून पसीने से बीजेपी को सींचा, देश पर राज करने के लिए तैयार किया। ऐसे दिगग्ज नेता भैरोंसिंह शेखावत के सम्मान को बीजेपी के आज के नेताओं ने ही चोट पहुंचाई। पूरा देश जानता है कि शेखावत के प्रति आम जनता के मन में जो सम्मान है, और देश में उनकी जो राजनीतिक हैसियत है, उसके सामने राजनाथ सिंह रत्ती भर भी कहीं नहीं टिकते। लेकिन फिर भी उन्होंने शेखावत को गंगा स्नान और कुंए में नहाने के फर्क का पाठ पढाने की कोशिश की। अब जसवंत सिंह को उन्होंने राजनीति में किनारे लगाने की कोशिश की है। पार्टी से जसवंत के इस निष्कासन को अपन सिर्फ कोशिश इसलिए मानते हैं क्योंकि अपनी जानकारी में जसवंत सिंह हारने की मिलावट वाली मिट्टी से नहीं बने हैं। वे यह अच्छी तरह जानते हैं कि देश जब जब चिंतन करेगा, तो जिन्ना के मामले में लाल कृष्ण आडवाणी और उनके बीच होने वाली तुलना में उनसे नीचली पायदान पर तो आडवाणी ही दिखाई देंगे। क्योंकि उन्होंने तो लिखा भर है। आडवाणी की तरह जिन्ना के देश जाकर उनकी मजार पर फूल चढ़ाने और सिर को झुकाने के बाद कम से कम यह बयान तो नहीं दिया कि जिन्ना महान थे। फिर देर सबेर बीजेपी की भी अकल ठिकाने आनी ही है। उसे भी मानना ही पड़ेगा कि आडवाणी के अपराध के मुकाबले जसवंत के जिन्ना पर विचार अपेक्षाकृत कम नुकसान देह है।
बीजेपी चाहती तो, जसवंत की किताब को जिन्ना पर उनके निजी विचार बता कर, अभिव्यक्ति की आजादी की दुहाई देने के साथ पूरे मामले को कूटनीतिक टर्न दे सकती थी, जैसा कि राजनीति में अकसर होता रहा है। लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। क्योंकि राजनाथ सिंह के पास बीजेपी जैसी देश की बड़ी पार्टी के अध्यक्ष का पद तो है, पर, तीन साल बाद भी ना तो वे इस पद के लायक अपना कद बना पाए और ना ही उनमें कहीं से भी इसके लायक गंभीरता, योग्यता और बड़प्पन दिखाई दिया। इसी वजह से कभी वे शेखावत को राजनीति सिखाने की मूर्खता करने लगते हैं तो कभी राजस्थान की सबसे मजबूत जनाधार वाली उनकी नेता वसुंधरा राजे को पद से हटाने का अचानक ही आदेश दे बैठते हैं। राजनाथ सिंह के राजनीतिक कद को अगर आपको नापना ही हो तो भैरोंसिंह शेखावत से तो कभी उनकी तुलना करना ही सरासर बेवकूफी होगी। और भले ही राजनाथ सिंह ने जसवंत सिंह को पार्टी से निकालने का आदेश दिया हो, फिर भी उनसे तुलना करना भी कोई समझदारी नहीं कही जाएगी। और अंतिम सच यही है कि भाजपा के आम कार्यकर्ता को अपने नेता के तौर पर राजनाथ या वसुंधरा राजे में से किसी एक को चुनने का विकल्प दिया जाए तो कार्यकर्ता का चुनाव तो वसुंधरा ही होंगी, इससे आप भी सहमत ही होंगे।
आनेवाले दिसंबर के बाद राजनाथ सिंह निश्चित रूप से बीजेपी के अध्यक्ष नहीं रहेंगे। लेकिन यह देश के दिलो दिमाग पर यह जरूर अंकित रहेगा कि उंचे कद के आला नेताओं की गरिमा को राजनाथ के काल में जितनी ठेस पहुंची और बीजेपी का सत्ता और संगठन के स्तर पर जितना कबाड़ा हुआ, उतना पार्टी के तीस सालों के इतिहास में कभी नहीं हुआ। और ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि राजनाथ सिर्फ पद से नेता है, कद से नहीं। पार्टी से निकालने का