Thursday, January 21, 2010

बच्चों को संभालिए हुजूर, ये चिराग जिंदा रहने चाहिए


- निरंजन परिहार -
अमिताभ बच्चन आहत हैं। बहुत दुखी हैं। इतने दुखी कि उनको देख कर अपन भी दुखी हो सकते हैं। बच्चों आत्महत्याओं ने उनको झकझोर कर रख दिया है। अपनी ताजा फिल्म ‘रण’ के प्रमोशन के दौरान वे मिले, तो कह रहे थे कि बच्चों की मौतों का यह सिलसिला पूरे समाज के लिए खतरनाक है। उन्होंने कहा है कि छात्रों की आत्महत्याओं के मामले में घरवालों को भी सोचना चाहिए कि वे आखिर अपने बच्चों को कायर क्यों बनाते जा रहे हैं। नई पीढ़ी को बच्चन ने संदेश दिया है कि जीवन के हर उतार चढ़ाव को लंबे कदमों से नापकर आगे बढ़ जाना चाहिए। मौत सबको डराती है। लेकिन मासूम बच्चों की या किसी अपने की मौत अपने को कुछ ज्यादा ही डराती है।
अपना मानना है कि सुबह सुबह कोई अच्छी खबर मिले तो किसी का भी पूरा दिन अच्छा गुजरता है। पर, पिछले कुछ दिनों से हर दिन की शुरूआत खराब खबर से हो रही है। बच्चे, जो आपका और हमारा भविष्य है, उनके ही अपने आप को खत्म कर देने की खबर सुबह - सुबह देखने – पढ़ने को मिले, तो किस का दिन सुधरेगा।
अमिताभ बच्चन का आहत होना वाजिब है। बच्चों की आत्महत्या के सिलसिले पर, वे तो अपने ब्लॉग पर फुर्सत निकाल कर लिखेंगे। लेकिन अपन आज ही यहां इस दर्द को उतार रहे हैं। पता नहीं हम क्यूं इतने संवेदनहीन हो गए हैं कि हमारी भावी पीढ़ी मौत के मुंह में समाती जा रही है, लेकिन उस पर सामूहिक चिंतन करने के बजाय हम लोग सरकार को कोसने से बाज नहीं आ रहे हैं।
इधर कई दिनों से देखने में आ रहा है कि बहुत सारे लोग हैं, जो छात्रों की आत्महत्याओं के सिलसिले को सामाजिक और पारिवारिक जिम्मेदारी के बजाय सरकार की जिम्मेदारी बताकर सरकार को दोष दे रहे हैं। यह अपनी हर जिम्मेदारी को सरकारों पर थोपने और अपने हर किए के गलत परिणाम को सरकार के मत्थे मढ़ देने की हमारी मानसिकता का परिणाम है। बच्चे पैदा किए आपने और हमने, उनको संस्कार नहीं दे सके आप और हम। उनको जीवन का मोल हमने कभी नहीं समझाया और मौत की मुसीबतों से भी हमने कभी आगाह नहीं किया। पर, फिर भी सरकार की शिक्षा प्रणाली कैसे दोषी हो गई हुजूर ?
