Sunday, December 4, 2011

जिंदगी की असलियत के आदमी थे देव आनंद



-निरंजन परिहार-
यूं तो पूरी जिंदगी खबरें उनको और वे खबरों को बुनते रहे। दोनों एक दूसरे में से बहुत अच्छे को चुनते रहे। फिर, इसी चुने हुए में से अपनी जिंदगी का ताना बाना बुनते रहे। और यही सब करते करते दुनिया को वे खुद के महत्वपूर्ण होने का अहसास भी कराते रहे। देव आनंद हमेशा बहुत महत्वपूर्ण बने रहे। वैसे वे महत्वहीन तो कभी नहीं थे। लेकिन मौत ने उनको एक बार फिर बहुत महत्वपूर्ण बना दिया है। वे जिंदगी भर, जिंदगी के सामने, जिंदगी से भी बड़े सवाल खड़े करते रहे। और जीते जीते तो कर ही रहे थे, जाते जाते भी जिंदगी को यह सवाल दे गए कि कि आखिर 88 साल की ऊम्र तक जीवन के आखरी पड़ाव पर भी कोई इंसान इतना सक्रिय कैसे रह सकता है।
सवाल सचमुच बहुत बड़ा है। मगर जिंदगी उससे भी बड़ी है। जो लोग भरपूर जवानी के जोश में भी जिंदगी की सच्चाइयों के सामने लड़खड़ाकर चूर हो जाते हैं, उनको देव आनंद के इतनी ऊम्र में भी सक्रिय रहने और काम करते रहकर जिंदगी को जीतने की उनकी ललक के कारण जानने की कोशिश करनी चाहिए। और जो लोग दो-चार फिल्में बनाने के बाद लुप्त हो गए, उनको मौत के दिनों के आसपास भी देव आनंद के 38वीं फिल्म बनाने की तैयारी की वजहें तलाशनी चाहिए। और, जो लोग अच्छे अभिनेता, खूबसूरत चेहरे और संपर्कों – संबंधों का व्यापक विस्तार वाले लोग होने के बावजूद कुछेक फिल्मों में काम करने के बाद आउट हो गए, उनको देव आनंद के 110 से भी ज्यादा फिल्मों में लीड रोल करने के कारण जरूर जान लेने चाहिए। देव आनंद तो चले गए, मगर उनका नाम रहेगा। नाम इसलिए, क्योंकि उनकी जिंदगी में आशाओं के टूटने, हिम्मत हारने और कुछ आराम कर लेने के साथ साथ पीछे मुड़कर देखने के लिए कोई जगह नहीं थी। देव आनंद कहते थे – ‘जिंदगी जब हर सुबह एक दिन आगे बढ़ जाती है। वह थकती नहीं। हारती नहीं। रुकती नहीं। पीछे मुड़कर देखती नहीं। हर रोज वह हमारे साथ नए नए प्रयोग करती रहती है। रोज विकसित होती रहती है। तो फिर हम उसको उसी के अंदाज में क्यों नहीं जिएं।’
देव आनंद की जिंदगी की पटकथा, किसी रहस्य, रोमांच और परीकथा से कम नहीं लगती। वे सारे विषयों पर बात करते थे, खुलकर बोलते थे और बेबाक बात करते थे। लेकिन सुरैया का नाम आते ही उनकी जुबान तो चुप हो जाती थी और आंखे बोलने लगती थीं। 80 साल की ऊम्र में लोगों की आंखें बहुत थक जाती हैं। लेकिन अपन ने उन आंखों में भी भरपूर जवानी के जोश को जोरदार उफान मारते देखा है। यह तब की बात है, जब उनको दादा साहेब फाल्के अवार्ड मिला था। साल था 2003, और जगह थी मुंबई में बांद्रा स्थित पाली हिल का उनका आनंद स्टूडियो। दूसरी मंजिल के बड़े से हॉल के एक कोने में लेंप की रोशनी में वे कुछ पढ़ रहे थे। अपन जैसे ही उन के पास पहुंचे, वे अचानक उछलकर खड़े हो गए और लपक कर पास आते ही गले लगाकर बोले - ‘तुम तो बिल्कुल सही वक्त पर आ गए...।’ अपन बोले - ‘देव साहब, आपने वक्त की कीमत दुनिया को सिखाई है, आपको इंतजार करवाकर हम क्या पा लेंगे।’ वे चुप थे... एकदम चुप। फिर अपने साथ के बाकी तीन लोगों का परिचय पूछकर जिंदगी की बातें करने लग गए। लेकिन सिर्फ जिंदगी की बात ही क्यूं... फिल्मों की बात क्यूं नहीं ? इस सवाल पर उनका कहना था – फिल्में तो जिंदगी का एक हिस्सा है। मगर फिर भी फिल्मों में पूरी जिंदगी दिखती है। इसीलिए फिल्में हमें अकसर जिंदगी से भी ज्यादा हसीन लगती हैं। सारे लोग कहते हैं कि फिल्में बदल गई है, फिल्मों में बहुत कुछ नया आ गया है। मगर देव आनंद फिल्मों में आज के दौर के बदलाव को बदलाव नहीं मानते थे। उनका कहना था - ‘कुछ नहीं बदला। वही प्यार है। वही संगीत है। वही किस्से हैं, कहानियां हैं। वही एक दूसरे के प्रति भावनाओं से भरी बातें हैं। क्या बदला है ? सिर्फ लोग ही तो बदले हैं, नए लोग आए हैं, नई तकनीक आई है। मगर फिल्में कहां बदली है। साठ साल में तो कुछ भी नहीं बदला।’
दरअसल, देव आनंद कला और ग्लैमर के संसार में वक्त को जीतनेवाली उस पूरी पीढ़ी के प्रतिनिधि थे, जिसके लिए जिंदगी इसलिए ज्यादा जरूरी है क्योंकि इससे बड़ा नाटक और कोई है ही नहीं। यही वजह रही कि वे जब तक जिए, लोग उनकी जिंदगी में जीने की नाटकीयता की तलाश हर पल करते रहे। मगर कोई भी, किसी भी मोड़ पर देव साहब के जीवन की नितांत निजता में जी हुई नौटंकी को पकड़ नहीं पाया। क्योंकि वह थी ही नहीं। वे कहते थे, बहुत सारे लोग उनके पास आते हैं, और उनके जीवन में कलाकार और स्टार होने के बीच के फर्क पर बात करते हैं। मगर वे इसमें कोई फर्क नहीं मानते थे। उनके लिए स्टार होना भी इंसान होना ही होता है। यह कोई और कहता तो शायद समझ में नहीं आता। मगर देव आनंद की जिंदगी के जरिए यह सब देखना, समझना और कहना और भी आसान हो जाता है, क्योंकि फिल्म जगत के वे पहले ऐसे व्यक्ति थे, जिनकी निजी जिंदगी का रहन सहन भी किसी बहुत बड़े सुपर स्टार से कम नहीं था, और असल जिंदगी में भी वे सिर्फ और सिर्फ एक सहज कलाकार ही थे। फिर चाहे वह उनका बात करने का लहजा हो, चलने का अंदाज हो या फिर आम आदमी से कई हजार गुना ज्यादा ऊंची उनकी लाइफ स्टाइल। हर किसी को साफ लगता था कि निजी जिंदगी में वे पूरी तरह फिल्मी थे, और फिल्मों में वे पूरी तरह असल आदमी। सच कहा जाए तो, फिल्म और जिंदगी के बीच खड़ा आदमी उनको कहा जा सकता है। क्योंकि वे सिनेमा के होते हुए भी आम आदमी के आदमी थे। 26 सितंबर 1923 को पाकिस्तान में तब के गुरदासपुर और अब के नारोवाल जिले में वकील पिशोरीमल आनंद के घर हुआ और 20 साल की ऊम्र में 1943 में वे मुंबई आ गए। तीन साल बाद 1946 में उनकी पहली फिल्म आई – ‘हम एक हैं’ और 1950 में ‘प्रेम पुजारी’ से उन्होंने निर्देशन शुरू किया। कुल 110 से भी ज्यादा फिल्में Gनके खाते में दर्ज हैं। 4 दिसंबर 2011 को लंदन में उन्होंने इस संसार को अलविदा कह दिया।
जिंदगी के बारे में उनका नजरिया बहुत साफ था। वे कहते थे - ‘मन को जो अच्छा लगे, कर लो। क्योंकि कोई भी काम करने जाओ तो लोग पहले रोकते हैं। टोकते हैं। लेकिन जब आप अपनी पसंद का वो काम कर लेते हैं, तो दुनिया भी उसको पसंद करने लगती है। फिर जो दुनिया पहले आपको रोक रही थी, वही आपको उस काम की तारीफ भी करने लगती है। शायद यही वजह रही कि देव आनंद ने वही काम किया, जिसकी उनके दिल ने गवाही दी।’ फिर वह चाहे धारा के विरुद्ध फिल्में बनाना हो, इंदिरा गांधी की इमरजैंसी का विरोध करना हो, या फिर निजी जिंदगी में भरपूर प्रेम करना। वे हमेशा घनघोर रात के अंघेरे में भी समंदर की लपलपाती लहरों के विरूद्ध चले और उन पर जीत दर्ज करके दुनिया को अपनी जिंदगी का जज्बा दिखाया। इसीलिए कहा जा सकता है कि देव आनंद अकारण नहीं जिए। वे जानते थे, और कहते भी थे कि बहुत सारे लोग पैदा होते हैं, जीते हैं और बहुत सारा काम करके मर जाते हैं। मगर जिंदगी के आखरी मुकाम पर उनके पास गिनने के लिए कुछ नहीं होता। देव आनंद आखरी सांस तक उन कारणों को साथ जीते रहे, जिनका समाज, सिनेमा और इंसान से वास्तविक रिश्ता है। जो लोग जिंदगी को पुरस्कारों में तब्दील करने की ललक नहीं पालते। और सम्मानों में समाहित होने से दूर रहते हैं, जिंदगी भी उनके सामने जरा झुक कर ही चला करती है। देव आनंद इसी तासीर के आदमी थे। उनकी जिंदगी को देखकर साफ कहा जा सकता है कि देव आनंद हमेशा जिंदगी के सामने सर उठाकर जिए और जब तक जिए, जिंदगी उनके सामने जरा झुककर ही चली। बात सही है ना... !
(लेखक निरंजन परिहार राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं)

Friday, December 2, 2011

जिग्ना के बहाने पत्रकारिता की पड़ताल



-निरंजन परिहार-
मीडिया अपनी दिशाओं से भटक गया है। समाज के हक में खड़े होने के बजाय वह अपराधियों के महिमा मंडन में लगा है। इसके लिए जिम्मेदार अपराध कवर करनेवाले हमारे मक्कार मित्रों के चालाक तर्कों या कुतर्कों का तो खैर कोई जवाब नहीं। लेकिन आपसे एक विनम्र सवाल है... दिल पर हाथ रखकर बिल्कुल ईमानदारी से जवाब दीजिएगा। सवाल यह है कि राजनीति कवर करते करते बहुत सारे पत्रकार नेता बन गए। फिल्में कवर करते करते कई पत्रकार फिल्मों में एक्टिंग करने के अलावा निर्माण और निर्देशन में लग गए। खेल कवर करते करते कई पत्रकार खेल बोर्ड के चेयरमेन, टीम मैनेजर और टूर्नामेंट के आयोजक बन गए। बिजनस कवर करते करते कई पत्रकार स्टॉक ब्रोकर और बिजनसमैन बन गए। तो अपराध की दुनिया की खबरों को जीनेवाले किसी पत्रकार का मुकाम क्या होगा ? अगर वह अपराधियों की गोलियों का शिकार बन जाए, या जेल चला जाए, तो किस मामले की हाय तौबा और किस बात की तकलीफ ?
जिग्ना वोरा अपने जीवन में जो चाहती थी, अपना मानना है कि वह मुकाम उसे मिल गया। वह खबरों में रहना चाहती थी, खबरों को जीना चाहती थी और अपराध की खबरों के जरिए प्रचार पाकर अपराध की खबरों में छा जाना चाहती थी। वह छा गई। खबर लिखकर जीते जी अमर हो जाने की कोशिश में उसने जो किया, उसी की वजह से वह अब खबरों में है। लेकिन उसने जो कुछ किया, या शुभचिंतकों की बात मानकर यह कहें कि उससे जो भी हो गया, उसका अंजाम जेल के अलावा कुछ और हो ही नहीं सकता था, यह तो वह जानती ही थी। और नहीं जानती थी, तो वह बेवकूफ थी। वैसे भी, अपराध की दुनिया की तासीर यही है कि उसे करनेवाला, करवानेवाला और किए हुए को जीनेवाला भले ही वह समझदार हो या भोंदू, अंतत: खुद भी उसी के तानेबाने का अटूट हिस्सा बन जाता है। अपराध कवर करते करते लोग अपराध के अंजाम में पूरी तरह समा भले ही नहीं जाते तो, उसका हिस्सा तो बन ही जाते हैं। कई सारे खबरी भी बन जाते हैं। ठीक वैसे ही, जैसे राजनीतिक पत्रकारिता करते करते हमारे बहुत सारे साथी राजनीति में आ गए। संजय निरुपम, राजीव शुक्ला और अरुण शौरी की तरह सितारा बन गए। तो उनके जैसे कई लोग पार्टियों के प्रवक्ता और पदाधिकारी बन गए।
मुंबई में अपराध कवर करनेवाले हमारे भाई लोग जे डे के मारे जाने पर छाती पीट पीट कर बहुत हाय तौबा मचा रहे थे। मोर्चे निकाल रहे थे। धरने दे रहे थे। प्रदर्शन कर रहे थे। मगर जिग्ना के जेल जाने पर सब मौन हैं। इतने मौन कि अनजाने नंबरों से कॉल आने पर भी उनको सांप सूंघने लगा है। किसी बड़े पुलिस अफसर का फोन आने पर उससे बात करने से पहले पैर और फिर होठ थरथराने लगे हैं। और अपने कॉल टैप होने का अंदेशा, हर उस पत्रकार को हो रहा है, जिसकी तासीर में अपराध कवर करना रहा है। अपराध कवर करनेवाले हमारे साथी हमेशा से खुद को तुर्रमखां के रूप में पेश करते रहे हो, मगर सच्चाई यही है कि इन दिनों सारे के सारे अंदर ही अंदर सिहर जाने की हद तक सहमे हुए हैं। कुछ हो जाने का बाद आमतौर पर जो हालात होते हैं, उसे माहौल कहा जाता है। और हर माहौल के अपने अलग मायने हुआ करते हैं। अच्छे काम का अच्छा माहौल, बुरे काम का बुरा माहौल। पत्रकार राजीव शुक्ला के मंत्री बनने पर और संजय निरुपम के तीन बार सांसद बनने पर अपने जैसे उनके साथियों के बीच खुशी का माहौल था। लेकिन पत्रकार जिग्ना के जेल जाने और जे डे के मारे जाने पर लोगों को बुरे माहौल को जीना पड़ रहा है। इसी माहौल से अपराध कवर करने के पेशे की इस बदली हुई तासीर को समझा जा सकता है।
b जिग्ना वोरा को अपन नहीं जानते। मुंबई में सालों से पत्रकारिता करने के बावजूद बिल्कुल नहीं जानते। ना कभी कोई व्यक्तिगत मुलाकात और ना ही कभी कोई बातचीत। वैसे, आप यह जानकर अपन को बेहद अल्प संपर्कों और संबंधोंवाला पत्रकार मान सकते हैं। लेकिन जिग्ना को जानने भर से ही कोई बड़ा पत्रकार नहीं हो जाता, यह भी आप भी जानते है। दिल्ली से बहुत दूर मुंबई में रहने के बावजूद भारत सरकार के बहुत सारे मंत्री, देश के कई राज्यों के मुख्यमंत्री, और ढेर सारे सांसद लोग अपन और अपने कई अन्य साथियों को नितांत निजी रूप से जानते है। कईयों का घर पर भी आना जाना है। बहुत सारे राजनेताओं से अपने पारिवारिक संबंध हैं। लेकिन इस सब पर अपने को कोई गर्व या दर्प कभी नहीं रहा। मगर, दुबई की दुनिया में बैठे दानव के दो कौड़ी के किसी कमीने का भी फोन आ जाने पर अपराध कवर करनेवाले पत्रकारों को अपन ने बंदरों की तरह उछलते देखा है। अपने फोन पर अपराधी के आए किसी कॉल को हर तरह से प्रचारित करते भी उनको देखा हैं। लेकिन क्या किया जाए, यही उनका अपना स्तर है। लेकिन अपन अगर जिग्ना वोरा को गिरफ्तार होने से पहले नहीं जानते थे, तो उसके पीछे की वजह यही है कि मुख्यधारा की पत्रकारिता करनेवालों का अपराध कवर करनेवालों का वास्ता बहुत कम ही पड़ता है। और यह भी सच्चाई है कि मुंबई में अपने जैसे सैकड़ों पत्रकार और हैं, जिनने कल तक जिग्ना का तो क्या जे डे का नाम भी नहीं सुना था। मगर अब सब दोनों को उनके अपने अपने हालात और हश्र की वजह से जानने लगे हैं। और यह भी जानने लगे हैं कि कौन पत्रकार किस तरह से किस अपराधी की किन शर्तों पर पत्रकारिता का कारोबार कर रहा है।
अपराध तो हमारे स्वर्गीय साथी आलोक तोमर और अमरनाथ कश्यप ने भी कवर किया था। दाऊद से लेकर छोटा शकील और इकबाल डोसा से लेकर छोटा राजन तक सबसे कई कई बार व्यक्तिगत रूप से मिलकर आलोक तोमर ने बातचीत भी की और उनके इंटरव्यू भी छापे। मगर अपराध और अपराधियों का कहीं भी, कभी भी और किसी भी रूप से महिमा मंडन कतई नहीं किया। और जानने वाले तो यह सत्य भी जानते हैं, कि उस जमाने में आलोक तोमर के भारत सरकार से गहरे संबंधों को जानकर दाऊद ने उनके सामने सरकार से बात करने का संधी प्रस्ताव भी रखा था। मगर इतने बड़े गिरोहबाज दाऊद को भी आलोक तोमर ने कहा था कि अपराधियों का दूत बनने के बजाय वे मर जाना पसंद करेंगे। आलोक तोमर का यह टका सा जवाब सुनकर दुनिया को अपने इशारों से सन्न करनेवाला दाऊद खुद सन्न था। यह उनके पत्रकारिता की पूजनीय परंपराओं को निभाने का जज़्बा था। उनकी ही तरह से और भी कई लोग आज भी देश में अपराध कवर कर रहे हैं। लेकिन कोई उन पर उंगली नहीं उठा सकता।
लेकिन जिग्ना जेल में है। जेल में इसलिए, क्योंकि अपराध की खबरों का जुगाड़ करके अपना नाम करने की कोशिश में जिग्ना खुद अपराध का अहम हिस्सा बन गई। गिरफ्तारी का कारण यही माना जा रहा है कि जिग्ना की वजह से ही जे डे इस जहां से चले गए। अपना तो यह भी मानना है कि कहने भर को भले ही जे डे की मौत के लिए जिग्ना को जिम्मेदार बताया जा रहा हो, लेकिन वास्तविक सच्चाई यह भी है कि अपने अपने हश्र के लिए दोनों ही व्यक्तिगत रूप से जिम्मेदार थे। जे डे के पास भी अपने जीवन में पत्रकारिता में सिर्फ अपराध ही कवर करने के अलावा और भी ढेर सारे विकल्प थे। जिग्ना भी गुंडो़ं की खबरों के अलावा अपनी दे्हयष्टि के मुताबिक कमसे कम ग्लैमर तो कवर कर ही सकती थी। लेकिन प्रकृति की परंपरा है कि दिमाग की जैसी तासीर होती है, वह आपके दिल को वैसी ही दिशा देता है और आपसे काम भी वैसा ही करवाता है। जिग्ना के जेल जाने की या जे डे के दुनिया से चले जाने का भले ही हमारे बहुत सारे अपराध कवर करनेवाले साथियों को संताप हो, मगर अपने को उनके दुख और दर्द से कोई वास्ता नहीं है। वास्ता इसलिए नहीं, क्योंकि दोनों ही पत्रकारिता करते करते अपराधियों की उंगलियों के इशारों पर काम करने लग गए थे। दोनों के मामले में अपना सिर्फ और सिर्फ यही मानना है कि यह उनका अपना ‘प्रोफेशनल रिजल्ट’ है। जिग्ना और जे डे की कहानी अपराध कवर करते करते खुद उसका हिस्सा बन जाने की है। अगर जिग्ना और जे डे तमीज़ से काम करते, तहज़ीब से पत्रकारिता करते और अपराधियों से संबंध बनाकर पत्रकारिता के पेशे की परंपरा को कलंकित नहीं करते, तो उनका यह हश्र कभी नहीं होता। यही वजह है कि इस पूरे मामले पर अपने को तो कमसे कम कोई दुख या संताप नहीं है। क्या आपको है ?
(लेखक जाने माने राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं)