हक हासिल होने के बावजूद राजनीति में आज भी राजनाथ, जसवंत सिंह से बड़े नेता नहीं हैं। अपना तो यहां तक मानना है कि शेखावत जितना सम्मान हासिल करने और जसवंत सिंह जैसी गरिमा प्राप्त करने के लिए राजनाथ सिंह को शायद कुछ जनम और लेने पड़ सकते है। ऐसा ही कुछ आप भी मानते होंगे। और, यह भी जानते ही होंगे कि जसवंत के जाने से बीजेपी कमजोर ही हुई है, मजबूत नहीं। पर आपके मानने से क्या होगा, बरबाद होती बीजेपी माने तब ना...।
(लेखक जाने-माने राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं)

Wednesday, August 5, 2009

पहरेदारों के पतित होने पर सोनिया गांधी की चिंता


निरंजन परिहार
भले ही दुनिया भर में हम विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र होने का झंडा लिए घूमते हों, और अपनी संसद को लोकतंत्र का मंदिर कहते हों। लेकिन हमारे सांसद, लोकतंत्र की गरिमा और उसके मंदिर की मर्यादाओं का कितना ख्याल रखते हैं, यह सोनिया गांधी की पीड़ा से साफ जाहिर है। संसदीय लोकतंत्र की गरिमा को लेकर सोनिया गांधी की पीड़ा, पहरेदारों के पतित हो जाने का सबूत है। काग्रेस अध्यक्ष ने सांसदों की सदन से गायब रहने की आदत से आहत होकर गैर हाजिर रहनेवालों को कड़ी फटकार लगाई है। राहुल गांधी ने भी सदन में सांसदों की कम उपस्थिति को काफी गंभीरता से लिया है। सोनिया गांधी ने काग्रेस के सीनियर नेताओं से सदन में अपने सांसदों की उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक कदम उठाने को कहा है। कोई भले ही उनकी इस तकलीफ के कुछ भी अर्थ निकाले, लेकिन इतना तय है कि हमारे सांसदों का संसदीय कार्यवाही में कम और बाकी कामों में ध्यान ज्यादा रहने लगा है। जिनको देश चलाने के लिए चुना गया हो, वे ही जब राष्ट्रीय फैसलों के निर्धारण में ही रूचि नहीं लेंगे, तो लोकतंत्र की गरिमा को मिट्टी में मिलने से कैसे बचाया जा सकता है ?
ऐसा नहीं है कि सिर्फ कांग्रेस के सांसदों की ही सदन में उपस्थिति अपेक्षा से कम रही हों। संसदीय मर्यादाओं, लोकतांत्रिक गरिमा और नैतिक मूल्यों की दुहाई के नाम पर अपनी राजनीति चलाने वाली पार्टियों के सांसदों की भी सदन में हाजिरी का हाल ऐसा ही है। उनके नेता हार का गम अब तक भुला नहीं पाए हैं। इसिलिए शायद, इस गंभीर विषय पर भी वे ध्यान नहीं दे पाए हों। पर, यह तो सबके सामने है कि सोनिया गांधी ने सबसे पहले गौर किया, और तत्काल सख्त कदम उठाने को भी कहा।
वैसे, ये हालात कोई पहली बार सामने नहीं आए हैं। पहले भी ऐसा होता रहा है। ज्यादा पीछे नहीं जाएं और अभी पिछली लोकसभा की ही बात कर लें। तो, सदन में जब अंतरिम बजट जैसे देश के सबसे महत्वपूर्ण मुद्दे पर बहस हो रही थी, तो सत्ता पक्ष के ही नहीं विरोधी दलों के सांसदों की भी सदन में बहुत ही कम संख्या थी। और जब इस गंभीर बहस के दौरान सदन खाली-खाली सा था, तो कुछ सांसद दक्षिण दिल्ली के किस डिजाइनर फैशन स्टोर में किस-किस के लिए कैसे-कैसे कपड़े खरीद रहे थे, और अपने चमचों के साथ किस रेस्टोरेंट में खाना खा रहे थे, अपने पास इसके भी पुख्ता सबूत हैं। मतलब यह है कि ज्यादातर सांसदों का ध्यान देश के सुलगते मुद्दों में कम और अपनी जिंदगी को संवारने पर ज्यादा है। हमने देखा है कि हमारे ज्यादातर सांसदों में सवाल पूछने और संसद में बोलने के मामले में भी कोई खास रूचि ही दिखाई नहीं देती। बहस में हिस्सा लेने में भी पहले के मुकाबले उत्साह बहुत ही कम हुआ है। और आंकड़े इस बात के गवाह हैं कि कुछ साल पहले शुरू हुआ यह सिलसिला अब, बहुत तेजी से नए सांसदों को भी अपनी गिरफ्त में लेता जा रहा है।