हमने यह भी कभी समझने की कोशिश ही नहीं की कि हमारे मासूम बच्चों पर आखिर यह किस तरह का दबाव है, कि वे हालात से मुकाबला करने के बजाय मौत को गले लगा लेना ज्यादा आसान मानने लगे हैं। सबसे डरावनी बाच यह है कि आत्महत्या करने वाले बच्चों की उम्र 12 – 15 साल से भी कम है। कोई परीक्षा में फेल होने के बाद मर रहा है तो कोई फेल होने के डर से मौत को गले लगा रहा है। यह इसलिए हो रहा है, क्योंकि हमने अपने बच्चों को यह कभी नहीं समझाया कि जीवन के मुकाबले मौत का किसी के लिए भी कोई महत्व नहीं है। अमिताभ बच्चन ने सही कहा है कि सबसे पहले यह माता – पिता की जिम्मेदारी है कि वे बच्चों को सिखाए कि अगर जीवन है, तो ही सब कुछ है। छोटे छोटे फूल जैसे बच्चों की भावनाएं भी फूल जैसी कोमल होती है, इसलिए हम यह मान लेते हैं कि उन पर भारी भरकम बातों का असर नहीं होता। लेकिन प्यार से उन्हें समझाएंगे, तो वे हर बात मानने के लिए तैयार हो जाते हैं। पता नहीं हम उनको यह क्यूं नहीं समझाते कि छोटी सी परीक्षा में पास हो जाना जीवन से ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है। या किसी प्रतियोगिता में भाग लेना जीवन से ज्यादा जरूरी कभी नहीं हो सकता। अगर जीवन रहेगा, तो ना जाने कितनी परीक्षाएं ओर प्रतियोगिताएं हम ऐसे ही जीत लेगे।
बच्चों के आत्म हत्या करने के जितने भी मामले सामने आए हैं, उनमें से किसी ने भी किशोरावस्था में प्रवेश नहीं किया था। यह सबसे बड़ा सवाल है कि इतनी सी ऊम्र में भी आखिर क्यूं जिंदगी उन्हें इतनी भारी लगने लगी कि इसे खत्म करना ही उन्होंने ठीक समझा। मतलब साफ है कि, जो मरे उन बच्चों को यह तो पता था ही कि जिंदगी से छुटकारा पाया जा सकता है। और यह छुटकारा पाने के सारे तरीके भी उन्हें मालूम थे। लेकिन, अपना सवाल यह है कि जब उन्हें मर जाने के बारे में पता है और मर जाने के साधनों के बारे में पता हो सकता है, तो फिर जीने की जरूरतों और जीवन के महत्व के बारे में क्यों पता नहीं है। यह आपकी और हमारी जिम्मेदारी है कि हम अपने बच्चों को जीवन का महत्व लगातार समझाते रहें। क्योंकि जीवन को जीने और खत्म करने, दोनों ही किस्म के तरीके तो सिनेमा, अखबार और मीडिया के अलावा किस्से कहानियों में हर तरफ से उनको बिन चाहे भी सुनने को मिल ही जाएंगे। पर, अपनों की कही बात का किसी के भी जीवन में बड़ा महत्व होता है। सो अमिताभ बच्चन तो कह ही रहे हैं, पर अपने बच्चों को, तो यह आप और हम ही सिखाएंगे कि सारी तकलीफों के बावजूद वे जीवन को जीने के लिए हमेशा तैयार रहें।
पर, हम अपने बच्चों यह नहीं सिखाते। हम सिखाते हैं कि वे किसी भी परीक्षा में हर हाल में पास हों। हम चाहते हैं कि हमारे बच्चे किसी भी प्रतियोगिता में हर हाल में अचीवमेंट प्राप्त करें। और इस सबके साथ – साथ हम उन्हें ग्लैमर की घुट्टी भी पिला रहे हैं। यही वजह है कि अचीवमेंट, ग्लैमर या करियर में थोड़ा - बहुत भी पिछड़ जाने को जीवन का अंधेरा मान लेने को हमारे बच्चे मजबूर हो गए है। फेल हो जाने पर उनको लगने लगा है जैसे जीवन का उद्देश्य ही खत्म हो गया हो। बच्चों को लेकर जब टीवी पर रियलिटी शो बनने लगे तो सवाल उठा था कि इसमें हार जाने और जीतने का मासूम बच्चों की कोमल मानसिकता पर क्या असर पड़ेगा। लेकिन रियलिटी शो से जेब में आनेवाली कमाई के पैसे की आंधी इस सवाल को ही हजम कर गई। आहत अमिताभ बच्चन ने तो, जो कहना था, थोड़े में कह दिया। बाकी सारा दर्द बाद में फुर्सत मिलेगी, तब वे अपने ब्लॉग पर लिखेंगे। पर, आप फुर्सत निकालिए, और अपने बच्चों को संभालिए हुजूर। बच्चे घर के चिराग होते हैं। ये चिराग जिंदा रहने चाहिएं। क्योंकिजिंदगी, इन चिरागों से ही रौशन है। है कि नहीं ?