Sunday, July 24, 2011

आप न आते तो अच्छा होता

-निरंजन परिहार-
मुंबई में बम फटे। धमाके हुए। लोग मरे। और बहुत सारे घायल भी हुए। इन धमाकों के बाद सोनिया गांधी मुंबई आईं। साथ में अपने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को भी लाईं। रस्म निभाने के लिए दोनों विस्फोट स्थलों पर गए। रिवाज के तहत मृतकों के परिजनों से मिले। उनको ढाढ़स बंधाया। जख्मों पर मरहम लगाने अस्पतालों में भी गए। घायलों से मिले। उनको सांत्वना दी। मुंबई के सामान्य लोग बेचारे बाग – बाग, कि तकलीफ के मौके पर देश के दो सबसे बड़े नेता शहर को संभालने दिल्ली से दौड़े चले आए। मगर क्या तो उनका आना, और क्या जाना। इस शहर की जिंदगी के असली आसमान पर मनमोहन और सोनिया गांधी का आज कोई असर नहीं है।
वे आए। मगर ना भी आए होते, तो भी यह शहर यूं ही जिंदा रहता। जिन घायलों से वे मिले, उन पर भी उनके आने का कोई असर नहीं। मंजर ठेट मारवाड़ की एक देसी कहावत जैसा है। कहावत यह है कि – ‘क्या परदेसी की प्रीत, क्या फूस का तापना। ऊठ परभात में देखिया, कोई नहीं आपणा।’ वे परदेसी की तरह आए और चले गए। रात गई, बात गई की तरह सुबह उठकर जब घायलों ने अपनी हालत निहारी तो लगा कि वे तो जस के तस हैं। वे सपने की तरह आए, और चले गए। उनके मुंबई आने का कोई फायदा नहीं हुआ। ना तो सरकार और ना ही प्रशासन, ना ही पुलिस और ना ही घायल, किसी को वास्तव में कोई फायदा नहीं। और, सच तो यह है कि विस्फोट में जो घायल हुए, वे हैरत में हैं। वे सवाल पूछ रहे हैं कि ये दोनों मुंबई आए क्यूं थे ?

मान लिया जाए कि यह महज परंपरा थी। तो, सोनिया और मनमोहन के मुंबई आने, जख्मों को सहलाने और परिजनों को सांत्वना देने की परंपरा निभाने पर मारे गए लोगों को स्वर्ग में कैसा लग रहा होगा, इसका तो हालांकि किसी को नहीं पता। लेकिन हादसे में हताहत लोगों को लग रहा है कि ये दोनों नेता मुंबई में ही कुछ दिन और रहते, रोज अस्पताल आते, हर घंटे घायलों से मिलते तो ज्यादा ठीक रहता। धमाकों में घायल अपने भाई भरत शाह का सैफी अस्पताल में इलाज करवा रहे प्रवीण शाह और जीतू शाह ने बिल्कुल सही कहा - ‘लोगों के इतनी अपेक्षा पालने की वजह यही है कि ये दोनों नेता जिस दिन मुंबई में थे, अस्पतालों में थे, तब तक तो जैसा कि आम तौर पर होता है, घायलों की भी खूब सार संभाल होती रही। मगर, उनके जाने के बाद कमसे कम सरकारी अस्पतालों में भर्ती घायलों का हाल कोई बहुत ठीक ठाक नहीं है। अब सब कुछ रुटीन जैसा है। बिल्कुल वैसा ही सामान्य, जैसा मुंबई का जनजीवन हो गया है।’

दक्षिण मुंबई के सांसद मिलिंद देवड़ा हाल ही में देश के संचार राज्य मंत्री बने हैं। पिता मुरली देवड़ा के केंद्रीय मंत्री मंडल से इस्तीफा देने की मजबूती भरी मजबूरियों ओर उनके एवज में बेटे मिलिंद देवड़ा को मंत्री बनाने के पीछे कांग्रेस की झोली भरने की मजबूरियों की बात कभी और करेंगे। फिलहाल बात सिर्फ विस्फोटों की। यह वही दक्षिण मुंबई है जिसमें ऑपेरा हाउस और जवेरी बाजार आते हैं। मिलिंद देवड़ा ही नहीं, और उनके पिता भी यहीं के लोगों के वोटों से चुने जाते रहे हैं। ताजा ताजा मंत्री का ताज पहने मिलिंद भी मनमोहन और सोनिया गांधी के साथ मुंबई आए। विस्फोट स्थलों पर गए। मारे गए लोगों के परिजनों से मिले। घायलों का हाल जानने अस्पताल भी गए। और बाद में सोनिया और मनमोहन की तरह वे भी चले गए। मिलिंद के दिल्ली लौट जाने के बाद लोगों को यह अहसास हो रहा है कि उनके वोटों से सांसद चुना गया एक लड़का, केंद्र में मंत्री पद पाते ही अब अचानक इतना बड़ा हो गया है कि वह सिर्फ देश के बड़े बड़े लोगों के साथ ही मुंबई के लोगों के दुख दर्द जानेगा। अपने पिता मुरली देवड़ा द्वारा चश्में बांटने की छोटी-छोटी खबरों का भी भरपूर प्रचार करने वाले मिलिंद देवड़ा ने अस्पतालों में जाने के अलावा और कुछ भी किया होता, तो इसकी जानकारी दुनिया को जरूर होती। मगर लोग मिलिंद के इस बार के रवैये से सन्न हैं। पर, इस सबसे देवड़ा परिवार को कभी कोई फर्क नहीं पड़ता। यह उनकी राजनीति का हिस्सा है। वे लोगों का उपयोग करना जानते हैं, और उनको यह भी पता है कि जनता की याददाश्त कोई बहुत मजबूत नहीं होती। विस्फोटों में घायल लोग इसलिए ज्यादा दुखी हैं, कि मिलिंद देवड़ा अपने मतदाताओं को ही भूल गए। मिलिंद और उनके पिता मुरली देवड़ा की इस मतलबी राजनीति पर भी विस्तार से कभी और। फिलहाल एक बार फिर लौटते हैं सोनिया गांधी और मनमोहन पर।

देश के ये दोनों सबसे बड़े नेता जब तक मुंबई में थे, तो मुंबई के थे। मगर जैसे ही दिल्ली पहुंचे, तो सब भूल गए। जी हां, सब कुछ। कुछ भी याद नहीं है उनको। मनमोहन सिंह को तो सोनिया गांधी की कसम देकर दिल पर हाथ रखवाकर अगर पूछ लिया जाए कि सरदारजी जरा यह बताइए मुंबई के धमाकों में कितने लोग मारे गए, तो अपने ये प्रधानमंत्री बगलें झांकने नहीं लग जाएं, तो कहना। और रही बात सोनिया गांधी की, तो इस मामले में आप भी सहमत ही होंगे कि सही मायने में हमारे इस देश में सोनिया गांधी देश के प्रधानमंत्री से भी हजार गुना बड़ी नेता हैं। और हालात जब प्रधानमंत्री जैसे छोटे से आदमी की याददाश्त के यह हैं, तो फिर सोनिया गांधी से बहुत उम्मीद करना कोई ज्यादा समझदारी का काम नहीं है।

हादसे को करीब दो सप्ताह पूरे हो रहे हैं। जब देश चलानेवाले इन लोगों के कहीं भी आने - जाने का किसी को कोई वास्तविक फायदा नहीं होता, तो पता नहीं ये लोग घटना स्थलों पर जाते क्यूं हैं। और घायलों से मिलते क्यूं हैं। विस्फोटों की जांच शुरू हो गई है। पर, धमाके करनेवालों का कोई सुराग नहीं है। वास्तविक अपराधियों का दूर दूर तक कोई अता पता भी नहीं है। मुंबई में मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी दोनों यह कहकर गए थे कि बम विस्फोटों के पीछे जो लोग हैं, उनको जल्द ही ढूंढ लिया जाएगा। अपना सवाल है कि ढूंढ भी लोगे तो भी क्या कर लोगे ? साजिश करनेवालों का पता लग भी गया तो क्या हो जाएगा ? संसद पर हमला करने का साबित आरोपी अफजल गुरू दस साल से हमारे कब्जे में हैं। और मुंबई पर आतंक बनकर कहर की तरह टूट पड़ा दुर्दांत आतंकी कसाब भी हमारी कैद में है। ऐसे ही कई और आतंकवादी भी हमारे कब्जे में होने के बावजूद हमने इनको पूजने के अलावा किया क्या है?

Saturday, July 23, 2011

आप न आते तो अच्छा होता


-निरंजन परिहार-
मुंबई में बम फटे। धमाके हुए। लोग मरे। और बहुत सारे घायल भी हुए। इन धमाकों के बाद सोनिया गांधी मुंबई आईं। साथ में अपने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को भी लाईं। रस्म निभाने के लिए दोनों विस्फोट स्थलों पर गए। रिवाज के तहत मृतकों के परिजनों से मिले। उनको ढाढ़स बंधाया। जख्मों पर मरहम लगाने अस्पतालों में भी गए। घायलों से मिले। उनको सांत्वना दी। मुंबई के सामान्य लोग बेचारे बाग – बाग, कि तकलीफ के मौके पर देश के दो सबसे बड़े नेता शहर को संभालने दिल्ली से दौड़े चले आए। मगर क्या तो उनका आना, और क्या जाना। इस शहर की जिंदगी के असली आसमान पर मनमोहन और सोनिया गांधी का आज कोई असर नहीं है।

वे आए। मगर ना भी आए होते, तो भी यह शहर यूं ही जिंदा रहता। जिन घायलों से वे मिले, उन पर भी उनके आने का कोई असर नहीं। मंजर ठेट मारवाड़ की एक देसी कहावत जैसा है। कहावत यह है कि – ‘क्या परदेसी की प्रीत, क्या फूस का तापना। ऊठ परभात में देखिया, कोई नहीं आपणा।’ वे परदेसी की तरह आए और चले गए। रात गई, बात गई की तरह सुबह उठकर जब घायलों ने अपनी हालत निहारी तो लगा कि वे तो जस के तस हैं। वे सपने की तरह आए, और चले गए। उनके मुंबई आने का कोई फायदा नहीं हुआ। ना तो सरकार और ना ही प्रशासन, ना ही पुलिस और ना ही घायल, किसी को वास्तव में कोई फायदा नहीं। और, सच तो यह है कि विस्फोट में जो घायल हुए, वे हैरत में हैं। वे सवाल पूछ रहे हैं कि ये दोनों मुंबई आए क्यूं थे ?

मान लिया जाए कि यह महज परंपरा थी। तो, सोनिया और मनमोहन के मुंबई आने, जख्मों को सहलाने और परिजनों को सांत्वना देने की परंपरा निभाने पर मारे गए लोगों को स्वर्ग में कैसा लग रहा होगा, इसका तो हालांकि किसी को नहीं पता। लेकिन हादसे में हताहत लोगों को लग रहा है कि ये दोनों नेता मुंबई में ही कुछ दिन और रहते, रोज अस्पताल आते, हर घंटे घायलों से मिलते तो ज्यादा ठीक रहता। धमाकों में घायल अपने भाई भरत शाह का सैफी अस्पताल में इलाज करवा रहे प्रवीण शाह और जीतू शाह ने बिल्कुल सही कहा - ‘लोगों के इतनी अपेक्षा पालने की वजह यही है कि ये दोनों नेता जिस दिन मुंबई में थे, अस्पतालों में थे, तब तक तो जैसा कि आम तौर पर होता है, घायलों की भी खूब सार संभाल होती रही। मगर, उनके जाने के बाद कमसे कम सरकारी अस्पतालों में भर्ती घायलों का हाल कोई बहुत ठीक ठाक नहीं है। अब सब कुछ रुटीन जैसा है। बिल्कुल वैसा ही सामान्य, जैसा मुंबई का जनजीवन हो गया है।’

दक्षिण मुंबई के सांसद मिलिंद देवड़ा हाल ही में देश के संचार राज्य मंत्री बने हैं। पिता मुरली देवड़ा के केंद्रीय मंत्री मंडल से इस्तीफा देने की मजबूती भरी मजबूरियों ओर उनके एवज में बेटे मिलिंद देवड़ा को मंत्री बनाने के पीछे कांग्रेस की झोली भरने की मजबूरियों की बात कभी और करेंगे। फिलहाल बात सिर्फ विस्फोटों की। यह वही दक्षिण मुंबई है जिसमें ऑपेरा हाउस और जवेरी बाजार आते हैं। मिलिंद देवड़ा ही नहीं, और उनके पिता भी यहीं के लोगों के वोटों से चुने जाते रहे हैं। ताजा ताजा मंत्री का ताज पहने मिलिंद भी मनमोहन और सोनिया गांधी के साथ मुंबई आए। विस्फोट स्थलों पर गए। मारे गए लोगों के परिजनों से मिले। घायलों का हाल जानने अस्पताल भी गए। और बाद में सोनिया और मनमोहन की तरह वे भी चले गए। मिलिंद के दिल्ली लौट जाने के बाद लोगों को यह अहसास हो रहा है कि उनके वोटों से सांसद चुना गया एक लड़का, केंद्र में मंत्री पद पाते ही अब अचानक इतना बड़ा हो गया है कि वह सिर्फ देश के बड़े बड़े लोगों के साथ ही मुंबई के लोगों के दुख दर्द जानेगा। अपने पिता मुरली देवड़ा द्वारा चश्में बांटने की छोटी-छोटी खबरों का भी भरपूर प्रचार करने वाले मिलिंद देवड़ा ने अस्पतालों में जाने के अलावा और कुछ भी किया होता, तो इसकी जानकारी दुनिया को जरूर होती। मगर लोग मिलिंद के इस बार के रवैये से सन्न हैं। पर, इस सबसे देवड़ा परिवार को कभी कोई फर्क नहीं पड़ता। यह उनकी राजनीति का हिस्सा है। वे लोगों का उपयोग करना जानते हैं, और उनको यह भी पता है कि जनता की याददाश्त कोई बहुत मजबूत नहीं होती। विस्फोटों में घायल लोग इसलिए ज्यादा दुखी हैं, कि मिलिंद देवड़ा अपने मतदाताओं को ही भूल गए। मिलिंद और उनके पिता मुरली देवड़ा की इस मतलबी राजनीति पर भी विस्तार से कभी और। फिलहाल एक बार फिर लौटते हैं सोनिया गांधी और मनमोहन पर।

