Sunday, December 4, 2011

जिंदगी की असलियत के आदमी थे देव आनंद



-निरंजन परिहार-
यूं तो पूरी जिंदगी खबरें उनको और वे खबरों को बुनते रहे। दोनों एक दूसरे में से बहुत अच्छे को चुनते रहे। फिर, इसी चुने हुए में से अपनी जिंदगी का ताना बाना बुनते रहे। और यही सब करते करते दुनिया को वे खुद के महत्वपूर्ण होने का अहसास भी कराते रहे। देव आनंद हमेशा बहुत महत्वपूर्ण बने रहे। वैसे वे महत्वहीन तो कभी नहीं थे। लेकिन मौत ने उनको एक बार फिर बहुत महत्वपूर्ण बना दिया है। वे जिंदगी भर, जिंदगी के सामने, जिंदगी से भी बड़े सवाल खड़े करते रहे। और जीते जीते तो कर ही रहे थे, जाते जाते भी जिंदगी को यह सवाल दे गए कि कि आखिर 88 साल की ऊम्र तक जीवन के आखरी पड़ाव पर भी कोई इंसान इतना सक्रिय कैसे रह सकता है।
सवाल सचमुच बहुत बड़ा है। मगर जिंदगी उससे भी बड़ी है। जो लोग भरपूर जवानी के जोश में भी जिंदगी की सच्चाइयों के सामने लड़खड़ाकर चूर हो जाते हैं, उनको देव आनंद के इतनी ऊम्र में भी सक्रिय रहने और काम करते रहकर जिंदगी को जीतने की उनकी ललक के कारण जानने की कोशिश करनी चाहिए। और जो लोग दो-चार फिल्में बनाने के बाद लुप्त हो गए, उनको मौत के दिनों के आसपास भी देव आनंद के 38वीं फिल्म बनाने की तैयारी की वजहें तलाशनी चाहिए। और, जो लोग अच्छे अभिनेता, खूबसूरत चेहरे और संपर्कों – संबंधों का व्यापक विस्तार वाले लोग होने के बावजूद कुछेक फिल्मों में काम करने के बाद आउट हो गए, उनको देव आनंद के 110 से भी ज्यादा फिल्मों में लीड रोल करने के कारण जरूर जान लेने चाहिए। देव आनंद तो चले गए, मगर उनका नाम रहेगा। नाम इसलिए, क्योंकि उनकी जिंदगी में आशाओं के टूटने, हिम्मत हारने और कुछ आराम कर लेने के साथ साथ पीछे मुड़कर देखने के लिए कोई जगह नहीं थी। देव आनंद कहते थे – ‘जिंदगी जब हर सुबह एक दिन आगे बढ़ जाती है। वह थकती नहीं। हारती नहीं। रुकती नहीं। पीछे मुड़कर देखती नहीं। हर रोज वह हमारे साथ नए नए प्रयोग करती रहती है। रोज विकसित होती रहती है। तो फिर हम उसको उसी के अंदाज में क्यों नहीं जिएं।’
देव आनंद की जिंदगी की पटकथा, किसी रहस्य, रोमांच और परीकथा से कम नहीं लगती। वे सारे विषयों पर बात करते थे, खुलकर बोलते थे और बेबाक बात करते थे। लेकिन सुरैया का नाम आते ही उनकी जुबान तो चुप हो जाती थी और आंखे बोलने लगती थीं। 80 साल की ऊम्र में लोगों की आंखें बहुत थक जाती हैं। लेकिन अपन ने उन आंखों में भी भरपूर जवानी के जोश को जोरदार उफान मारते देखा है। यह तब की बात है, जब उनको दादा साहेब फाल्के अवार्ड मिला था। साल था 2003, और जगह थी मुंबई में बांद्रा स्थित पाली हिल का उनका आनंद स्टूडियो। दूसरी मंजिल के बड़े से हॉल के एक कोने में लेंप की रोशनी में वे कुछ पढ़ रहे थे। अपन जैसे ही उन के पास पहुंचे, वे अचानक उछलकर खड़े हो गए और लपक कर पास आते ही गले लगाकर बोले - ‘तुम तो बिल्कुल सही वक्त पर आ गए...।’ अपन बोले - ‘देव साहब, आपने वक्त की कीमत दुनिया को सिखाई है, आपको इंतजार करवाकर हम क्या पा लेंगे।’ वे चुप थे... एकदम चुप। फिर अपने साथ के बाकी तीन लोगों का परिचय पूछकर जिंदगी की बातें करने लग गए। लेकिन सिर्फ जिंदगी की बात ही क्यूं... फिल्मों की बात क्यूं नहीं ? इस सवाल पर उनका कहना था – फिल्में तो जिंदगी का एक हिस्सा है। मगर फिर भी फिल्मों में पूरी जिंदगी दिखती है। इसीलिए फिल्में हमें अकसर जिंदगी से भी ज्यादा हसीन लगती हैं। सारे लोग कहते हैं कि फिल्में बदल गई है, फिल्मों में बहुत कुछ नया आ गया है। मगर देव आनंद फिल्मों में आज के दौर के बदलाव को बदलाव नहीं मानते थे। उनका कहना था - ‘कुछ नहीं बदला। वही प्यार है। वही संगीत है। वही किस्से हैं, कहानियां हैं। वही एक दूसरे के प्रति भावनाओं से भरी बातें हैं। क्या बदला है ? सिर्फ लोग ही तो बदले हैं, नए लोग आए हैं, नई तकनीक आई है। मगर फिल्में कहां बदली है। साठ साल में तो कुछ भी नहीं बदला।’
दरअसल, देव आनंद कला और ग्लैमर के संसार में वक्त को जीतनेवाली उस पूरी पीढ़ी के प्रतिनिधि थे, जिसके लिए जिंदगी इसलिए ज्यादा जरूरी है क्योंकि इससे बड़ा नाटक और कोई है ही नहीं। यही वजह रही कि वे जब तक जिए, लोग उनकी जिंदगी में जीने की नाटकीयता की तलाश हर पल करते रहे। मगर कोई भी, किसी भी मोड़ पर देव साहब के जीवन की नितांत निजता में जी हुई नौटंकी को पकड़ नहीं पाया। क्योंकि वह थी ही नहीं। वे कहते थे, बहुत सारे लोग उनके पास आते हैं, और उनके जीवन में कलाकार और स्टार होने के बीच के फर्क पर बात करते हैं। मगर वे इसमें कोई फर्क नहीं मानते थे। उनके लिए स्टार होना भी इंसान होना ही होता है। यह कोई और कहता तो शायद समझ में नहीं आता। मगर देव आनंद की जिंदगी के जरिए यह सब देखना, समझना और कहना और भी आसान हो जाता है, क्योंकि फिल्म जगत के वे पहले ऐसे व्यक्ति थे, जिनकी निजी जिंदगी का रहन सहन भी किसी बहुत बड़े सुपर स्टार से कम नहीं था, और असल जिंदगी में भी वे सिर्फ और सिर्फ एक सहज कलाकार ही थे। फिर चाहे वह उनका बात करने का लहजा हो, चलने का अंदाज हो या फिर आम आदमी से कई हजार गुना ज्यादा ऊंची उनकी लाइफ स्टाइल। हर किसी को साफ लगता था कि निजी जिंदगी में वे पूरी तरह फिल्मी थे, और फिल्मों में वे पूरी तरह असल आदमी। सच कहा जाए तो, फिल्म और जिंदगी के बीच खड़ा आदमी उनको कहा जा सकता है। क्योंकि वे सिनेमा के होते हुए भी आम आदमी के आदमी थे। 26 सितंबर 1923 को पाकिस्तान में तब के गुरदासपुर और अब के नारोवाल जिले में वकील पिशोरीमल आनंद के घर हुआ और 20 साल की ऊम्र में 1943 में वे मुंबई आ गए। तीन साल बाद 1946 में उनकी पहली फिल्म आई – ‘हम एक हैं’ और 1950 में ‘प्रेम पुजारी’ से उन्होंने निर्देशन शुरू किया। कुल 110 से भी ज्यादा फिल्में Gनके खाते में दर्ज हैं। 4 दिसंबर 2011 को लंदन में उन्होंने इस संसार को अलविदा कह दिया।