पिछली लोकसभा के आंकड़ों पर निगाह डालें तो सिर्फ 175 सांसद ही ऐसे थे, जिन्होंने सदन में किसी बहस में हिस्सा लिया और सवाल पूछे। बाकी 371 सांसद तो मदारी के खेल की तरह पांच साल तक संसद को निहारने के बाद खुद को धन्य मानकर वापस घर लौट गए। जो विधेयक संसद में पेश हुए, उनमें से 40 फीसदी विधेयकों को तो सिर्फ एक घंटे से भी कम समय की चर्चा में पास कर दिया गया। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि उन पर कोई बहस करने वाला ही नहीं था। हालात तो ऐसे भी कई बार आए हैं कि बिना बहस के ही कई विधेयकों को पारित करना पड़ा, और यह सिलसिला भी लगातार बढ़ता जा रहा है। यह सब संसदों के सदन में ना जाने की वजह से हो रहा है। संसद में जाएंगे, तभी वहां पेश किए जाने वाले किसी विषयों को समझेंगे। और समझेंगे, तभी उस पर बोल भी सकेंगे। पिछली लोकसभा का तो आलम यह था कि ग्यारहवें और बारहवें सत्र में तो सिर्फ 25 फीसदी सांसद ही लोकसभा में ठीक-ठाक हाजिर रहे। बाकी 75 फीसदी सांसदो की 16 दिन से भी कम हाजिरी रही। दो बार राज्य सभा में रहने के बाद इस वार लोकसभा के सांसद चुने गए हमारे साथी संजय निरुपम भी मानते हैं कि संसद में बोलने वाले आज सिर्फ उंगलियों पर गिने जा सकते हैं। हालात यही रहे तो आने वाले सालों में सारे विधेयक बिना किसी चर्चा के ही पारित करने पड़ सकते हैं। सोनिया गांधी कोई यूं ही चिंतित नहीं हैं। वे महसूस करने लगी है कि हमारी संसद सत्ता के शक्ति परीक्षण के केंद्र में तो आज भी है। लेकिन वैचारिक चिंतन और सार्थक बहस के मंच के रूप मे उसकी भूमिका खत्म होती जा रही है। काग्रेस के सांसदों को इसीलिए उन्होंने सचेत किया है।
पार्टियों से जहां बैठने के लिए टिकट लिया और जनता ने जहां के लिए चुनकर भेजा। उस संसद में जाने से ही हमारे लोकतंत्र के ये पहरेदार बचने लगे हैं। इसे पहरेदारों का पतीत होना ही कहा जाएगा। यह पतन और आगे ना बढ़े, सोनिया गांधी ने इसीलिए तत्काल कदम उठाने के आदेश दिए हैं। देश ने ही नहीं, पूरी दुनिया ने हमारे सांसदों को कैमरों के सामने रिश्वत लेते देखा। दूसरे की पत्नी को कबूतर बनाकर दुनिया घुमाते हुए हमने अपने सांसदों को देखा। और दलाली करते हुए भी रंगे हाथों अपने सांसदों को सारे देश ने देखा। ऐसे में, अपने आपसे यह सवाल पूछने का हक तो हमको है ही कि संसद में बैठने के लिए हमने कहीं दलालों को तो नहीं चुन लिया? हम अपना सीना तान कर दुनिया भर में सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का गर्व करते हैं। लेकिन, जब कोरम पूरा ना होने की वजह से लोकसभा की कारवाई कई-कई बार स्थगित करनी पड़ती है, तो हमारे सांसदों को शर्म क्यों नहीं आती ?