देश के ये दोनों सबसे बड़े नेता जब तक मुंबई में थे, तो मुंबई के थे। मगर जैसे ही दिल्ली पहुंचे, तो सब भूल गए। जी हां, सब कुछ। कुछ भी याद नहीं है उनको। मनमोहन सिंह को तो सोनिया गांधी की कसम देकर दिल पर हाथ रखवाकर अगर पूछ लिया जाए कि सरदारजी जरा यह बताइए मुंबई के धमाकों में कितने लोग मारे गए, तो अपने ये प्रधानमंत्री बगलें झांकने नहीं लग जाएं, तो कहना। और रही बात सोनिया गांधी की, तो इस मामले में आप भी सहमत ही होंगे कि सही मायने में हमारे इस देश में सोनिया गांधी देश के प्रधानमंत्री से भी हजार गुना बड़ी नेता हैं। और हालात जब प्रधानमंत्री जैसे छोटे से आदमी की याददाश्त के यह हैं, तो फिर सोनिया गांधी से बहुत उम्मीद करना कोई ज्यादा समझदारी का काम नहीं है।

हादसे को करीब दो सप्ताह पूरे हो रहे हैं। जब देश चलानेवाले इन लोगों के कहीं भी आने - जाने का किसी को कोई वास्तविक फायदा नहीं होता, तो पता नहीं ये लोग घटना स्थलों पर जाते क्यूं हैं। और घायलों से मिलते क्यूं हैं। विस्फोटों की जांच शुरू हो गई है। पर, धमाके करनेवालों का कोई सुराग नहीं है। वास्तविक अपराधियों का दूर दूर तक कोई अता पता भी नहीं है। मुंबई में मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी दोनों यह कहकर गए थे कि बम विस्फोटों के पीछे जो लोग हैं, उनको जल्द ही ढूंढ लिया जाएगा। अपना सवाल है कि ढूंढ भी लोगे तो भी क्या कर लोगे ? साजिश करनेवालों का पता लग भी गया तो क्या हो जाएगा ? संसद पर हमला करने का साबित आरोपी अफजल गुरू दस साल से हमारे कब्जे में हैं। और मुंबई पर आतंक बनकर कहर की तरह टूट पड़ा दुर्दांत आतंकी कसाब भी हमारी कैद में है। ऐसे ही कई और आतंकवादी भी हमारे कब्जे में होने के बावजूद हमने इनको पूजने के अलावा किया क्या है?

Thursday, July 14, 2011

अब आतंक की राजधानी है मुंबई


-निरंजन परिहार-

मुंबई को अब तक हम देश की आर्थिक राजधानी कहते रहे हैं। कुछ लोग इसे ग्लैमर की राजधानी भी मानते हैं। गालिब के दिल बहलाने वाले ख़याल की तरह इस शहर को हम आगे भी भले ही यही उपमाएं देते रहें। मगर हकीकत यह नहीं है। आतंकवाद ने देश की इस आर्थिक राजधानी के ग्लैमर को लील लिया है। और बीते कुछेक सालों के इतिहास पर नजर डालें तो, सबसे बड़ी हकीकत यही है कि मुंबई अब सिर्फ आतंक की राजधानी है। मगर, यह शहर बार बार अपने पर लगते आतंक के इस तमगे को हर बार हटाकर फिर से अचानक अपने असली अस्तित्व में आ जाता है।

लोग इसे इस शहर की तासीर कहते हैं। लेकिन अपना मानना है कि सब कुछ अपने भीतर समेट लेने का साहस रखनेवाला समुद्र अपनी शरण में आनेवालों को भी अपना यही स्वभाव बांट देता है। मुंबई समुद्र की शरण का शहर है। अरब सागर की पछाड़ मारती लाखों लहरों को रोज सहन करने वाला मुंबई इसीलिए सब कुछ सहन कर लेता है। सुख के सावन से लेकर दुख के दावानल तक और नश्वरता की निशानियों से लेकर अमर हो जाने के अवशेषों तक, समुद्र सबको अपने आप में सहेज कर भी वह धरती के किनारों पर हिलोरें लेता हुआ जस का तस जिंदा रहता है। युगों-युगों से ऐसा ही होता रहा है। आप और हम लोग नहीं रहेंगे, तब भी ऐसा ही रहेगा, अगले प्रलय तक। इसलिए, समुद्र जैसे साहस वाले शहर मुंबई की जिंदगी फिर पटरी पर भले ही आ जाती हों, मगर हकीकत यही है कि इस शहर के दिल की दीवारें दरक गई हैं। बम धमाकों, आतंकी हमलों और ऐसे ही बाकी हादसों ने इसको भीतर से मरोड़ कर रख दिया है।

बहुत पहले से जहां-जहां, जब-जब, जो-जो होता रहा है, उसकी बात बाद में। सबसे पहले बात जवेरी बाजार, ऑपेरा हाउस और दादर की। एक बार फिर बम। फिर धमाके। धमाकों में फटते इंसान। तार तार होती इंसानियत। और फिर लाशें ही लाशें। परखच्चों में तब्दील होकर आकाश में उड़ते उन लाशों के लोथड़े। और सड़कों पर खून। कुल मिलाकर मुंबई एक बार फिर लहूलुहान। जवेरी बाजार के धनजी स्ट्रीट के नुक्कड़ की दूकानों की दीवारों पर 26 जुलाई 2003 के धमाकों का लहू अब तक लगा हुआ है। हादसे के ये निशान अब तक लोगों को उस धमाके की याद दिलाकर इस शहर को आतंकवाद के निशाने पर होने का अहसास कराते रहे हैं। लेकिन 13 जुलाई 2011 की शाम फिर जवेरी बाजार दहल गया। शाम छह 55 पर उसकी छाती पर एक जोरदार धमाका हुआ। मुंबा देवी मंदिर के पास स्थित पुराने धटना स्थल से सिर्फ 50 कदम की दूरी पर भीड़ भरी खाऊ गली में यह बम फटा। लोगों के परखच्चे उड़ गए। जमीं तो जमीं, दीवारों पर भी खून ही खून। कई घायल हो गए। भागमभाग मच गई। लोग अब जवेरी बाजार के उन पुराने निशानों के बजाय नए पैदा हुए खून के खतरनाक निशानों पर नजर डालने तक से डर रहे हैं। जवेरी बाजार के धमाके के ठीक चार मिनट पहले दादर में छह 51 और उसके बाद तीसरा धमाका शाम सात बजकर पांच मिनट पर ऑपेरा हाउस में हुआ। सिर्फ 14 मिनट में ही रोजमर्रा की तरह चलती मुंबई की जिंदगी का चेहरा अचानक और एकदम ही उलट गया। कई मौके पर ही मारे गए, तो बहुत सारे जिंदा और अधजिंदा लोग बदहवास भागते फिर रहे थे। जिन लोगों ने उस मंजर को देखा है, वे उसे सपने की तरह याद करके अब भी अवाक हो रहे हैं।
यह मुंबई में आतंकवाद के ताजा अंतर्राष्ट्रीय अवशेष है। मगर सिलसिला पूरे 18 साल पुराना है। 12 मार्च, 1993...। यह वह तारीख है, जब यह शहर, पहली बार अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद के निशाने पर आया। इस तारीख को मुंबई में 13 जगहों पर बम धमाके हुए। एक के बाद एक करके हुए इन धमाकों में 257 लोग मारे गए। सैकड़ों घायल हुए। और इस तथ्य पर विश्वास कर लीजिए कि 18 साल बाद भी उन विस्फोटों के शिकार अपने शरीर में फंसे कांच के टुकड़े निकलवा रहे हैं। कुछ लोग अब भी अस्पतालों में इलाज करवा रहे हैं। सरकार ने इन धमाकों में 253 के मरने और 713 लोगों के घायल होने की बात कही थी। मगर 18 साल बाद आज तक लोग इन आंकड़ों पर भरोसा करने को तैयार नहीं है। वे कई लोग जो इतने सालों बाद भी अब तक घर नहीं लौटे हैं। वे ना तो मरनेवालों की सरकारी सूची में दर्ज हैं और ना ही घायलों में कहीं उनका नाम। जिनके परिजनों ने अपने रिश्तेदारों की 18 बरसियां भी मना ली हैं, उन लाचार लोगों के पास इन सरकारी आंकड़ों पर अविश्वास करने के अलावा कोई रास्ता ही नहीं है। यह मुंबई पर पहला आतंकवादी हमला था। जिसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर साजिश करके बहुत ही गहन तरीके से अंजाम दिया गया था। एक पूरी तरह सोची समझी रणनीति के तहत मुंबई को निशाना बनाया गया। और उसके बाद अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद हर बार मुंबई को अलग अलग तरीकों से मारता रहा। कभी बसों में बम फोड़कर, कभी लोकल ट्रेनों में लाशें बिछाकर, और कभी बाजारों में बम फोड़कर तो कभी भीड़ भरे रेल्वे स्टेशनों में घुसकर खुलेआम गोलियां बरसाकर यह आतंकवाद इस शहर को डराता रहा।
सिलसिलेवार अगर हिसाब लगाया जाए, तो मार्च 1993 के चार साल बाद अगस्त 1997 में मुंबई में जुम्मा मस्जिद के पास बम फटे। जनवरी 1998 में मालाड़, उसके एक महीने बाद फरवरी 1998 में विरार, फिर दिसंबर 2002 में 2 तारीख को घाटकोपर जा रही बस में और 6 तारीख को मुंबई सेंट्रल रेल्वे स्टेशन पर बम फटे। सन 2003 में सबसे ज्यादा चार धमाके इस शहर ने झेले। 27 जनवरी को विले पार्ले, 13 मार्च को मुलुंड, 14 अप्रेल को बांद्रा और 19 जुलाई को घाटकोपर में धमाके हुए। फिर 25 अगस्त 2003 को गेटवे ऑफ इंडिया और जवेरी बाजार में एक साथ विस्ट हुए। और 26 जुलाई 2007 को एक के बाद एक करके कुल सात जगहों पर लोकल ट्रेनों में लाशें बिछीं। उसके बाद तो अक्तूबर 2009 में समंदर के रास्ते से आकर ताज और ओबरॉय होटलों सहित छत्रपति शिवाजी रेल्वे टर्मिनस के साथ साथ सरे आम सड़कों पर पाकिस्तानी आतंकवादियों ने देश का जो सबसे बड़ा आतंकी हमला किया, और पूरी दुनिया ने लगातार तीन दिनों तक लाइव देखा। और अब एक बार फिर जवेरी बाजार, ऑपेरा हाउस और दादर के ये ताजा बम धमाके। कुल मिलाकर 1993 से शुरू हुआ मुंबई में आतंकवाद फैलाने का यह सिलसिला अनवरत जारी है।
मुंबई कभी संगठित अपराध की राजधानी भी हुआ करता था। सरे आम सड़कों पर गोलियां चलती लोगों ने कई कई बार देखी हैं। गैंगवार देखे। बीच बाजार गुंडों को मारते और मरते देखा। कभी कभी इन हादसों में निर्दोष और निरपराध लोगों की जान भी जाते देखा। मगर इन घटनाओं ने इस शहर को इतना कभी नहीं डराया, जितना बम धमाकों ने। ऐसे मामलों में अंतरर्राष्ट्रीय संबंधों को सहेजने की कोशिश में सरकारों के काम करने का अपना एक अलग कूटनीतिक नजरिया होता है। इसलिए वे विस्फोटों मारे गए लोगों के परिजनों के दर्द से ताल्लुक रखने के बजाय कुछ वे सिर्फ कुछ नाम, कुछ तथ्य और कुछ संपर्कों के तार तलाशती रहती हैं। मगर चेहरे इतने महत्वपूर्ण नहीं हैं, जितना आतंकवाद के इस चरित्र को समझना जरूरी है। राजनीति से इतर, गनीमत यह है कि जिस खाकी वर्दी को हमें कोसने की आदत पड़ चुकी है, वह बहुत ही साहसिक तरीके से काम करती दीख रही है, यह हमारे लिए राहत की बात है। खद्दर धारियों के मुकाबले खाकी धारियों की सेवा की सराहना की जानी चाहिए, कि वे आतंकवाद के इस नए चरित्र को सामने लाने के प्रयास कर रहे हैं। लोग भी इसे समझने लगे हैं। तभी तो अस्पताल में घायलों को देखने गए मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण को लोगों ने अंदर घुसने भी नहीं दिया। बाहर से ही भगा जिया। जबकि इसके उलट वे ही लोग पुलिस वालों के साथ पूरी तरह सहयोग करते देखे जा रहे थे। यह हमारे राजनेताओं की सामाजिक इज्जत की असलियत है। बेइज्जती का यह आलम इसलिए अधिक है, क्योंकि रोज होते हमलों और बार बार होते बम ब्लास्ट में तस्वीर बिल्कुल साफ होने के बावजूद के हमारे राजनेताओं को सीधे सीधे पाकिस्तान का नाम लेने में शर्म आती है। ठीक वैसे ही जैसे, ठेट गांव की बहुत सारी महिलाएं अपनी शर्मीली अदाओं को जाहिर करते हुए अपने पति का नाम लेने के बजाय को‘उनको’ कह कर इंगित करती है। यह पाकिस्तान जैसे कोई देश नहीं हुआ, हमारे राजनेताओं के पति का नाम हो। सो, वे अकसर इसको पड़ोसी देश कहते हैं। हमारे देश से थोड़ा बाहर जाकर बाकी देशों के नेताओं को हमारे मामलों में भी देखें, तो वे भी हमारे हादसों पर सिर्फ सांत्वना देते हुए संयम बरतने की सलाह देते हैं। लानत उन पर भी है, क्योंकि कोई भी मामले की तह तक जाकर आतंकवाद के खात्मे पर होनेवाले प्रयासों में सहभागी बनने की बात नहीं करता।
सालों-साल से अपराध की राजधानी होने के बावजूद मुंबई की सामान्य जिंदगी पर उसका प्रकट असर आमतौर पर कभी नहीं देखा गया। देसी धुन और परदेसी संगीत के किसी रिमिक्स की तर्ज पर हर हादसे के बाद हर बार यह शहर अपनी संगीतमयी रफ्तार में बहता रहता है। कुछ लोग इसे इस शहर के लोगों का जज़्बा कहते हैं। मगर हकीकत यह है कि यह जज़्बा नहीं, जिंदगी को जीने की जरूरत हुआ करती है, जो घर से निकलने के लिए लोगों को मजबूर करती है। काम पर नहीं पहुंचेंगे, तो कमाएंगे कैसे। दफ्तर नहीं जाएंगे, तो नौकरी से निकाल दिए जाएंगे। घर में ही बैठे रहे, तो जिंदगी का एक पूरा दिन बिना कमाई के ही गुजर जाएगा। सो, कृपा करके इन मजबूरियों को जज़्बा कहकर जज़्बे के जीवट को जार-जार मत कीजिए। जज़्बा तो जीवन को जीतने की जिद का नाम हुआ करता है जनाब ! जिंदगी की मजबूरियों को ढोने को जज़्बा नहीं कहते। हर हादसे के तत्काल बाद मजबूरियों के मारे लोग घरों से निकलते तो हैं, दफ्तरों के लिए बाहर आते तो हैं और दूकानें भी सजाते हैं। लेकिन दिल में अपनों के जिंदा रहने की दूआ और चेहरे पर कभी भी कुछ भी घट जाने का अजब आतंक साफ देखा जा सकता है। उसकी वजह यही है कि आतंक अब इस शहर की धमनियों में धंस कर पसलियों तक पसर चुका है। इसीलिए आर्थिक नहीं, अपराध की नहीं और ग्लैमर की भी नहीं, मुंबई अब सिर्फ आतंक की राजधानी है। है कि नहीं ?
(लेखक निरंजन परिहार राजनीतिक विश्लेषक और जाने-माने पत्रकार हैं।)