जिंदगी के बारे में उनका नजरिया बहुत साफ था। वे कहते थे - ‘मन को जो अच्छा लगे, कर लो। क्योंकि कोई भी काम करने जाओ तो लोग पहले रोकते हैं। टोकते हैं। लेकिन जब आप अपनी पसंद का वो काम कर लेते हैं, तो दुनिया भी उसको पसंद करने लगती है। फिर जो दुनिया पहले आपको रोक रही थी, वही आपको उस काम की तारीफ भी करने लगती है। शायद यही वजह रही कि देव आनंद ने वही काम किया, जिसकी उनके दिल ने गवाही दी।’ फिर वह चाहे धारा के विरुद्ध फिल्में बनाना हो, इंदिरा गांधी की इमरजैंसी का विरोध करना हो, या फिर निजी जिंदगी में भरपूर प्रेम करना। वे हमेशा घनघोर रात के अंघेरे में भी समंदर की लपलपाती लहरों के विरूद्ध चले और उन पर जीत दर्ज करके दुनिया को अपनी जिंदगी का जज्बा दिखाया। इसीलिए कहा जा सकता है कि देव आनंद अकारण नहीं जिए। वे जानते थे, और कहते भी थे कि बहुत सारे लोग पैदा होते हैं, जीते हैं और बहुत सारा काम करके मर जाते हैं। मगर जिंदगी के आखरी मुकाम पर उनके पास गिनने के लिए कुछ नहीं होता। देव आनंद आखरी सांस तक उन कारणों को साथ जीते रहे, जिनका समाज, सिनेमा और इंसान से वास्तविक रिश्ता है। जो लोग जिंदगी को पुरस्कारों में तब्दील करने की ललक नहीं पालते। और सम्मानों में समाहित होने से दूर रहते हैं, जिंदगी भी उनके सामने जरा झुक कर ही चला करती है। देव आनंद इसी तासीर के आदमी थे। उनकी जिंदगी को देखकर साफ कहा जा सकता है कि देव आनंद हमेशा जिंदगी के सामने सर उठाकर जिए और जब तक जिए, जिंदगी उनके सामने जरा झुककर ही चली। बात सही है ना... !
(लेखक निरंजन परिहार राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं)

Friday, December 2, 2011

जिग्ना के बहाने पत्रकारिता की पड़ताल



-निरंजन परिहार-
मीडिया अपनी दिशाओं से भटक गया है। समाज के हक में खड़े होने के बजाय वह अपराधियों के महिमा मंडन में लगा है। इसके लिए जिम्मेदार अपराध कवर करनेवाले हमारे मक्कार मित्रों के चालाक तर्कों या कुतर्कों का तो खैर कोई जवाब नहीं। लेकिन आपसे एक विनम्र सवाल है... दिल पर हाथ रखकर बिल्कुल ईमानदारी से जवाब दीजिएगा। सवाल यह है कि राजनीति कवर करते करते बहुत सारे पत्रकार नेता बन गए। फिल्में कवर करते करते कई पत्रकार फिल्मों में एक्टिंग करने के अलावा निर्माण और निर्देशन में लग गए। खेल कवर करते करते कई पत्रकार खेल बोर्ड के चेयरमेन, टीम मैनेजर और टूर्नामेंट के आयोजक बन गए। बिजनस कवर करते करते कई पत्रकार स्टॉक ब्रोकर और बिजनसमैन बन गए। तो अपराध की दुनिया की खबरों को जीनेवाले किसी पत्रकार का मुकाम क्या होगा ? अगर वह अपराधियों की गोलियों का शिकार बन जाए, या जेल चला जाए, तो किस मामले की हाय तौबा और किस बात की तकलीफ ?