Thursday, July 7, 2011

मीडिया ने मार दिया मालदार मारन को


-निरंजन परिहार-
पहले तहलका। उसके बाद इकोनॉमिक टाइम्स। उनके साथ पूरे देश का मीडिया। फिर सीबीआई। और अब इस देश में सबकी माई ‘बाप’ सुप्रीम कोर्ट। दयानिधि मारन की हवा टाइट है। अब बोलती बंद है। लेकिन कुछ दिन पहले तक बहुत फां-फूं कर रहे थे। तहलका ने जब सबसे पहले मामला सामने लाया तो उसको मानहानि का दावा ठोंकने की धौंस दिखाई। इकोनॉमिक टाइम्स ने खबर छापी तो उसको भी डराने की कोशिश की। मगर पहले भारत सरकार के कंट्रोलर एंड ऑडिटर जनरल यानी सीएजी ने मारन के चोर होने की बात कही तो दयानिधि की सांस हलक में ही अटक गईं। और अब जब, सीबीआई ने इस देश में सबकी माई ‘बाप’ सुप्रीम कोर्ट में कहा कि मारन ने बहुत माल कमाया है, तो बोलती बिल्कुल बंद हो गई है। मीडिया ने आईना दिखाया तो, आंख दिखा रहे थे। मानहानि की धोंस दिखाई। कोर्ट में घसीटने के नोटिस दे दिए। अब क्या सीएजी और सीबीआई को भी कोर्ट में घसीटोगे ? और सुप्रीम कोर्ट ने भी कह दिया तो उसको कौनसी कोर्ट में बुलाओगे मारन !
दयानिधि और उनके भाई कलानिधि मारन तीन अरब डॉलर के मालिक हैं। और भारत के अमीरों की सूची में बीसवें नंबर के सबसे अमीर आदमी माने जाते हैं। फिर भी पेट भरा नहीं, तो देश लूटने के लिए दक्षिण से देश की राजधानी दिल्ली तक पहुंच गए। बहुत भोली सी सूरत और बेहद मासूम दिखनेवाले दयानिधि मारन के अपने ही कुल के साथ किए कपट की किताब के पन्ने कभी और पलटेंगे। आज बात सिर्फ इसी पर कि कॉरपोरेट कल्चर से राजनीति में आए मारन ने अपनी चोरी छुपाने के लिए मीडिया को उसके खिलाफ ही हथियार के रूप में इस्तेमाल करने की कोशिश की। उनके सन टीवी पर खूब दिखाया गया कि तहलका और टाइम्स झूठ बोल रहे हैं। बाकी मीडिया भी तहलका और टाइम्स के हवाले से जो कह रहा है, वह हलाहल झूठ है। मगर मामला जमा नहीं। मारन मीडिया को मरोड़ने चले थे, मगर खुद ही मुड़े हुए नजर आ रहे हैं। अब उनकी राजनीतिक मौत तय है।
दयानिधि मारन चोर है। देश के चोर। यह साबित हो रहा हैं। इस चोर की पोलपट्टी अब सबके सामने है। लेकिन एक बहुत पुरानी कहावत है कि साधु का भेस धारण करनेवाले चोर की जब पोल खुलती है, तो वह अपने ईमानदार होने का ढोल भी कुछ ज्यादा ही जोर से पीटता है। देश के टेलीकॉम मंत्रालय को अपने सन टीवी के फायदे की दूकान के रूप में देखने वाले दयानिधि मारन इसी कहावत पर चल रहे थे। इसीलिए मीडिया को डरा रहे थे। तहलका ने जब कहा कि मारन ने अपने सन टीवी को फायदा पहुंचाने के लिए एयरसेल को अपनी और उसकी, दोनों की औकात से भी बहुत बाहर जाकर बड़ा फायदा दिया। तो मारन ने जोरदार विरोध किया। मामला इज्जत का था। सो, दुनिया भर के मीडिया को बुला - बुलाकर खुद के बेदाग और ईमानदार होने की बात कही। मगर सवाल तहलका की इज्जत का भी था, सो, तहलका डटा रहा। मारन ने नोटिस भेजी। फिर मानहानि का दावा भी ठोंक दिया। यही खबर जब इकोनॉमिक टाइम्स ने देश को दी, तो बराबर उसी तर्ज पर मारन ने उसे भी धमकाने की कोशिश की। रोज मीडिया के सामने आ-आकर चीख-चीख कर मारन ने कहा कि मीडिया बदनाम करने की कोशिश कर रहा है। मारन ने सोचा था कि उनके सनटीवी में जिस तरह से खबरें दबाई जाती है और जिस तरह खबरों को दबाने के बदले दबाकर माल लिया जाता है, वैसा ही किया तो मीडिया यही समझेगा कि मारन ने घोटाला तो किया है। सो, धमकाने का यह दूसरा पैतरा अपनाया।
इकोनॉमिक टाइम्स तो मारन की धोंस पर चुप सा हो गया। वह बनिये की दूकान है। वहां खबरें खुलेआम बिकती हैं। उनके ही टाइम्स ऑफ इंडिया के साथ फोकट में मिलनेवाले बॉम्बे टाइम्स जैसे लोकल टाइम्सों को तो हर शहर में बाकायदा ‘एंटरटेनमेंट प्रमोशनल फीचर’ की घोषणा के साथ ही खबरों की खरीद फरोख्त के लिए बीच बाजार खड़ा किया गया है। नवभारत टाइम्स में भी हर मंगलवार को रेस्पोंस फीचर के नाम से पैसे लेकर वीडियोकॉन के मालिक विशुद्ध व्यापारी वेणुगोपाल धूत को संतों की श्रेणी में खड़ा करने की कोशिश हो ही रही है। सो, मारन के मामले में ‘टाइम्स’ से कोई बहुत उम्मीद किसी को नहीं थी। लेकिन तहलका डरनेवाला आइटम नहीं है। फिर तहलका के लोग कोई हरामखोरी के पैसे पर पलनेवाले प्राणी भी नहीं हैं। तहलका भिड़ा रहा। लगातार कहता रहा कि मारन ने मजबूती से मलाई काटी है। बाद में तो खैर सीएजी की रिपोर्ट भी आ गई। तो सभी ने यह खबर पढ़ाई और दिखाई भी कि टेलीकॉम सर्किल के आवंटन की एवज में तत्कालीन दूरसंचार मंत्री दयानिधि मारन ने रिश्वत लेने का कॉर्पोरेट रास्ता खोलते हुए किस तरह अपनी कंपनी ‘सन टीवी डाइरेक्ट’ में मलेशिया की एक मामूली सी दूरसंचार कंपनी मेक्सस से निवेश के रूप में 830 करोड़ रुपए लिए। अब सीबीआई ने भी यही बात कही है। और सीबीआई कोई हवा में बात नहीं करती। वह तथ्यों को तोलती है। फिर बोलती है। और सारे सबूतों के साथ पोल खोलती है। इसीलिए मामला सुप्रीम में है। अब शिकंजा वहीं से कस रहा है। तो, मारन मौन हैं। सिट्टी – पिट्टी गुम है। मीडिया ने आईना दिखाया तो उसे गलत बताकर धमकाने लगे थे। अचानक बहुत ताकत दिखाने लगे थे। अब उसी बात को सीबीआई ने सुप्रीम कोर्ट में कहा तो फिर सीबीआई को भी तो कोर्ट में खींचो ना भाई। मीडिया को तो बहुत ताकत दिखा रहे थे। अब वह ताकत कहां घुस गई? बोलो मारन ?
(लेखक निरंजन परिहार राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

Thursday, June 30, 2011

उस सनी देओल को आप इतना नहीं जानते !



-निरंजन परिहार -
सनी देओल मिले थे। वैसे ही हैं, जैसे आपको फिल्मों में दिखते हैं। मजबूत, दमदार और एकदम गबरू जवान। बिल्कुल वैसे हैं, जैसे बरसों पहले अपन उनसे पहली बार मिले थे। पचपन साल की उमर में भी एकदम जवान पट्ठे की तरह दिखना और उससे भी ज्यादा फूर्तिला होना, वाकई बहुत कमाल की बात है। लेकिन उससे भी बड़े कमाल की बात यह है कि 30 बरस पहले अपनी पहली सुपर हिट फिल्म ‘बेताब’ में संजय गांधी की सहेली रुखसाना सल्तान की बेटी अमृतासिंह के साथ पहलगाम की पहाडियों में प्रेमालाप करते हुए वे जितने भोले और जितने मासूम लग रहे थे। वही भोली सी सूरत और उस पर तैरती निश्छल शर्मीली मुस्कान इतने सालों बाद आज भी उनके चेहरे पर जस की तस तारी है। फिल्मों की जिंदगी में दुनियादारी इस कदर हावी है कि अच्छे – भले लोग सिर्फ दो चार साल में ही ठिकाने लग जाते हैं। लेकिन लगातार इतने सालों तक इतना सारा भरपूर थका देनेवाला काम करने के बावजूद खुद को इस कदर सालों बाद भी लड़कपन में ही अटकाए रखना अपने आप में बहुत हैरत में डालनेवाली बात है।
मगर जो लोग सनी को जानते हैं, वे यह भी अच्छी तरह जानते हैं कि दुनिया को हैरत में डालना उनकी आदत का हिस्सा है। दुनिया उनकी इसी तरह की दमदार दीवानगी पर दंग होती रही है। अब वे एक नया पराक्रम करने जा रहे हैं। पराक्रम यह है कि बाइस साल पहले सनी देओल ने जिस फिल्म में बहुत धांसू और बेहद धूंआधार रोल किया था, अब जाकर वे उस ‘घायल’ का सीक्वल बनाने जा रहे हैं। लोगों को ज्यादा हैरत इसलिए हो रही है, क्योंकि जमाना बहुत तेजी का है। सीक्वल के लिए साल - दो साल तो ठीक, पर 22 साल....! लोग कल देखी फिल्म की कहानी भूल जाते हैं। ऐसे में इतने सालों बाद ‘घायल’ का सिक्वल ! मगर, अपने बारे में लोगों की धारणा को अकसर गलत साबित करना उनका इतिहास रहा हैं। और बने बनाए मिथक उलट कर रख देना उनकी फितरत में शामिल है। सनी इसीलिए पूरी ताकत से ‘घायल’ का सिक्वल बनाने में जुट गए हैं।
अपनी दोनों हाथों की उंगलियों को एक दूसरी के बीच भींचने के बाद जो मट्ठी बनती हैं, वह महाभारत की कहानियों में भले ही दूसरों पर प्रहार के लिए काम आती रही हो। लेकिन सनी देओल अपने दोनों घुटनों पर दोनों कोहनियों को रखने के बाद उस मुट्ठी पर अपनी ठुड्डी को टिकाते हैं। और, इसके बाद जो दृश्य बनता है, वह बहुत गजब होता है। उनकी इस अदा की कॉपी देश और दुनिया के करोड़ों लोग करते हैं। ‘बेताब’ की शूटिंग के लिए पहलगाम जाने से पहले राजस्थान में अपने गांव माउंट आबू में सनी देओल लोकेशंस देखने आए थे। वह अपने स्कूल का जमाना था, और अपना पहली बार वहीं उनसे सामना हुआ था। घुटने, कोहनी, मुट्ठी और ठुड्डी के मेल की यह अदा तब भी सनी की जिंदगी में थी। और आज भी है। लगता है, घुटने, कोहनी, मुट्ठी और ठुड्डी के इस मजबूत मेल से ही सनी को और मजबूती मिलती है। इसीलिए ‘घायल’ के सिक्वल के सवाल पर अपनी इसी अदा को फिर बनाने के बाद अचानक बहुत निश्चिंत दिख रहे सनी ने कहा - ‘घायल रिटर्न्स’ को भी लोग वैसे ही पसंद करेंगे, जैसे ‘घायल’ को अपनाया था। अगले साल हमारी यह फिल्म आ जाएगी।’
सनी देओल इस फिल्म के जरिए एक बार फिर अपने असली अवतार में आने की तैयारी में हैं। बहुत जोशीले, धमाकेदार और सुपर एक्शन किंग के रोल में। सनी बता रहे थे कि एक लंबे वक्त के बाद ‘घायल रिटर्न्स’ उनकी एक कंप्लीट एक्शन फिल्म होगी और उनको यह विश्वास है कि लोग इसको जरूर पसंद करेंगे। यह ‘घायल’ के आगे की कहानी है। हालांकि फिल्म जगत के जानकार ही नहीं फिल्मों की थोड़ी बहुत जानकारी रखनेवाले भी इस तथ्य से बेहतर वाकिफ हैं कि किसी भी बेहतरीन फिल्म के सारे पैरामीटर पर ‘घायल’ एकदम परफैक्ट फिल्म थी। लेकिन इतने सालों बाद सीक्वल क्यों ? तो सनी बोले - ‘यह सही है कि 22 साल का वक्त कोई कम नहीं होता। फिर इतने सालों बाद भी ‘घायल’ के एक्शन, इमोशंस, कैरेक्टर, डायलॉग आदि हर मामले पर लोग अब भी बातें करते हैं। ‘घायल’ आज भी लोगों के दिलो-दिमाग पर छाई हुई है।’ अपना मानना है कि सनी के लिए यही सबसे बड़ी मुश्किल भी है कि इतने सालों बाद भी ‘घायल’ का एक एक सीन याद है दर्शकों को। उनको भले ही यह सब सुनने में बहुत अच्छा लगे, लेकिन यही सनी के सामने सबसे बड़ा चैलेंज भी है। हम जब दुनिया की अपेक्षाओं से भी कई गुना ज्यादा बड़ा काम कर लेते हैं, तो उससे भी बड़ा करने काम में बहुत सारी तकलीफें आती हैं। मगर ‘घायल रिटर्न्स’ टीजर देखकर साफ लगता है कि इस चैलेंज को सनी ने स्वीकार कर लिया है। टीजर में सनी ने खुद को बहुत मजबूती से इसीलिए पेश किया है, ताकि ‘घायल रिटर्न्स’ में वे खुद को ‘घायल’ से भी बहुत ज्यादा अच्छा पेश कर सकें।
दरअसल, सनी की मुश्किल यह है कि वे बाकी अभिनेताओं की तरह नहीं हैं। वे अपने काम से प्यार भी करते हैं। सिर्फ एक्टिंग नहीं करते। जो कुछ भी करते हैं, पूरे मन से करते हैं। और पूरी फिल्म का भार अपने कंधों पर ढोए रहते हैं। कभी पीठ दर्द उनको बहुत सताता था। पर, सनी की हालात से लड़ने की ताकत के सामने वह भी हार गया। पता ही नहीं चला, कब साथ छोड़ गया। हिम्मत उनमें गजब की है। लेकिन चेहरे की मासूम मुस्कान की तरह ही सतत काम करते रहने की आदत अभी भी छूटी नहीं है। थकते ही नहीं। अपन राजनीति के आदमी हैं। फिल्मों और उनमें काम करनेवाले कलाकारों के दर्शन के दीवाने नहीं। मगर, मुंबई के गोरेगांव इलाके में सनी ने अपने को मिलने बुलाया था, वहां अपन शाम को थोड़े देर से ही पहुंचे, तो पता चला कि कुछ और वक्त लगेगा। वे सुबह से ही तपती धूप में लगातार आठ घंटे से शूटिंग कर रहे हैं। लेकिन इतने लंबे वक्त से सतत काम कर रहे सनी जब अपने पास पहुंचे, तो आश्चर्यजनक रूप से बिल्कुल फ्रेश थे। यह उनके मन की मजबूती थी, जो तन की थकान को भीतर घुसने ही नहीं देती। सामने आते ही अपनी परिचित शर्मीली मुस्कान के साथ स्वागत की मुद्रा में हाथ आगे करके बोले – चलिए, बात कर लेते हैं। लेकिन पहले चाय पी लेते हैं। बात शुरू हुई, तो मजा आने लगा। आम तोर पर देओल खानदान के लोग बहुत कम बोलते हैं, लेकिन सनी देओल बोले। बहुत बोले और जमकर बोले। बहुत सारे विषयों पर बहुत तरह की बहुत लंबी बात। इन्हीं बातों में सनी ने मन के इतने सारे राज खोले कि अब अपन कम से कम यह दावा तो कर ही सकते हैं कि सनी देओल को अपन जितना जानते हैं, बहुत कम लोग जानते होंगे। लेकिन जो भी बातें हुईं, उनका का सार यही है कि सनी देओल सिर्फ फिल्मों तक ही सीमित नहीं है। वे भावुक और संवेदनशील तो हैं ही, दुनियादारी के हर मामले और उनके मर्म को भी गहराई से समझते हैं। फिलम जगत के बहुत बड़े बड़े लोगों से अपन पहले भी कई बार मिले हैं। इसलिए अपन यह तो कह ही सकते हैं कि बाकी बहुत सारे अभिनेताओं के मुकाबले सनी देओल हर मामले में बहुत उंचे आदमी हैं।
सनी से हुई जिंदगी के अहसास, उसकी उलझनें, सुख-दुख, उसके उतार-चढ़ाव और बाकी बहुत सारी बातें कभी और। लेकिन फिलहाल इतना ही कि भले ही बीच में लगातार कई फिल्में फ्लॉप रहीं, ‘जो बोले सो निहाल’, ‘बिग ब्रदर’, ‘नक्शा’, ‘बिग ब्रदर’ आदि ने तो बॉक्स ऑफिस पर पानी भी नहीं मांगा। आलोचकों ने यहां तक कह दिया कि अपनी एक्शन के जरिए बड़े परदे पर एकछत्र राज करनेवाला यह अभिनेता अब थक चुका है। लेकिन अपनी ताकत के अलावा किसी और की परवाह करना सनी की आदत में नहीं है। यही वजह है कि ‘घातक’, ‘घायल’, ‘दामिनी’, ‘अर्जुन’, ‘त्रिदेव’, ‘सल्तनत’, ‘नरसिम्हा’,‘समंदर’, ‘डकैत’, ‘बॉर्डर’, ‘गदर’, जैसी कई सुपरहिट फिल्मों को अकेले अपने कंधों पर ढोकर सफलता दिलानेवाला यह हीरो पता नहीं क्यों हर बार पहले से बहुत ज्यादा ज्यादा ताकतवर लगता है। 19 अक्टूबर, 1956 को दिल्ली में जन्मे सनी देओल के बचपन के बेहद संकोची और शर्मीले स्वभाव को देखकर उनकी माता प्रकाश कौर को यह कतई अंदाज नहीं था, कि वे कभी अपने बेटे को जीवन के आज के मुकाम पर देखेंगी भी। लेकिन अपने हुनर, अपनी कला, अपनी मेहनत और अपनी मासूमियत से आज सनी दुनिया को दंग करते देखे जा सकते हैं। धारणाएं तोड़ना उनको आता है, और बने बनाए मिथक उलटकर आवाम को अवाक कर देने की हालत में खड़ा कर देने की अदा उनकी आदत का हिस्सा है। जिनको इस बात पर भरोसा नहीं हो, वे पिता धर्मेंद्र और भाई बॉबी देओल के साथ ‘यमला, पगला, दीवाना’ में उनके अभीभूत कर देने वाले अंदाज अब भी देख सकते हैं। इसीलिए भरोसा किया जाना चाहिए कि अगर सब कुछ ठीक ठाक रहा तो ‘घायल रिटर्न्स’ भी वैसा कुछ करेगी, जैसा सनी की बहुत सारी फिल्में करती रही हैं। कहनेवाले तब भी कोई कम नहीं थे। बहुत लोग, बहुत पहले से बहुत कुछ कह रहे थे। लेकिन आप भी गवाह हैं कि इस सबके बावजूद ‘गदर – एक प्रेम कथा’ ने बॉलीवुड़ की सबसे सफलतम फिल्म साबित होकर सबके मुंह बंद किए ही थे ना ! सनी देओल इस बार भी ऐसा ही कुछ करके इस बार फिर मैदान मारने की फिराक में हैं। इंतजार कीजिए। (प्राइम टाइम इंडिया)

Monday, June 27, 2011

...मगर खबरें अभी और भी हैं !



-निरंजन परिहार-
वह शुक्रवार था। काला शुक्रवार। इतना काला कि वह काल बनकर आया। और हमारे एसपी को लील गया। 27 जून 1997 को भारतीय मीडिया के इतिहास में सबसे दारुण और दर्दनाक दिन कहा जा सकता है। उस दिन से आज तक पूरे चौदह साल हो गए। एसपी सिंह हमारे बीच में नहीं है। ऐसा बहुत लोग मानते हैं। लेकिन अपन नहीं मानते। वे जिंदा है, आप में, हम में, और उन सब में, जो खबरों को खबरों की तरह नहीं, जिंदगी की तरह जीते हैं। यह हमको एसपी ने सिखाया। वे सिखा ही रहे थे कि..... चले गए।
एसपी। जी हां, एसपी। गाजीपुर गांव के सुरेंद्र प्रताप सिंह को इतने बड़े संसार में इतने छोटे नाम से ही यह देश जानता हैं। वह आज ही का दिन था, जब टेलीविजन पर खबरों का एकदम नया और गजब का संसार रचनेवाला एक सख्स हमारे बीच से सदा के लिए चला गया। तब दूरदर्शन ही था। जिसे पूरे देश में समान रूप से सनातन सम्मान के साथ स्वीकार किया जाता था। देश के इस राष्ट्रीय टेलीविजन के मेट्रो चैनल की इज्ज्त एसपी की वजह से बढ़ी। क्योंकि वे उस पर रोज रात दस बजे खबरें लेकर आते थे। पर, टेलीविजन के परदे से पार झांकता, खबरों को जीता, दृश्यों को बोलता और शब्दों को तोलता वह समाचार पुरुष खबरों की दुनिया में जो काम कर गया, वह ‘आजतक’ कोई और नहीं कर पाया। 27 जून, 1997 को दूरदर्शन के दोपहर के बुलेटिन पर खबर आई – ‘एसपी सिंह नहीं रहे।’ और दुनिया भर को दुनिया भर की खबरें देनेवाला एक आदमी एक झटके में खुद खबर बन कर रह गया। मगर, यह खबर नहीं थी। एक वार था, जो देश और दुनिया के लाखों दिलों पर बहुत गहरे असर कर गया। रात के दस बजते ही पूरे देश को जिस खिचड़ी दढ़ियल चेहरे के शख्स से खबरें देखने की आदत हो गई थी। वह शख्स चला गया। देश के लाखों लोगों के साथ अपने लिए भी वह सन्न कर देनेवाला प्रहार था।
अपने जीवन के आखरी न्यूज बुलेटिन में बाकी बहुत सारी बातों के अलावा एसपी ने तनिक व्यंग्य में कहा था – ‘मगर जिंदगी तो अपनी रफ्तार से चलती रहती है।’ टेलीविजन पर यह एसपी के आखरी शब्द थे। एसपी ने यह व्यंग्य उस तंत्र पर किया था, जो मानवीय संवेदनाओं को ताक में रखकर जिंदगी को सिर्फ नफे और नुकसान के तराजू में तोलता है। उस रात का वह व्यंग्य एसपी के लिए विड़ंबना बुनते हुए आया, और उन्हें लील गया। इतने सालों बाद भी अपना एसपी से एक सवाल जिंदा है, और वह यही है कि - खबरें तो अभी और भी थीं एसपी... और जिंदगी भी अपनी रफ्तार से चलती ही रहती, पर आप क्यों चले गए। इतने सालों बाद आज भी हमको लगता है, कि न्यूज टेलीविजन और एसपी, दोनों पर्याय बन गए थे एक दूसरे का। ‘आजतक’ को जन्म देने, उसे बनाने, सजाने – संवारने और दृश्य खबरों के संसार में नई क्रांति लाकर खबरों के संसार में नंबर वन बन बैठे एसपी ने ‘आजतक’ को ही अपना पूरा जीवन भी दान कर दिया। जीना मरना तो खैर अपने हाथ में नहीं है, यह अपन जानते हैं। मगर फिर भी, यह कहते हैं कि एसपी अगर ‘आजतक’ में नहीं होते, तो शायद कुछ दिन और जी लेते।
वह ‘बॉर्डर’ थी, जो एसपी की जिंदगी की भी ‘बॉर्डर’ बन आई थी। सनी देओल के बेहतरीन अभिनय वाली यह फिल्म देखने के लिए दिल्ली के ‘उपहार’ सिनेमा में उस दिन बहुत सारे बच्चे आए थे। वहां भीषण आग लग गई और कई सारे बच्चों के लिए वह सिनेमाघर मौत का ‘उपहार’ बन गया। बाकी लोगों के लिए यह सिर्फ एक खबर थी। मगर बेहद संवेदनशील और मानवीयता से भरे मन वाले एसपी के लिए यह जीवन का सच थी। जब बाकी बुलेटिन देश और दुनिया की बहुत सारी अलग अलग किस्म की खबरें परोस रहे थे, तो उस शनिवार के पूरे बुलेटिन को एसपी ने ‘बॉर्डर’ और ‘उपहार’ को ही सादर समर्पित कर दिया। टेलीविजन पर खबर परोसने में यह एसपी का अपना विजन था। शनिवार सुबह से ही अपनी पूरी टीम को लगा दिया। और शाम तक जो कुछ तैयार हुआ, उस बुलेटिन को अगर थोड़ा तार तार करके देखें, तो उसमें एसपी का एक पूरा रचना संसार था। जिसमें मानवीय संवेदनाओं को झकझोरते दृश्यों वाली खबरों को एसपी ने जिस भावुक अंदाज में पेश किया था, उसे इतने सालों बाद भी यह देश भूला नहीं है। दरअसल, वह न्यूज बुलेटिन नहीं था। वह कला और आग के बीच पिसती मानवीयता के बावजूद क्रूर अट्टहास करती बेपरवाह सरकारी मशीनरी और रुपयों की थैली भरनेवाले सिनेमाघरों के स्वार्थ की सच्चाई का दस्तावेज था। एसपी ने उस रात के अपने इस न्यूज बुलेटिन में इसी सच्चाई को तार तार किया, जार जार किया और बुलेटिन जैसे ही तैयार हुआ, एसपी ने बार बार देखा। फिर धार धार रोए। जो लोग एसपी को नजदीक से जानते थे, वे जानते थे कि एसपी बहुत संवेदनशील हैं, मगर इतने...? दरअसल, एसपी के दिमाग की नस फट गई थी। जिन लोगों ने शुक्रवार के दिन ‘बॉर्डर’ देखने ‘उपहार’ में आए बच्चों की मौत के मातम भरे मंजर को समर्पित शनिवार के उस आजतक को देखा है, उन्होंने चौदह साल बाद भी आजतक उस जैसा कोई भी न्यूज बुलेटिन नहीं देखा होगा, यह अपना दावा है। और यह भी लगता है कि हृदय विदारक शब्द भी असल में उसी न्यूज बुलेटिन के लिए बना होगा। एसपी की पूरी टीम ने जो खबरें बुनीं, एसपी ने उन्हें करीने से संवारा। मुंबई से खास तौर से ‘बॉर्डर’ के गीत मंगाए। उन्हें भी उस बुलेटिन में एसपी ने भरा। धू – धू करती आग, जलते मासूम, बिलखते बच्चे, रोते परिजन, कराहते घायल, सम्हालते सैनिक, और मौन मूक प्रशासन को परदे पर लाकर पार्श्व में ‘संदेसे आते हैं...’ की धुन एसपी ने इस तरह सजाई गई कि क्रूर से क्रूर मन को भी अंदर तक झकझोर दे। तो फिर एसपी तो भीतर तक बहुत संवेदनशील थे। कोई बात दिमाग में अटक गई। यह न्यूज बुलेटिन नहीं, आधे घंटे की पूरी डॉक्यूमेंट्री थी। और यही डॉक्यूमेंट्रीनुमा न्यूज बुलेटिन एसपी के दिमाग की नस को फाड़ने में कामयाब हो गया।
जिंदगी से लड़ने का जोरदार जज्बा रखनेवाले एसपी अस्पताल में पूरे तेरह दिन तक उससे जूझते रहे। मगर जिंदगी की जंग में आखिर हार गए। सरकारी तंत्र की उलझनभरी गलियों में अपने स्वार्थ की तलाश करनेवालों का असली चेहरा दुनिया के सामने पेश करनेवाले अपने आखरी न्यूज बुलेटिन के बाद एसपी भी आखिर थक गए। बुलेटिन देखकर अपने दिमाग की नस फड़वाने के बाद तेरह दिन आराम किया और फिर विदाई ले ली। पहले राजनीति की फिर पत्रकारिता में आए एसपी ने 3 दिसंबर 1948 को जन्मने के बाद गाजीपुर में चौथी तक पढ़ाई की। फिर कलकत्ता में रहे। 1964 में बीए के बाद राजनीति में आए, पर खुद को खपा नहीं पाए। सो, 1970 में कलकत्ता मंई खुद के नामवाले सुरेंद्र नाथ कॉलेज में लेक्चररी भी की। पर, मामला जमा नहीं। दो साल बाद ही ‘धर्मयुग’ प्रशिक्षु उप संपादक का काम शुरू किया। फिर तो, रुके ही नहीं। रविवार, नवभारत टाइम्स और टेलीग्राफ होते हुए टीवी टुडे आए। और यहीं आधे घंटे का न्यूज बुलेटिन शुरू करने का पराक्रम किया, जो उनसे पहले इस देश में और कोई नहीं कर पाया। वे कालजयी हो गए। कालजयी इसलिए, क्योंकि दृश्य खबरों के संसार का जो ताना बाना उनने इस देश में बुना, उनसे पहले और उनके बाद और कोई नहीं बुन पाया।
टेलीविजन खबरों के पेश करने का अंदाज बदलकर एसपी ने देश को एक आदत सी डाल दी थी। आदत से मजबूर उन लोगों में अपने जैसे करोड़ों लोग और भी थे। लेकिन मीडिया में अपन खुद को खुशनसीब इसलिए मानते हैं, क्योंकि अपन एसपी के साथ जब काम कर रहे थे, तो उनके चहेते हुआ करते थे। अपन इसे अपने लिए गौरव मानते रहे हैं। एसपी जब टेलीविजन के काम में बहुत गहरे तक डूब गए थे, तो उनने एक बार अपन से कहा था जो वे अकसर कईयों को कहा करते थे – ‘यह जो टेलीविजन है ना, प्रिंट मीडिया के मुकाबले आपको जितना देता है, उसके मुकाबले आपसे कई गुना ज्यादा वसूलता है।’ एसपी ने बिल्कुल सही कहा था। टेलीविजन ने एसपी को शोहरत और शाबासी बख्शी, तो उसकी कीमत भी वसूली। और, यह कीमत एसपी को अपनी जिंदगी देकर चुकानी पड़ी। मगर आपने तो आखरी बार भी यही कहा था एसपी कि - ‘जिंदगी तो अपनी रफ्तार से चलती रहती है।’ पर, जिंदगी तो थम गई। मगर खबरें अभी और भी हैं...! (लेखक राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

Thursday, June 23, 2011

गोपीनाथ की गड़बड़ और बीजेपी बदहाल


-निरंजन परिहार-
गोपीनाथ मुंडे के बारे में लोग अपना ज्ञान दुरुस्त कर लें। ज्ञान यह है कि वे कहीं नहीं जाएंगे। ना कांग्रेस में, ना राष्ट्रवादी कांग्रेस में और ना ही शिवसेना में। वे लोग, जो चीख चीख कर कह रहे हैं कि मुंडे बीजेपी छोड़ देंगे, वे सिर्फ मुंडे की हवा बना रहे हैं। जो लोग थोड़ी बहुत राजनीतिक समझ रखते हैं, वे यह अच्छी तरह से जानते हैं कि बीजेपी के अलावा उनके लिए कहीं कोई ठिकाना नहीं है। ज्यादा साफ साफ सुनना है तो सच यह है कि प्रमोद महाजन ने किसी भी दूसरी पार्टी में ऐसा कोई खेत नहीं खरीदा, और ना ही उसमें कोई फसल बोई कि उसे काटने मुंडे वहां पहुंच जाएं। राजनीति में रिश्तों की महिमा के मायाजाल का भी अपना एक अलग संसार है। इसलिए सिर्फ इतना समझ लीजिए कि मुंडे अगर प्रमोद महाजन के बहनोई नहीं होते, तो बीजेपी में वे आज क्या, कहां और किस हालत में होते, यह किसी को बताने की जरूरत नहीं है। लेकिन यह बताने की जरूरत है कि अपने को मजबूत साबित करने की कोशिशों में गोपीनाथ जो गड़बड़ कर रहे हैं, उससे बीजेपी कमजोर हो रही है, यह हकीकत है।
और, यह भी हकीकत है कि इस देश की राजनीति में कोई भी, कभी भी, कहीं भी आता जाता रहा है। लेकिन हुलिए और हालात, दोनों पर गौर करें, तो मुंडे आज तो क्या, कभी भी, कहीं नहीं जाएंगे। और, इसकी सबसे बड़ी वजह यही है कि बीजेपी जैसा पद और कद उनको और कहीं भी हासिल नहीं होगा। यह बात मुंडे को भी पता हैं। मगर उनको यह भी पता हैं कि रह रहकर अपने ऐसे तीखे तेवर दिखाकर ही वे बीजेपी में खुद को और ताकतवर साबित कर सकते हैं। मुंडे अपने तरीकों से यह ताकत इसीलिए दिखा रहे हैं। बीजेपी के केंद्रीय नेतृत्व ने 2008 में जब मधु चव्हाण को मुंबई बीजेपी के अध्यक्ष के पद पर बिठाया, तो मुंडे ने लगभग पार्टी छोड़ने का ऐलान सा कर दिया था। और, बीजेपी ने नतमस्तक होकर चव्हाण को तीन दिन बाद ही हटा दिया। और मुंडे की मर्जी के आदमी को मुंबई की बीजेपी सौंप दी। मूल्यों और सिद्धांतों की राजनीति करनेवाली बीजेपी का यह एक अलग चेहरा था। पर, क्या किया जाए, सवाल मुंडे को सहेजने का था। बाद में तो खैर, मुंडे को लोकसभा में उपनेता का पद देकर और भी ताकत बख्शी गई। पर, मुंडे तो मुंडे हैं। उनकी नितिन गड़करी से खटकी हुई है। इसीलिए अब एक बार फिर पुणे में शहर अध्यक्ष पद पर एक बने बनाए अध्यक्ष को हटाकर पिछली बार की तरह ही अपने आदमी को बिठाने की कवायद में फिर से पार्टी को झुकाने पर तुले हुए हैं। यह मान लिया कि महाराष्ट्र में एक जमाने में पद और कद दोनों में मुंडे के मुकाबले गड़करी बहुत छोटे थे। मुंडे उपमुख्यमंत्री थे, और गड़करी मंत्री। और मुंडे जब पूरे महाराष्ट्र के होने के साथ राष्ट्र के भी नेता बनने की कोशिश में थे, तब गड़करी महाराष्ट्र के सिर्फ एक हिस्से विदर्भ के भी पूरी तरह नेता नहीं थे। यह उस जमाने की कथा है जब प्रमोद महाजन के विराट आकाश के साये का संसार और विशाल हो रहा था। मगर मुंडे पता नहीं यह क्यों भूल गए हैं कि आज महाजन इस दुनिया में नहीं है, और गड़करी देश में बीजेपी के सबसे बड़े पद पर बिराजमान हैं।
प्रकाश जावड़ेकर ने दिल्ली में बैठकर बिल्कुल ठीक कहा, कि महाराष्ट्र में सब कुछ ठीक ठीक है। कोई संकट नही है। जावड़ेकर जब यह कह रहे थे, तो उनके चेहरे पर आश्वस्त भाव इसलिए भी साफ झलक रहा था, क्योंकि मुंडे की फितरत से वे कई सालों से अच्छी तरह वाकिफ हैं। मुंडे और उनकी राजनीति के सारे ही समीकरणों के राज अपन भी अच्छी तरह जानते हैं। इसलिए यह साफ कहा जा सकता है कि प्रमोद महाजन की वजह से बीजेपी के भीतर भले ही मुंडे अपने आप को बहुत महत्वपूर्ण साबित करने में सफल रहे हों, लेकिन महाराष्ट्र की दूसरी किसी भी पार्टी के लिए वे कोई बहुत उपयोगी नहीं है। चमचागिरी की कोशिश में मुंडे के चंगू उनको ओबीसी का बहुत बड़ा नेता बताते रहे हैं। मगर, मुंडे का मन खुद भी मानता है कि महाराष्ट्र के भीतर ही नहीं, सह्याद्री की पहाड़ियों के पार भी ओबीसी की नेतागिरी में छगन भुजबल उनसे बहुत बड़े हैं। महाराष्ट्र में उनके मुकाबले मुंडे की कोई हैसियत नहीं है। भुजबल देश भर में निर्विवाद रूप से ओबीसी के सबसे बड़े नेता हैं, यह वे बिहार जाकर 30 लाख लोगों को जुटाकर देश के अब तक के ज्ञात इतिहास की सबसे बड़ी रैली करके साबित भी कर चुके हैं। यह तो भला हो रिश्तेदारी का, कि महाजन के बहनोई होने की वजह से बीजेपी में मुंडे को एक मजबूत हैसियत हासिल हो गई। मगर, आज ना तो महाजन आज हमारे बीच है, और ना ही बेचारी बीजेपी इतनी ताकतवर, कि उसको इस कदर झिंझोड़ा जाए। इस सबके साथ यह भी खयाल में रखना चाहिए कि राजनीति में बाकी सारी बातों के अलावा धैर्य और प्रतीक्षा का भी बहुत बड़ा महात्म्य है। मुंडे को यह समझना चाहिए कि गड़करी कोई पूरी ऊम्र के लिए बीजेपी के अध्यक्ष नहीं बने हैं कि उनसे खुंदक निकालने की कोशिश में रह रहकर पार्टी को नीचा दिखाया जाए।
उद्धव ठाकरे से मुंडे के मिलने पर भाई लोगों ने खूब अंदाज लगाया कि वे शिवसेना में जा सकते हैं। अपनी बात के समर्थन में लोगों ने कई सारे तर्क भी गढ़ लिए। लेकिन दूसरे ही दिन मुंडे राष्ट्रवादी कांग्रेस के छगन भुजबल के घर पहुंच गए। और उससे अगले दिन महाराष्ट्र राष्ट्रवादी कांग्रेस के अध्यक्ष मधुकर राव पिचड़ मुंडे के घर चाय पीने गए, कईयों ने यह अंदाज लगाया कि राष्ट्रवादी कांग्रेस में उनके लिए जगह बनाई जा सकती है। उनके कांग्रेस में जाने की भी खबरों ने भी जन्म लिया। लेकिन ऐसा कुछ भी होनेवाला नहीं है। बीजेपी छोड़कर जाना मुंडे के लिए मुनासिब नहीं है। या यूं भी कहा जा सकता है ऐसा करना मुंडे के लिए मुसीबत से कम नही होगा। जब अपन यह दावा कर रहे हैं, तो जरा इसका गणित भी समझ लीजिए। मुंडे ने बीजेपी में बड़े नेता होते हुए भी बहुत छोटे छोटे मामलों में पार्टी को सार्वजनिक रूप से झुकाकर उन्होंने जिस तरह की अपनी छवि बनाई हैं, उसको देखकर कौन पार्टी उनको घास डालेगी ? जवाब निश्चित रूप से आपका भी ‘कोई नहीं’ ही होगा। मुंडे का यह गणित अब सभी जान गए हैं। और राजनीति में आपका गणित बाकी लोग जब समझने लग जाएं, तो वह गणित न होकर सिर्फ एक मजाक रह जाता है। मुंडे इसीलिए बाकी राजनीतिक पार्टियों के लिए मजाक बने हुए हैं। मजाक नहीं होते, तो उस दिन मीडिया के सवाल में मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण उलटकर हंसते हुए यह सवाल नहीं पूछते कि ‘मुंडे का क्या अब मुझसे मिलना ही बाकी रह गया है।’ इसीलिए अपना कहना है कि मुंडे कहीं नहीं जाएंगे। नाराजगी जताकर वे सिर्फ अपने बारे में हवा बना रहे हैं। खबरों में रहना उन्हें आता है और यह उनकी आदत में भी शामिल है। और आदत से मजबूर आदमी अदना होने के बावजूद औरों को उनकी औकात दिखाने की कोशिश में ऐसे काम अकसर किया करता है। गोपीनाथ यही गड़बड़ कर रहे हैं! मगर इससे बीजेपी की बदहाली हो रही है, यह चिंता किसको है?
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और मीडिया विशेषज्ञ हैं)

Friday, June 10, 2011

एक फिदा का दुनिया से विदा हो जाना



-निरंजन परिहार-

राज बब्बर के घर आप जाएंगे, तो मुंबई के जुहू में गुलमोहर रोड़ स्थित उनके बंगले ‘नेपथ्य’ के ड्रॉइंग रूम की दीवार पर एक बड़ी सी पेंटिंग देखने को मिलेगी। बरसों पहले की बात है, ‘नेपथ्य’ के मुहुर्त पर नादिरा बब्बर ने बहुत सारे लोगों को बुलाया था। लोग आए भी। कार्यक्रम पूरा हुआ। घर के सारे लोग सो गए। आधी रात को अचानक दरवाजे की घंटी बजी, और खोला, तो सामने जो आदमी खड़ा था, उसका नाम मकबूल फिदा हुसैन था। हाथ में एक बैग भी था। बोले – ‘दिन भर नहीं आ पाया, इसीलिए अब वक्त मिला तो आ गया’। अंदर आकर बातचीत करने के साथ हुसैन की नजरें कुछ तलाश रही थी। एक दीवार खाली दिखी तो, उस पर पेंटिंग बनानी शुरू कर दी। फिर बोले – नए घर के मौके पर आप लोगों को यह मेरी ओर से गिफ्ट। पता नहीं, यही सच है, या सितारों के बारे में फैलाई जाती रही कई तरह की कथाओं में से एक कहानी। लेकिन ना तो राज बब्बर और ना ही नादिरा बब्बर, दोनों में से किसी ने भी आज तक इस कथा के बारे कुछ भी कहा। लेकिन राज बब्बर के घर अपन अकसर जाते रहते हैं, इसलिए दिल पर हाथ रखकर कह सकते है कि हुसैन का वह तोहफा सालों बाद आज भी नेपथ्य में सम्मान के साथ मौजूद है। संबंधों के सम्मान का यह श्रेष्ठ उदाहरण कहा जा सकता है। रिश्तों की रपटीली राहों के राज को जानकर संबंधों का सम्मान करनेवाले हुसैन जिस पर भी फिदा हुए, उस पर पूरी तरह फिदा हुए। बॉलीवुड में माधुरी की मुस्कान, तबू के तेवर और अनुष्का के अंगों पर तो बहुत बाद में फिदा हुए, नादिरा बब्बर पर फिदा होने की यह कहानी 30 साल से भी ज्यादा पुरानी है।
पर, अपनी यह यह बात 2004 की है। मुंबई में फोर्ट इलाके के फाउंटेन के पास उनकी पंडोल आर्ट आर्ट गैलरी में तय वक्त पर अपन जब पहुंचे, तो पहले से ही वहां बैठे हाथ में ढाई फीट का लंबा ब्रश थामे हुसैन जल्दी से उठकर तेज कदमों से चलकर दरवाजे तक आए, और बोले - ‘तुम ही हो, जो इंटरव्यू की बात कर रहे थे।’ अपन ने हां कही। तो, ऊपर से नीचे तक तीन बार हैरत से देखा, और तीखी भाषा में सवाल दागा – ‘पेंटिंग के बारे में जानते हो।’ अपन सन्न। क्या बोलते। इसी बीच तत्काल दूसरा सवाल – ‘चाय पियोगे।’ सवाल सुनते ही अपने चेहरे का खुशी का रंग देखकर इस जवाब का भी इंतजार नहीं किया और बोले – ‘बैठो’। अपन सामने की कुर्सी पर बैठने लगे। तो बाहर इशारा करके बोले – ‘यहां नहीं, वहां’। अपन सीधे बाहर। और कार में बिठाकर कफ परेड़ की तरफ घर लेकर चल दिए। रास्ते भर देश दुनिया की बहुत सारी गरमा गरम तेवर की बातें करते रहे। गेट तक पहुचते पहुंचते बात पूरी हो गई। फिर भी घर ले गए। फिर अपने से मोबाइल नंबर मांगा, और खुद ने ही मोबाइल में फीड करते हुए बोले – ‘जब जरूरत होगी, बुलाउंगा, तो आओगे ना।’ अपन खुशी से हां बोले। फिर, हरी पत्ती के बहुत ही बेहतरीन टेस्ट वाली चाय पिलाई। और सच यह है कि अपन चाय के बेहद शौकीन है, बहुत अच्छी चाय बनाते भी हैं। लेकिन उससे पहले और उसके बाद वैसा चाय कभी नहीं पी, जो हुसैन साहब के घर पर पी। उसके बाद तो कई बार उनने खुद ने ही बुलाया। आखरी बार 2006 में जब वे भारत से जा रहे थे, तो बोले जा रहा हूं। पता नहीं, फिर लौटूंगा या नहीं। इसीलिए बुला लिया। यह उनके किसी को अपना बना लेने और सामनेवाले को अपने पर फिदा कर देने का अलग अंदाज था। जो भी मिलता और पसंद आ जाता, मकबूल फिदा उसी पर फिदा हो जाते। यही वजह है कि माधुरी दीक्षित से लेकर अपने जैसे अनेक उनकी सूची में शामिल लोगों को अब, जब वे याद आ रहे होंगे, तो सभी भर्राए दिल से मकबूल पर फिदा हो रहे होंगे।
लेकिन इसे एक विकट और विराट किस्म की त्रासदी कहा जा सकता है कि भारत में रहते हुए ही हुसैन ने भारत माता की नंगी पेंटिंग बनाई। घनघोर हिंदुत्व के दमकते दिनों में भी सरस्वती माता को अर्धनग्नावस्था में चित्रित किया और घर घर में पूजी जानेवाली दुर्गा माता को अपने ही वाहन शेर के साथ शर्मसार करनेवाली स्थिति में पेंट किया। उसी भारत देश में हुसैन के हस्ताक्षर लाखों में खरीदनेवाले भी हमेशा मौजूद रहे। लोग उनके चित्रों पर मोहित होते रहे, करोड़ों में खरीदते रहे। और जो लोग नहीं जानते, उनके लिए खबर यह है कि हुसैन भारत के ही नहीं, दुनिया के सबसे महंगे कलाकार थे, जिनकी कूंची से निकली लकीरें रुपयों की तो बात छोड़िए, कई करोड़ डॉलरों में दुनिया भर में बिकीं। बिना जूतों के पैदल चलने के शौक वाली जिंदगी में ब्लू जींस की जेकेट को पसंद करनेवाले हुसैन की पेंटिंग में घोड़े, खूबसूरत लड़कियां और काला रंग पहली चाहत थे। इसी चाहत ने उन्हें नाम भी दिया तो कभी कभीर हदनामी के दरवाजे पर भी खड़ा किया।
महाराष्ट्र के पंढ़रपुर में 1915 में 17 सितंबर को जन्मे हुसैन ने 1952 से जिंदगी के रंगों को कैनवास पर उतारना शुरू किया था। और यह सिलसिला उनकी मौत तक जारी रहा। अपने जीवन के अनेक आयामों में एक एक करके इकट्ठा हो गए बहुत सारे विवादों की वजह से उम्र के आखरी पड़ाव पर उन्होंने अपना देश छोड़कर भले ही कतर की नागरिकता ले ली। पर दिल तो उनका हिंदुस्तान में ही बसा करता था। यही वजह रही कि भारत के जिस आखरी इन्सान ने हुसैन के रंगों में आकार लिया, उसका नाम ममता बनर्जी है। माधुरी दीक्षित, तबू, अनुष्का और ऐसी ही कई ग्लैमरस बालाओं पर फिदा होने वाले हुसैन ममता बनर्जी पर भी मरने लगे। पश्चिम बंगाल में चुनाव जीतने के बाद ममता को एक नई शक्ति के रूप में उन्होंने कैनवास पर उतारा। हुसैन की यह ममता गजगामिनी शैली की है। जिसमें ममता को छरहरा व आकर्षक दिखाया गया है। सन 2006 तक वे भारत में रहे, और उसके बाद मन कुछ ज्यादा ही भर गया तो वे ब्रिटेन में बस गए। कतर वे वहीं से आए थे। और अब, वहां से भी सदा के लिए चले गए। तो, उर्दू के नामी शायर अकबर इलाहाबादी के शेर ‘हुए इस कदर मअज़्ज़ब, घर का मुंह नहीं देखा, कटी ऊम्र होटलों में, मरे हस्पताल जाकर’ को भी पूरी तरह सार्थक कर गए।
अब, जब मकबूल फिदा इस दुनिया से विदा हो गए तो धर्म के नाम पर रोटियां सेंकनेवालों के लिए उनके खिलाफ मुद्दों का मोल भी मर गया। लेकिन हजारों पेंटिंग पर किए गए उनके करोड़ों की कीमत के हस्ताक्षरों की कीमत कुछ और बढ़ गई है। उनकी पेंटिंग पहले से अब ज्यादा महंगी हो गई। क्योंकि विदा हो गए हुसैन पर फिदा होनेवालों का कुनबा बहत बड़ा है। एक कलाकार की कला का यही असली कमाल है।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और जाने माने पत्रकार है)

स्वामी को समेटने की सियासत समझिये साहब !


- निरंजन परिहार -
कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह तो बहुत पहले से कह ही रहे थे। लेकिन अब अंतत: कांग्रेस बाबा को बीजेपी का एजेंट साबित करने में भी कामयाब हो गई है। कांग्रेस और सरकार की निगाहें कई दिनों से रामदेव पर थीं। लेकिन आखिर वे बट्टे में आ ही गए। सरकार और कांग्रेस को पता था कि बाबा के साथ जो किया, वह करने के बाद क्या होना है। और वही हुआ। रामलीला मैदान से रामदेव को खदेड़ने और दिल्ली से बेदखल करने के तत्काल बाद लालकृष्ण आडवाणी ने सरकार के खिलाफ प्रेस कॉन्फ्रेंस की। नरेंद्र मोदी ने खुलकर क्रोध जताया। नितिन गड़करी ने निंदा की। विनय कटियार ने अपनी वार्ता में गुस्सा दिखाया। राम माधव ने रोष व्यक्त किया। रमेश पोखरियाल ने खेद जताया। वसुंधरा राजे ने इसे कानून के खिलाफ बताया। और संघ परिवार ने दुखद कहा। ऊपर से, दिल्बीली में भाजपा द्वारा अपने कार्यकर्ताओं को बाबा के समर्थकों को सहयोग के फरमान जारी करने के बाद स्वामी के समर्थन में सरकार के खिलाफ देश भर में अनशन का ऐलान भी कर दिया। मतलब, कांग्रेस अपने असली मकसद में कामयाब हो गई। वह जो चाहती थी, वह हो गया। इतने सारे बीजेपीवालों के अचानक एक साथ देश भर में बाबा के समर्थन में आकर खड़े हो जाने के बाद अब यह कोई नहीं मानेगा कि बाबा बीजेपी के एजेंट नहीं हैं।

इसीलिए, योग गुरू बाबा रामदेव के बारे में कांग्रेस के बयानबाज बाबा दिग्विजय जब यह बोल रहे थे, कि ‘रामदेव ठग है। उसने सबसे पहले अपने गुरू को ठगा। फिर जनता को ठगा, बाद में अनुयाइयों को ठगा। सरकार को ठगा। और अब पूरे देश को ठग रहा है’ तो वे पूरे होशोहवास में थे। किसके बारे में कितना, क्या, किस तरीके से कहना है, यह सब कुछ उन्हें बहुत अच्छी तरह पता था। दिग्विजय सिंह जो भी बोले, वह बहुत ही सोच समझ कर बोले। यह आप और हम सभी अच्छी तरह जानते हैं कि यह सब वे आज से नहीं बोल रहे। बहुत पहले से कहते आ रहे हैं। जो लोग राजनीति नहीं जानते, उनके लिए दिग्विजय का यह बयान भले ही जले पर मिर्ची छिड़कने जैसा था। लेकिन बाबा को दिल्ली से बेदखल करते वक्त सुबह - सुबह सबके सामने दिया गया दिग्विजय सिंह का यह बयान उसी राजनीति का हिस्सा है, जो कांग्रेस करती आ रही है, यह अब लोगों को समझ में आ जाना चाहिए।

बीजेपी के बाबा के साथ आ खड़े होने से देश और दुनिया के सामने यह तो साफ हो गया कि बाबा बीजेपी के एजेंट हैं। लेकिन इस सबके अलावा, दिग्विजय के बयान से एक बात और साफ होती है कि ना तो सरकार को और ना ही कांग्रेस को स्वामी रामदेव से किसी तरह का सीधा कोई डर नहीं है। देश की सीधी सादी जनता भले यह मानती हों कि सरकार स्वामी से डर गई, इसलिए उनके आंदोलन को उखाड़ दिया गया। लेकिन राजनीति की धाराओं और उसकी धड़कनों को समझनेवाले यह अच्छी तरह जानते हैं कि सरकारें कतई डरपोक नहीं होती। वे किसी से भी नहीं डरती। उल्टे, वे तो डराती हैं। यह ब्रह्मसत्य है कि सरकारें भले ही वे किसी की भी हों, बन जाने के बाद वे इतनी ताकतवर हो जाती हैं, कि अपने बनाने वालों से भी नही डरती। जनता से भी नहीं।