जिग्ना वोरा अपने जीवन में जो चाहती थी, अपना मानना है कि वह मुकाम उसे मिल गया। वह खबरों में रहना चाहती थी, खबरों को जीना चाहती थी और अपराध की खबरों के जरिए प्रचार पाकर अपराध की खबरों में छा जाना चाहती थी। वह छा गई। खबर लिखकर जीते जी अमर हो जाने की कोशिश में उसने जो किया, उसी की वजह से वह अब खबरों में है। लेकिन उसने जो कुछ किया, या शुभचिंतकों की बात मानकर यह कहें कि उससे जो भी हो गया, उसका अंजाम जेल के अलावा कुछ और हो ही नहीं सकता था, यह तो वह जानती ही थी। और नहीं जानती थी, तो वह बेवकूफ थी। वैसे भी, अपराध की दुनिया की तासीर यही है कि उसे करनेवाला, करवानेवाला और किए हुए को जीनेवाला भले ही वह समझदार हो या भोंदू, अंतत: खुद भी उसी के तानेबाने का अटूट हिस्सा बन जाता है। अपराध कवर करते करते लोग अपराध के अंजाम में पूरी तरह समा भले ही नहीं जाते तो, उसका हिस्सा तो बन ही जाते हैं। कई सारे खबरी भी बन जाते हैं। ठीक वैसे ही, जैसे राजनीतिक पत्रकारिता करते करते हमारे बहुत सारे साथी राजनीति में आ गए। संजय निरुपम, राजीव शुक्ला और अरुण शौरी की तरह सितारा बन गए। तो उनके जैसे कई लोग पार्टियों के प्रवक्ता और पदाधिकारी बन गए।
मुंबई में अपराध कवर करनेवाले हमारे भाई लोग जे डे के मारे जाने पर छाती पीट पीट कर बहुत हाय तौबा मचा रहे थे। मोर्चे निकाल रहे थे। धरने दे रहे थे। प्रदर्शन कर रहे थे। मगर जिग्ना के जेल जाने पर सब मौन हैं। इतने मौन कि अनजाने नंबरों से कॉल आने पर भी उनको सांप सूंघने लगा है। किसी बड़े पुलिस अफसर का फोन आने पर उससे बात करने से पहले पैर और फिर होठ थरथराने लगे हैं। और अपने कॉल टैप होने का अंदेशा, हर उस पत्रकार को हो रहा है, जिसकी तासीर में अपराध कवर करना रहा है। अपराध कवर करनेवाले हमारे साथी हमेशा से खुद को तुर्रमखां के रूप में पेश करते रहे हो, मगर सच्चाई यही है कि इन दिनों सारे के सारे अंदर ही अंदर सिहर जाने की हद तक सहमे हुए हैं। कुछ हो जाने का बाद आमतौर पर जो हालात होते हैं, उसे माहौल कहा जाता है। और हर माहौल के अपने अलग मायने हुआ करते हैं। अच्छे काम का अच्छा माहौल, बुरे काम का बुरा माहौल। पत्रकार राजीव शुक्ला के मंत्री बनने पर और संजय निरुपम के तीन बार सांसद बनने पर अपने जैसे उनके साथियों के बीच खुशी का माहौल था। लेकिन पत्रकार जिग्ना के जेल जाने और जे डे के मारे जाने पर लोगों को बुरे माहौल को जीना पड़ रहा है। इसी माहौल से अपराध कवर करने के पेशे की इस बदली हुई तासीर को समझा जा सकता है।
b जिग्ना वोरा को अपन नहीं जानते। मुंबई में सालों से पत्रकारिता करने के बावजूद बिल्कुल नहीं जानते। ना कभी कोई व्यक्तिगत मुलाकात और ना ही कभी कोई बातचीत। वैसे, आप यह जानकर अपन को बेहद अल्प संपर्कों और संबंधोंवाला पत्रकार मान सकते हैं। लेकिन जिग्ना को जानने भर से ही कोई बड़ा पत्रकार नहीं हो जाता, यह भी आप भी जानते है। दिल्ली से बहुत दूर मुंबई में रहने के बावजूद भारत सरकार के बहुत सारे मंत्री, देश के कई राज्यों के मुख्यमंत्री, और ढेर सारे सांसद लोग अपन और अपने कई अन्य साथियों को नितांत निजी रूप से जानते है। कईयों का घर पर भी आना जाना है। बहुत सारे राजनेताओं से अपने पारिवारिक संबंध हैं। लेकिन इस सब पर अपने को कोई गर्व या दर्प कभी नहीं रहा। मगर, दुबई की दुनिया में बैठे दानव के दो कौड़ी के किसी कमीने का भी फोन आ जाने पर अपराध कवर करनेवाले पत्रकारों को अपन ने बंदरों की तरह उछलते देखा है। अपने फोन पर अपराधी के आए किसी कॉल को हर तरह से