सरकार देश की जनता से अगर डरती होती तो, बाबा पर इतनी ‘बर्बर’ कारवाई नहीं करती। और डरे भी क्यों ? सरकार के पास देश से ना डरने की वजह भी है। कांग्रेस देश को यह दिखाने में सफल हो गई है कि एक आदमी जो बाबा के भेस में बीजेपी के एजेंट के रूप में देश को बरगला रहा था, उसके चेहरे से नकाब हट गया। बाबा की बल्लियां उखड़ीं, समर्थक खदेड़े गए, आधी रात में आंदोलन को आग लगाई गई और उन पर दंगा भड़काने का केस दर्ज कर दिया गया। तो कुछ लोग भले ही इसे एक आंदोलन को कुचलना कह रहे हों। लेकिन असल में यह एक राजनीतिक कोशिश थी, जिसमें सरकार और कांग्रेस दोनों कामयाब हो गए। राजनीति समझनेवाले यह अच्छी तरह समझते हैं कि बाबा अब कितना भी बवाल करते रहें, ना तो सरकार का कुछ बिगड़नेवाला है और ना ही कांग्रेस का कोई नुकसान होनेवाला। क्योंकि आम चुनाव में अभी पूरे तीन साल बाकी है। और हमारी व्यवस्था ने इस देश के आम आदमी में इतनी मर्दानगी बाकी नहीं रखी है कि वह तीन साल के लंबे समय तक किसी आंदोलन को जिंदा रख सके। और इस दौरान गलती कोई मर्द पैदा हो भी गया, तो सरकारें मजबूत मर्दों को भी हिजड़ा बनाने के सारे सामानों से लैस होती है स्वामी को समेटने के बाद अब तो यह यह सभी जान ही गए हैं।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं)

Tuesday, May 31, 2011

निधि की लूट में कोई दया नहीं की मारन ने


-निरंजन परिहार-
पहले ए राजा, फिर कनिमोजी। और अब कपड़ा मंत्री दयानिधि मारन भी अचानक लुटेरे के अवतार में। करोड़ों की कमाई के लिए करुणानिधि की कलाबाजियों के मोहरों की संख्या लगातार बढ़ती ही जा रही हैं। चौंकाने वाली बात यह है कि साफ सुथरी छवि का लबादा ओढ़कर मारन भी वह सब पहले से ही कर रहे थे, जो उनकी पार्टी के बाकी लोगों ने किया। इसलिए अब यह अंदाज लगाना गैरजरूरी लगने लगा है कि अगला नाम किसका आएगा। जब अपने नाम के बिल्कुल विपरीत दयानिधि ने भी देश की निधि को लूटने में कोई दया नहीं दिखाई, तो फिर अगला नाम तो कोई भी हो सकता है। करुणानिधि के लुटेरों ने गजब की लूट मचाई। आम आदमी की गाढ़ी कमाई को अपनी जेब में लगातार भरते रहने की भरपूर कोशिश करने वाले करुणानिधि के इन मंत्रियों को जहां, जैसा और जितना मौका मिला, सभी ने जमकर लूटा। या यूं भी कह लीजिए कि देश की सरकार में करुणानिधि ने हिस्सेदारी लेकर इन लोगों को मंत्री भी इसीलिए बनवाया, ताकि वे दिल्ली को लूटकर उनको कमाई करा सकें।
मारन भी लुटेरों की जमात में शामिल हैं। इसीलिए वे अब सीबीआई के निशाने पर हैं। मारन, उनका सन डायरेक्ट टीवी, एयरसेल और मेक्सस शक की सुंई इन सभी पर है। हो सकता है आनेवाले दिनों में इन सभी पर शिकंजा सकता दिखे। बहरहाल, मारन की लूट की यह पोल उस वक्त खुली जब भारत सरकार के कंट्रोलर एंड ऑडिटर जनरल यानी सीएजी की रिपोर्ट सामने आई। इस रिपोर्ट के एक खुलासे के मुताबिक टेलीकॉम सर्किल आवंटन की एवज में तत्कालीन दूरसंचार मंत्री दयानिधि मारन ने 2005 में एक ही डील में 830 करोड़ की भारी भरकम कमाई की। दयानिधि और उनके भाई कलानिधि मारन की कंपनी को मलेशिया की एक मामूली सी दूरसंचार कंपनी मेक्सस ने निवेश के रूप में 830 करोड़ रुपए दिए। सीबीआई ने जिस तर्ज पर यह साबित किया कि डीबी रियलिटी के मुखिया और शरद पवार के खासमखास के रूप में सामने आए शाहिद बलवा ने कलईनार टीवी को 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन डील में 200 करोड़ रुपए की कमाई करवाई। बिल्कुल उसी तरह मारन बंधुओं की कंपनी ‘सन डाटरेक्ट टीवी’ को भी करीब 830 करोड़ रुपए निवेश के रूप में मेक्सस से मिले। यही नहीं, ‘सन डाटरेक्ट टीवी’ में मारन की 80 फीसदी हिस्सेदारी को जस की तस रखने के लिए 12.6 करोड़ रुपए के 74 फीसदी शेयर भी और जारी किए गए। टेलीकॉम सेक्टर को बेच बेच कर देश का खजाना लूटकर अपनी जेब में भरने का यह कांड, एयरसेल को टेलीकॉम सर्किल आवंटन प्रक्रिया से ही शुरू हुआ। साफ कहा जा सकता है कि मारन ने इतनी बड़ी रकम वसूलकर मेहरबानी नहीं की होती, तो एयरसेल आज देश की सातवीं सबसे बड़ी टेलीकॉम कंपनी नहीं होती। मार्च 2006 में मलेशिया निवासी टी. आनंद कृष्णन की कंपनी मेक्सस ने एयरसेल में 74 फीसदी हिस्सेदारी खरीदी। एयरसेल ने इस पूरी डील के लिए सिर्फ 1399 करोड़ रुपए चुकाए। इसके बाद एक छोटी सी इलाकाई कंपनी से एयरसेल देशव्यापी कंपनी बन गई। पूरे मामले पर ध्यान तब गया जब भारत सरकार के कंट्रोलर एंड ऑडिटर जनरल यानी सीएजी की रिपोर्ट में खुलासा हुआ कि तत्कालीन दूरसंचार मंत्री दयानिधि मारन ने 22 हजार करोड़ रुपए कीमत के टेलीकॉम सर्किल को एयरसेल को आवंटित कर दिया था। जबकि सरकार को इसके एवज में सिर्फ 1399 करोड़ रुपए ही मिले। यही मामला अब सीबीआई के निशाने पर है।
देश को अब समझ में आ गया है कि आखिर क्यों तेज तर्रार दयानिधि मारन यूपीए – 2 में फिर दूरसंचार मंत्री ही बनना चाहते थे। और यह भी समझ में आ गया है कि करुणानिधि ने आखिर क्यों अपने परिवार के आज्ञाकारी पिल्ले ए राजा को यह मलाईदार मंत्री दिलवाया। दयानिधि रिश्ते में करुणानिधि के नाती हैं। वे जन्म से पहले से ही उनको जानते हैं। और यह भी जानते हैं कि मारन अपनी कमाई पर किसी भी और को हाथ धरने नहीं देते। साथ ही जहां कमाई हो, वहीं जमे रहने की जुगत भी उनको आती है। करुणानिधि ने दयानिधि के दूरसंचार मंत्री रहते हुए यह जान लिया था कि वे किस तरीके से, किसके जरिए, कितनी कमाई कर रहे हैं। इसीलिए अगली बार 2009 में जब वापस यूपीए की सरकार बनी तो उन्होंने मंत्रालय बदलकर दूरसंचार के दरवाजे पर अपने आदमी ए राजा को बिठा दिया। राजा ने बाकायदा उसी तरीके से पौने दो लाख करोड़ का घोटाला किया। जिस तरह से दयानिधि मारन ने काम शुरू किया था। मोड़स ऑपरेंडी बिल्कुल वैसी ही अपनाई गई। शाहिद बालवा की कंपनी ने भी उसी तरह करुणानिधि के बेटी कनिमोजी के कलाइनार टीवी में 200 करोड़ रुपए का निवेश किया, जैसे एयरसेल ने सन टीवी में किया था।
राजा की तो खैर, कोई छवि ही नहीं थी। घोटाले से पहले देश में कितने लोग राजा को जानते थे। और कनिमोजी अभी राजनीति में अपनी पहचान बनाने की कोशिश में ही थी। लेकिन इनके मुकाबले मारन काफी मजबूत थे। मगर, वह भी चोर निकले। इस सबसे अलग एक बड़ा सवाल यह है कि किसी देश की सरकार का मुखिया इतना बेवकूफ तो नहीं होता कि उसे यह पता ही नहीं हो कि उसकी नाक के नीचे क्या हो रहा है। और अगर ऐसा नहीं है, तो फिर मनमोहन सिंह इतने मम्मू क्यों बने हुए हैं। यह बहुत बड़ा सवाल है। है कि नही ?
(लेखक जाने माने राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं)

Sunday, May 29, 2011

बाल ठाकरे की बात को गंभीरता से मत लेना भाई


-निरंजन परिहार-
एक बाल ठाकरे हैं। शिवसेना के मुखिया। एक सचिन तेंडुलकर है। क्रिकेट के खिलाड़ी। दोनों ही मराठी। और दोनों लोगों के दिलों पर राज करनेवाले। लोगों को लगता है कि इसीलिए, ठाकरे अकसर तेंडुलकर की तारीफ में कसीदे कहते रहे हैं। लेकिन अबकी उन्होंने सचिन पर जोरदार वार किया है। इस बार ठाकरे ने सचिन के बारे में जो कुछ कहा है, उससे जो तस्वीर बनती है, उसमें सचिन सिर्फ और सिर्फ पैसाखोर, लालची और माल कमानेवाले के अलावा कुछ नहीं लगते।
सचिन तेंडुलकर सिर्फ पैसे के लिए खेलते हैं। ठाकरे ने यह हाल ही में एक बातचीत में कहा। हालांकि यह बिल्कुल सच भी है। सचिन को तो क्या किसी भी देश के, किसी भी खिलाड़ी को, किसी भी मैच में खेलने के बदले पैसे नहीं मिले, तो वह खेलेगा, इसकी संभावना कतई नहीं है। यानी कि बिना पैसे कोई नहीं खेलता। यह सभी जानते हैं। आप भी जानते हैं। हम भी। और ठाकरे भी जानते हैं। लेकिन ठाकरे राजनेता हैं। और नेता अकसर सच नहीं बोला करते। फिर यह तो बहुत कड़वा सच है। क्या जरूरत थी ठाकरे को ऐसा बोलने की। वे अगर ऐसा नहीं भी बोलते, तो भी चल सकता था। लेकिन वे बोले। खुलकर बोले। और पूरी ताकत से यहां तक बोले कि सचिन के लिए तो सिर्फ पैसा ही परमेश्वर है। इतना ही नहीं, जब उनसे यह कहा गया कि सचिन जैसे अच्छे खिलाड़ी के बारे में आप ऐसा नहीं कह सकते। तो अपने परिचित अंदाज में व्यंग्य करते हुए ठाकरे बोले, कि सचिन पर इतना भरोसा करने की जरूरत नहीं है। किसी दिन आजमाना हो तो उनसे किसी भले काम के लिए सहयोग मांग कर देख लीजिए। उसके पास इतना सारा पैसा होने के बावजूद वह आपको अपने घर के किसी कोने में पड़ा बैट उठाकर दे देगा। और कहेगा कि जाओ इसको नीलाम कर लो, अच्छा खासा पैसा आ जाएगा। उससे आप अपना काम चला लेना। ऐसा कहने के बाद ठाकरे के तिरछे तेवर के साथ पैदा हुई मतवाली मुस्कुराहट कुछ और भी बहुत कुछ कह रही थी। सचिन ने पिछले दिनों कहीं कहा था कि मुंबई तो पूरे देश की है। बाल ठाकरे उसी से बिदक गए। और यह भी बोले, यह हमारे लिए सहन करने की सीमा के बाहर की बात है। चाहे वह कितना भी बड़ा आदमी क्यों ना हो। मुंबई के लिए जब हमने लड़ाई शुरू की थी, तब सचिन पैदा भी नहीं हुआ था।
जो लोग सचिन को बहुत पसंद करते हैं, वे ठाकरे के ऐसे व्यवहार से लोग बहुत चौंक गए हैं। जिसको अपना बच्चा कहते हुए बाल ठाकरे थकते नहीं थे। वे अब उसी सचिन को लालची और लोभी कहेंगे, लोग सोच भी नहीं सकते थे। पर अब सोच रहे हैं। और जब सोच रहे हैं, तो कई पुरानी बातें भी लोगों को याद आने लगी हैं। हालांकि आजकल लोग ठाकरे की बातों को बहुत गंभीरता से कम ही लेते हैं। क्योंकि लोग मानते हैं कि बाल ठाकरे बूढ़े हो गए हैं। लेकिन ठाकरे की ठोकर की नोक के निशाने समझने वाले यह अच्छी तरह जानते हैं कि वे जवान थे, तब भी और अब भी, उनके मुद्दे मतलब के मायाजाल के मुताबिक बदलते रहते हैं। और ऐसे लोग हर बार उनके निशाने पर रहे हैं, जिनका बहुत व्यापक प्रभाव है। वे कब किसके बारे में क्या कह दें, कोई नहीं जानता। लेकिन इतना हर कोई जानता है कि वे निहायत निजी मतलब की सुविधा के मुताबिक अपनी माया रचते हैं। और किसी को बख्शते हैं तो बिल्कुल बॉड़ीगार्ड़ की तरह। और उसी बख्से हुए की जब खाल खींचते हैं, तो बहुत ही खतरनाक भी हो जाते हैं। यह उनका इतिहास रहा है। इसी वजह से उनके बारे में कोई भी, तय कुछ नहीं कह सकता।
कई सालों तक लगातार कई तरह की अलग अलग किस्म की गजब गालियां देने के बाद इक दिन अचानक छगन भुजबल को वे सपरिवार अपने घर पर बुलाकर साथ में बैठकर सम्मान के साथ खाना खाते हैं। और अगले ही दिन से फिर भुजबल को बहुत बुरा कह सकते हैं। शरद पवार को खुलेआम कई तरह की बदनाम उपमाएं देने के बाद कभी अतानक वे उनकी तारीफ करते भी देखे जा सकते हैं। प्रतिभा पाटिल के महाराष्ट्रीयन होने के नाम पर राष्ट्रपति चुनाव में अपनी 25 साल की सहयोगी पार्टी भाजपा के उम्मीदवार भैंरोंसिंह शेखावत को हराने के लिए खुलेआम धोखा कर सकते हैं। और बाद में उन्हीं महाराष्ट्रीयन प्रतिभा पाटिल की जोरदार आलोचना भी कर सकते हैं। ऐसे उदाहरणों को लिखने जाएं, तो ठाकरे पर अलग से एक किताब लिखी जा सकती है। लेकिन उनकी यही फितरत है। जिसे दुनिया कई सालों से करीब से देखती रही है। क्या किया जाए...!
दरअसल, सचिन पर वार करने के मामले में ठाकरे की तकलीफ कुछ और है। मुंबई में अगले साल महानगर पालिका के चुनाव होने हैं। फिलहाल उनकी पार्टी के हाथ में मुंबई महानगर पालिका की कमान है। कहीं कांग्रेस जोर मारकर उसे भी हथिया ले गई, तो शिवसेना के हाथ में सिर्फ तंबूरा बचेगा। अगले पांच साल तक तंबूरा बजाते रहने के डर से ठाकरे अपने तेवर तेज कर रहे हैं। अपना मानना है कि सचिन उसी की भेंट चढ़ गए। आप भी यही मानते होंगे ! क्योंकि वे बाल ठाकरे हैं, शिवसेना के मुखिया। और वह सचिन तेंडुलकर है, क्रिकेट खिलाड़ी। दोनों मराठी। दोनों दिलों पर राज करनेवाले। लेकिन अब समझ में आ गया ना कि दोनों अलग अलग है। बहुत अलग अलग। राजनीति में खुद को खबरों में बनाए रखने की जुगत इतना अलगाव पैदा कर ही देती है। करती हैं कि नहीं ?
(लेखक जाने माने पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)

Saturday, May 28, 2011

अमरसिंह को औकात दिखानेवाला पत्रकार


-निरंजन परिहार-

प्रभु चावला, वीर संघवी, बरखा दत्त और ऐसे ही कुछ और दलाल दोषित हो चुके दोहरे चेहरों की वजह से मीडिया की छवि भले मलीन हुई हो। लेकिन इस घनघोर और घटाटोप परिदृश्य में अंबिकानंद सहाय नाम का एक आदमी ऐसा भी निकला, जो मलिन होते मीडिया की भीड़ में हम सबके बीच रहते हुए भी बहुत अलग और बाकियों से आज कई गुना ज्यादा ऊंचा खड़ा दिखाई दे रहा है। सहाय साहब को मलिन होते मीडिया में संजीवनी के स्वरूप में देखा जा सकता है।
प्रभु चावला मीडिया में अपने आपको बहुत तुर्रमखां के रूप में पेश करते नहीं थकते थे। लेकिन रसूखदार, रंगीन और रसीले अमरसिंह के सामने वे गें-गैं, फैं-फैं करते, लाचार, बेबस और दीन-हीन स्वरूप में करीब - करीब पूंछ हिलाते हुए नजर आते हैं। अमरसिंह धमकाते हैं। और प्रभु चावला अमरसिंह से करबद्ध स्वरूप में दंडवत होकर माफ करने की प्रार्थना करते नजर आते हैं। वही अमरसिंह अपने इन्हीं टेप में सहारा समय के तत्कालीन मुखिया अंबिकानंद सहाय और सुधीर कुमार श्रीवास्तव के नाम पर खुद को बेबस और लाचार महसूस करते नजर आते हैं। वह भी उन दिनों जब अमरसिंह की सहारा परिवार में तूती बोलती थी। हर सुबह मीडिया के किसी आदमी के दलाल हो जाने की खबरों के माहौल बीच यह एक बेहद अच्छी और सुकून भरी खबर है। यह साफ लगता है कि माहौल भले ही ऐसा बन गया हो कि मीडिया सिर्फ दलालों की मंड़ी बन कर रह गया है। लेकिन अंबिकानंद सहाय के रूप में दूर कहीं कोई एक मशाल अब भी जल रही है, जिसे मीडिया में मर्दानगी की बाकी बची मिसाल के तौर पर पेश किया जा सकता है।
अमरसिंह के टेप से टपकती बातों और नीरा राड़िया के नजरानों के राज खुलने के बाद कइयों की भरपूर मट्टी पलीद हुई है। प्रभु चावला, वीर संघवी, बरखा दत्त तो कहीं के नहीं रहे, और ऐसे ही कुछ और नाम भी इसके सबसे बड़े सबूत हैं। इन टेप के सार्वजनिक हो जाने के बाद अमरसिंह और राड़िया ने मीड़िया की इन मरी हुई ‘महान’ आत्माओं को नंगा करके सबके सामने खड़ा होने को मजबूर कर दिया है। लेकिन कोई जब औरों को नंगा करता है, तो उसके अपने शरीर पर भी कपड़े कहां बचे रहते हैं ! इसीलिए प्रभु चावला को गिड़गिड़ाने पर मजबूर करनेवाले और रजत शर्मा को अपना बुलडॉग कहनेवाले अमरसिंह सहारा समय के तत्कालीन मुखिया अंबिकानंद सहाय और सुधीर कुमार श्रीवास्तव के बारे में बात करते हुए खुद लाचारी और बेबसी के साथ हांफते हुए नजर आते हैं। अंबिकानंद सहाय की पत्रकारीय क्षमताओं और सुधीर कुमार श्रीवास्तव की प्रबंधकीय ताकत का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि सहारा समय के ये दोनों कर्ताधर्ता अमरसिंह के सामने बिल्कुल नहीं झुके। वह भी ऐसे में जब अमरसिंह सहारा इंडिया परिवार के डायरेक्टर हुआ करते थे।
आज की तारीख में तो अंबिकानंद सहाय संभवतया एकमात्र ऐसे पत्रकार हैं, जिनके बारे में बात करते हुए अमर सिंह अपने ही टेप में मान रहे हैं कि ‘सहाय साहब’ को मैनेज नहीं किया जा सकता। पूरी बातचीत में यह संकेत साफ है कि सहारा समय के संचालन और खबरों के सहित अपने कामकाज के मामले में अंबिकानंद सहाय अपनी कंपनी के डायरेक्टर अमर सिंह को किसी भी तरह के हस्तक्षेप की कोई इजाजत नहीं दे रहे थे। अंबिकानंद सहाय ने कभी भी अमरसिंह को कतई नहीं गांठा। अमरसिंह सहारा मीडिया में अपनी एक ना चल पाने की वजह से कितने परेशान थे, इसका अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि सबके सामने सहाय साहब कहनेवाले अमरसिंह शिकायती लहजे में अभिजीत सरकार के साथ बातचीत में झुझलाहट में अंबिका सहाय कहकर अपनी भड़ास निकालते नजर आते हैं। जबकि सभी जानते हैं कि सहारा इंडिया परिवार के मुखिया सहाराश्री सुब्रता रॉय सहारा तक अंबिकानंद सहाय को सम्मान के साथ अकेले में भी सहाय साहब कहकर बुलाते हैं।
बाद में तो खैर, यह विवाद बहुत आगे बढ़ गया। अमरसिंह खुद इस टेप में कह रहे हैं कि अगर हमारी इतनी भी नहीं चलती है तो, मैंने तो चिट्ठी भेज दी है और अब मैं रहूंगा भी नहीं। इस पूरे वाकये के अपन चश्मदीद हैं। अपन अच्छी तरह जानते है कि, सहाय साहब ने सहारा से अचानक अपने आपको इसलिए अलग कर लिया, क्योंकि वे नहीं चाहते थे कि सहाराश्री और अमरसिंह के बीच संबंधों में खराबी की वजह उनको माना जाएं। वैसे संबंधों के समीकरण का भी अपनी अलग संसार हुआ करता है। सहारा मीडिया के मुखिया से हटने के बाद अंबिकानंद सहाय आज भी सहाराश्री के बहुत अंतरंग लोगों में से हैं। और अमरसिंह की आज सहारा में ही नहीं पूरे देश में क्या औकात हैं, यह पूरी दुनिया को पता है।
सहाय साहब, आपको हजारों हजार सलाम। इसलिए कि आप दलालों के सामने कतई झुके नहीं। लेकिन मीडिया की मंडी में अंबिकानंद सहाय जैसे और कितने लोग हैं, उनको भी ढूंढ़ – ढूंढकर सामने लाने की जरूरत है। ताकि यह साबित किया जा सके कि मीडिया में अब भी मजबूत लोगों की एक पूरी पीढ़ी मौजूद है। वरना प्रभु चावला, वीर संघवी, बरखा दत्त और ऐसे ही कुछ और दलाल साबित हो चुके लोगों ने तो मीडिया की इज्जत का दिवाला निकाल ही दिया है। बात गलत तो नही ?
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं)

पेश है सहाराश्री सुब्रत राय के करीबी रिश्तेदार अभिजीत सरकार से फोन पर हुई अमरसिंह की शिकायती बातचीत के अंश.....


अभिजीत---हलो..
अमर सिंह—हां अभिजीत..
अभिजीत—जी जी जी सर, सर...
अमर सिंह—वो असल में ...वो दूसरे लाइन पर कोई आ गया था। (ये सब कहते हुए अमर सिंह जोर जोर से हांफ रहे हैं)
अभिजीत—जी सर जी सर
अमर सिंह---हां क्या पूछ रहे थे तुम
अभिजीत—मैं बोल रहा था, कोई प्रॉब्लम हो गया था क्या शैलेन्द्र वगैरह के साथ
अमर सिंह—नहीं शैलेन्द्र वगैरह से ज्यादा प्रॉब्लम अंबिका (नंद) सहाय के साथ है और सुधीर श्रीवास्तव के साथ है।
अभिजीत—क्या हुआ है सर
अमर सिंह--- प्रोब्लम ही प्रोब्लम है। बात ये है कि कोई ......नहीं है। मने कोई कुछ भी करना चाहे करे, उसमें हमें कोई आपत्ति नहीं है। लेकिन, अगर दादा ने बोला है तो ये लोग कुछ भी करें बता दें। हमारी जानकारी में रहे।
अभिजीत--- डू यू वॉण्ट मी टू इनिसिएट समथिंग।
अमर सिंह—नहीं नहीं कुछ नहीं। मैंने तो चिट्ठी भेज दी कि मैं रहूंगा नहीं इसमें और मैं रहने वाला भी नहीं हूं। इनिसिएशन क्या करना है।
अभिजीत—नहीं, फिर उनलोग को बोलें जा के कि आपसे मिलें और क्या।
अमर सिंह--- नहीं नहीं मुझे जरूरत नहीं है। हलो।
अभिजीत—जी सर।
अमर सिंह—मेरा काम तो चल जाएगा।
अभिजीत—नहीं, आपका तो चल ही जाएगा सर। उनलोगों को तो मिलना चाहिए न। दे शुड पे रेस्पेक्ट टू यू न सर।
अमर सिंह—नहीं नहीं, वो नहीं करेंगे। अंबिका (नंद) सहाय वगैरह नहीं करेंगे। उनकी ज्यादा जरूरत है परिवार (सहारा परिवार) को।

Friday, May 27, 2011

मगर कांग्रेस के आंखों की पट्टी खुले तब न... !


-निरंजन परिहार-
ना तो अपनी लिखी इन बातों को नरेंद्र मोदी की रणनीति का महिमामंडन माना जाए। और ना ही इसे पढ़कर किसी को अपने कांग्रेसी होने पर शक करने की जरूरत है। लिखने के पहले अपन यह एफीडेविट इसलिए दे रहे हैं क्योंकि सच लिखने के लिए बहुत ताकत की जरूरत होती है। और उसको स्वीकारने के लिए उससे भी ज्यादा ताकत चाहिए। अपन सच लिख रहे हैं, यह अपन जानते हैं। लेकिन भाई लोगों में सच को स्वीकारने की ताकत बहुत कम है, यह भी अपन जानते हैं। यह एफीडेविट इसीलिए। यह तो हुई अपनी सफाई। और, अब शुरू करते हैं, गुजरात के गौरव का इमोशनल पासा फैंककर अपनी राजनीति चमकानेवाले गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की ताजा कोशिशों के कमाल का सच।
सच यह है कि नरेंद्र मोदी ने लंबे समय तक सत्ता में बने रहने के लिए कांग्रेस की वास्तविक राह पकड़ ली है। जी हां, कांग्रेस की राज करते रहने की परंपरागत राह। मोदी कांग्रेस के जातिगत समीकरण साधने की इस परंपरागत राह से ही कांग्रेस को मात देने की मजबूत कोशिश में हैं। और इसे कुछ खरे खरे शब्दों में कहा जाए तो, अगर कांग्रेस नहीं सुधरी तो मुख्यमंत्री मोदी कांग्रेस की राजनीति की असली राह पर चलकर ही गुजरात में कांग्रेस के अंत की तैयारी का तानाबाना बुनने में कामयाब हो जाएंगे। दरअसल, मोदी ने तीन बार मुख्मंत्री बनने के बाद अगली बार भी गुजरात में बीजेपी की सत्ता बनाए रखने के लिए वह काम शुरू किया है, जो एक जमाने में कांग्रेस अपने लिए देश भर में समान रूप से किया करती थी। गुजरात में कांग्रेस के माधवसिंह सोलंकी क्षत्रिय, हरिजन, आदिवासी और मुसलमान, (केएचएएम) यानी ‘खाम’ को कब्जे में करके बहुत पहले एक बार गुजरात में रिकॉर्ड 148 सीटें जीतकर कांग्रेस को सत्ता में लाए थे। सोलंकी से पहले और उनके बाद इतने भारी बहुमत से गुजरात में कोई भी सत्ता में नहीं आ सका। अब यही फार्मुला मोदी ने अपना लिया है। मुख्यमंत्री मोदी की तैयारी माधवसिंह सोलंकी से भी ज्यादा 151 सीटों पर जीतने की है। इस फार्मूले से पहले मोदी ने यह अच्छी तरह से समझ लिया है कि गुजरात के गौरव का एक जो इमोशनल और सहज पासा उनके हाथ में है, इसी को लेकर गरीब, पिछड़े और मुसलमानों जैसे कांग्रेस के परंपरागत वोट बैंक में आसानी से सैंध लगाई जा सकती है। इसी रणनीति के तहत मोदी ने मुसलमान, गरीब और पिछड़े वर्ग को तो लुभाने लुभाने की तैयारी शुरू की ही है। राजपूतों को भी जोड़ने की जुगत शुरू कर दी है।
गुजरात के विभिन्न सरकारी बोर्ड, कॉरपोरेशन और संस्थाओं में हाल ही में की गई नियुक्तियों से यह साफ हो गया है कि गुजरात में सत्ता पर कब्जा करने की कोशिशों में कांग्रेस के मुकाबले मोदी कई कदम आगे चल रहे हैं। और कांग्रेस का सबसे दुखद, दाऱूण और विकट संकट यह है कि मोदी के जिस कदम को जिस तरीके से कांग्रेस गलत बताने की कोशिश करती है, वह हर पासा उल्टा ही पड़ता जा रहा है। सबूत के तौर पर, हाल ही में गुजरात में सरकारी कृषि मेलों में कुछ जगहों पर कांग्रेस ने हंगामा करके जनता का हितैषी बनने की जो कोशिश की, वह बहुत हल्की और सतही साबित हुई और हर बार उल्टी भी पड़ गई। इसके ठीक विपरीत बीजेपी गुजरात के किसान को यह समझाने में सफल हो गई कि किस तरह से किसानों के विकास के काम में कांग्रेस अड़ंगे लगा रही है। किसानों के कल्याण के लिए कृषि मेले लगाने के बाद मोदी पूरे गुजरात में गरीब मेले लगाकर गरीब वर्ग को अपनी ओर लुभाने की तैयारी में हैं।
मोदी ने एक और जो बहुत बड़ा राजनीतिक पासा फैंका है, वह है राजपूत वर्ग में अपना आधार बहुत करने का। राजपूतों में मोदी का साख बहुत मजबूत है। फिर भी उन्होंने हाल ही में राजपूत वर्ग को ताकत बख्श कर उनको राजनीतिक रूप से मजबूत करने की कुछ कोशिशें की हैं। वे इसमें सफल भी रहे हैं। मोदी गुजरात के राजपूतों को यह समझाने में कामयाब हुए हैं कि बीजेपी में थे, तो शंकरसिंह वाघेला जैसे कद्दावर राजपूत नेता बहुत ताकतवर नेता थे, लेकिन कांग्रेस ने वाघेला को अपने फायदे के लिए बीजेपी के विरोध में उपयोग करने के बाद किस तरह से करीब – करीब ठिकाने सा लगा दिया है। मोदी जानते हैं कि इस ताकतवर कौम के मन को, उसके प्रभाव को और उसकी ताकत को जानते हैं। इसीलिए वे यह भी अच्छी तरह जानते हैं कि राजपूतों को सम्मान देकर ही अपने साथ बनाए रखा जा सकता है। यही वजह है कि प्रदीप सिंह जाड़ेजा को युवा क्षत्रिय नेता के रूप में आगे लाया जा रहा है तो भूपेंन्द्र सिंह चूड़ासमा को राज्य योजना आयोग के उपाध्यक्ष पद पर बिठाकर मोदी ने साफ संकेत दिए हैं कि राजपूतों को सरकार और पार्टी में यथा सम्मान जगह दी जाएगी। लेकिन राजपूतों को अधिक सम्मान दिए जाने से कमजोर वर्ग के खिसक जाने के खतरे से भी मोदी बहुत अच्छी तरह वाकिफ हैं। इसीलिए गरीब मेले भी साथ के साथ शुरू कर रहे हैं।
पिछले स्थानीय निकाय और पंचायत चुनावों में अल्प संख्यकों को पांच सौ से भी ज्यादा सीटें देकर मोदी उनको अपने साथ जोड़ने की कोशिश में कामयाब रहे हैं। इन चुनावों में बीजेपी के टिकट पर बहुत बड़ी संख्या में मुसलमान जीतकर आए तो एक यह बात भी साफ हो गई है कि गुजरात के गांव के मुसलमान को मोदी से कोई परहेज नहीं है। और अब मोदी गुजरात में वक्फ बोर्ड और हज कमेटी को फिर से सक्रिय करके उसमें भी कई लोगों की नियुक्ति करके मुसलमानों को यह समझाने में कामयाब हो रहे हैं कि जब जब गुजरात का जिक्र आता है तो हर बार सिर्फ दंगों की बात करके कांग्रेस दुनिया भर में पूरे गुजरात को कैसे बदनाम कर रही है। मोदी अल्प संख्यकों में यह सवाल खड़ा करने और उस पर चिंतन शुरू कराने में भी कामयाब रहे हैं कि कांग्रेस मुसलमानों को आखिर अपनी बपौती क्यों समझती है। किसी को कुछ भी लगे और गुजरात कांग्रेस के नेता दिल्ली जाकर अपनी स्थिति अच्छी दिखाने की कोशिश में 10 जनपथ और 24 अकबर रोड़ को कुछ भी समझाने की कोशिश करे। लेकिन सच कुछ और है। अपनी तकलीफ यह है कि गुजरात कांग्रेस के नेता यह अच्छी तरह जानते हैं कि गुजरात के ग्रामीण इलाकों का मुसलमान मोदी से लगातार प्रभावित होता जा रहा है। फिर भी दिल्ली को वे उल्टी पट्टी पढ़ाते हैं। अपना मानना है कि दिल्ली जाकर गुजरात में कांग्रेस को मजबूत बताने की कोशिश में यहां के नेता पार्टी का कबाड़ा कर रहे हैं। यह हालात गुजरात में कांग्रेस के लिए बहुत बड़ा खतरा है। जिसको गुजरात कांग्रेस के नेता समझ रहे हैं, फिर भी पता नहीं क्यों दिल्ली जाकर झूठ बोलते हैं। अपनी तकलीफ यह है कि अंदरूनी कलह, आपसी मतभेद और खेमेबाजी से नहीं उबर पा रही गुजरात कांग्रेस को तत्काल सावधान हो जाना चाहिए। वरना अपने को तो साफ दिख रहा है कि लगातार मजबूत होते मोदी अगले साल एक बार फिर गुजरात को अपने कब्जे में कर सकते हैं। आप भी यही मानते होंगे। मगर कांग्रेस अपनी आंखों की पट्टी खोले तब न...!
(लेखक जाने माने पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)