प्रचारित करते भी उनको देखा हैं। लेकिन क्या किया जाए, यही उनका अपना स्तर है। लेकिन अपन अगर जिग्ना वोरा को गिरफ्तार होने से पहले नहीं जानते थे, तो उसके पीछे की वजह यही है कि मुख्यधारा की पत्रकारिता करनेवालों का अपराध कवर करनेवालों का वास्ता बहुत कम ही पड़ता है। और यह भी सच्चाई है कि मुंबई में अपने जैसे सैकड़ों पत्रकार और हैं, जिनने कल तक जिग्ना का तो क्या जे डे का नाम भी नहीं सुना था। मगर अब सब दोनों को उनके अपने अपने हालात और हश्र की वजह से जानने लगे हैं। और यह भी जानने लगे हैं कि कौन पत्रकार किस तरह से किस अपराधी की किन शर्तों पर पत्रकारिता का कारोबार कर रहा है।
अपराध तो हमारे स्वर्गीय साथी आलोक तोमर और अमरनाथ कश्यप ने भी कवर किया था। दाऊद से लेकर छोटा शकील और इकबाल डोसा से लेकर छोटा राजन तक सबसे कई कई बार व्यक्तिगत रूप से मिलकर आलोक तोमर ने बातचीत भी की और उनके इंटरव्यू भी छापे। मगर अपराध और अपराधियों का कहीं भी, कभी भी और किसी भी रूप से महिमा मंडन कतई नहीं किया। और जानने वाले तो यह सत्य भी जानते हैं, कि उस जमाने में आलोक तोमर के भारत सरकार से गहरे संबंधों को जानकर दाऊद ने उनके सामने सरकार से बात करने का संधी प्रस्ताव भी रखा था। मगर इतने बड़े गिरोहबाज दाऊद को भी आलोक तोमर ने कहा था कि अपराधियों का दूत बनने के बजाय वे मर जाना पसंद करेंगे। आलोक तोमर का यह टका सा जवाब सुनकर दुनिया को अपने इशारों से सन्न करनेवाला दाऊद खुद सन्न था। यह उनके पत्रकारिता की पूजनीय परंपराओं को निभाने का जज़्बा था। उनकी ही तरह से और भी कई लोग आज भी देश में अपराध कवर कर रहे हैं। लेकिन कोई उन पर उंगली नहीं उठा सकता।
लेकिन जिग्ना जेल में है। जेल में इसलिए, क्योंकि अपराध की खबरों का जुगाड़ करके अपना नाम करने की कोशिश में जिग्ना खुद अपराध का अहम हिस्सा बन गई। गिरफ्तारी का कारण यही माना जा रहा है कि जिग्ना की वजह से ही जे डे इस जहां से चले गए। अपना तो यह भी मानना है कि कहने भर को भले ही जे डे की मौत के लिए जिग्ना को जिम्मेदार बताया जा रहा हो, लेकिन वास्तविक सच्चाई यह भी है कि अपने अपने हश्र के लिए दोनों ही व्यक्तिगत रूप से जिम्मेदार थे। जे डे के पास भी अपने जीवन में पत्रकारिता में सिर्फ अपराध ही कवर करने के अलावा और भी ढेर सारे विकल्प थे। जिग्ना भी गुंडो़ं की खबरों के अलावा अपनी दे्हयष्टि के मुताबिक कमसे कम ग्लैमर तो कवर कर ही सकती थी। लेकिन प्रकृति की परंपरा है कि दिमाग की जैसी तासीर होती है, वह आपके दिल को वैसी ही दिशा देता है और आपसे काम भी वैसा ही करवाता है। जिग्ना के जेल जाने की या जे डे के दुनिया से चले जाने का भले ही हमारे बहुत सारे अपराध कवर करनेवाले साथियों को संताप हो, मगर अपने को उनके दुख और दर्द से कोई वास्ता नहीं है। वास्ता इसलिए नहीं, क्योंकि दोनों ही पत्रकारिता करते करते अपराधियों की उंगलियों के इशारों पर काम करने लग गए थे। दोनों के मामले में अपना सिर्फ और सिर्फ यही मानना है कि यह उनका अपना ‘प्रोफेशनल रिजल्ट’ है। जिग्ना और जे डे की कहानी अपराध कवर करते करते खुद उसका हिस्सा बन जाने की है। अगर जिग्ना और जे डे तमीज़ से काम करते, तहज़ीब से पत्रकारिता करते और अपराधियों से संबंध बनाकर पत्रकारिता के पेशे की परंपरा को कलंकित नहीं करते, तो उनका यह हश्र कभी नहीं होता। यही वजह है कि इस पूरे मामले पर अपने को तो कमसे कम कोई दुख या संताप नहीं है। क्या आपको है ?
(लेखक जाने माने राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं)