Monday, November 19, 2012

दुर्भाग्य के दावानल में भी दर्द को दरकिनार करता मीडिया

-निरंजन परिहार-

‘मातोश्री’ से इससे पहले ट्रक पर सवार होकर बाला साहेब कभी नहीं निकले। पर 18 नवंबर को रविवार की सुबह जब निकले तो दोबारा कभी नहीं लौटने के लिए निकले थे। फूलों से लदे थे। सदा के लिए सोए थे। तिरंगे में लिपटे थे। और यह तो निर्विकार किस्म का निपट संयोग ही था कि पूरे जनम भर बाला साहेब जिस रंग से दिल से प्यार करते रहे, हमारे राष्ट्रीय ध्वज के ऊपरी हिस्से का वही भगवा रंग बाला साहेब की देह पर दिल से लगा हुआ था। पिता की पार्थिव देह के साथ उद्धव ठाकरे उनके आखरी सफर में ट्रक पर सवार थे और साहेब की इस अंतिम सवारी की अगुवाई कर रहे थे राज ठाकरे। ट्रक के आगे आगे सड़क पर पैदल चलकर। बाला साहेब की इस अंतिम यात्रा में पूरा ठाकरे कुटुंब, सारी शिवसेना, समूची मुंबई, महाराष्ट्र, देश और हमारी राजनीति के बहुत सारे रंग, इन सबको मिलाकर जो माहौल बन रहा था, वह सबके लिए सिर्फ और सिर्फ एक शोक का संगीत था। और कुछ भी नहीं।
मौत होती ही ऐसी है। वह जब आती है, तो शोक के शोरगुल के साथ दीर्घकालिक शांति के अलावा और कुछ नहीं लाती। इसीलिए जब कोई जाता है, तो वहां सन्नाटे का साया भी पसरा होता है। शोक के इस सन्नाटे में आम तौर पर सिर्फ दर्द का दरिया ही दिखता है। लाखों लोग, हजारों महिलाएं और बहुत सारे बच्चे भी भूखे और प्यासे पैदल चलकर साहेब का शोकगीत गा रहे थे। लेकिन क्योंकि हम सारे ही दुनियादार लोग हैं। मनुष्य होने की सारी कमजोरियों के साथ मीडिया में जिंदा हैं। सो, अकसर न चाहते हुए भी दूसरों के दर्द में भी अलग आयाम की तलाश पर निकल पड़ते हैं। फिर तलाश की सबसे बड़ी मुश्किल यही है कि जो हमारे आस पास घट रहा होता है, तलाश भी हम उसी में करते हैं। बाला साहेब राजनेता थे। उनके देहावसान और अंतिम यात्रा में राजनीति के बहुत सारे रंग थे ही। इसीलिए अंतिम यात्रा में भी हमने अपने लिए ऐसे ही कई अलग किस्म के बहुत ही रंगीन आयाम तलाश लिए, जो भले ही अवसर की असरदार उपादेयता थे, पर माहौल से मेल खाने के साथ हमारे मन के मैल से भी मेल खाने के अलावा सार्वजनिक रूप से सहज स्वीकार्य तो थे ही। सो, हमने अंतिम यात्रा में राज ठाकरे के हाल को देखकर उनकी आगे की नीति और नियती के अलावा उद्धव के अस्तित्व से आगे के आयाम भी तलाश लिए।
साहेब का शोक गीत गा रही मुंबई के मातम में हम सबने देखा कि जो लोग जिंदगी भर उनके विरोध में खड़े रहे, वे भी बाला साहेब को फूल चढ़ाने के लिए कतार में खड़े थे। जिंदगी के किसी मोड़ पर जो लोग कभी बाला साहेब को छोड़कर चले गए थे, वे भी लौट आए थे। अंतिम दर्शन करने। विदाई देने। शायद प्रायश्चित करने भी। बहुत सारे वे लोग, जो जीवन भर बाला साहेब की बखियां उधेड़ते रहे, वे भी पुष्पांजलि लेकर पहुंचे थे। है कोई ऐसा नेता, जिसके दुनिया से विदा हो जाने पर उसकी सबसे प्रबल विरोधी पार्टी ने भी बाकायदा उन्हीं के मुखपत्र और बाकी बहुत सारे अखबारों में भी इश्तिहार देकर शोक गीत गाया हो। राष्ट्रवादी कांग्रेस ने बाला साहेब के सम्मान में अखबारों में विज्ञापन दिए, बैनर लगाए और अपने बहुत सारे नेताओं के साथ पार्टी के मुखिया शरद पवार खुद वहां पहुंचे भी। पूरी जिंदगी कट्टर हिंदुवाद का जामा पहनाकर जिन बाला साहेब को कांग्रेस हमेशा निशाने पर रखे रही, उसी कांग्रेस के नेता भी न केवल दिल्ली से खास तौर से श्रद्धासुमन अर्पित करने पहुंचे, बल्कि बाला साहेब के सम्मान में मुंबई में कई जगहों पर बैनर और होर्डिंग लगाकर भी कांग्रेस ने उनको श्रद्धांजली दी। अपन ने कई बड़े बड़ों को इस दुनिया से जाते देखा है, कईयों की आखरी विदाई के गवाह भी अपन रहे हैं पर बीते कुछेक सालों में देश में किसी भी और राजनेता की ऐसी विदाई नहीं देखी, जैसी बाला साहेब की रही। पर, सुना जरूर है कि हमारे हिंदुस्तान ही नहीं दुनिया के ज्ञात इतिहास में अब तक की सबसे बड़ी अंतिम यात्रा रही अन्ना दुराई की। मद्रास के मुख्यमंत्री अन्ना दुराई की अंतिम यात्रा में डेढ़ करोड़ लोग थे। मोहनदास करमचंद गांधी की अंतिम यात्रा में 25 लाख और जवाहरलाल नेहरू के 22 लाख। एमजी रामचंद्रन और एनटी रामराव के अलावा वायएस राजशेखर रेड्डी की अंतिम यात्रा में भी दस दस लाख लोग थे। दुनिया के सबसे बड़े धर्मगुरू कहे जानेवाले पोप जॉन पॉल की अंतिम यात्रा में भी लोग सिर्फ दस लाख ही थे। पर बाला साहेब की अंतिम यात्रा में साथ चलने और अंतिम संस्कार स्थल पर पांच लाख से ज्यादा और रास्ते भर उनको श्रद्धासुमन अर्पित करनेवालों की संख्या कुल मिलाकर बीस लाख के पार थी।
हमारी संस्कृति और संस्कारों में भले ही इस बात की इजाजत बिल्कुल नहीं है कि किसी की प्राण विहीन देह के सामने ही दैत्यों की तरह उसकी विरासत और वारिस के फैसलों पर बहस की जाए। पर, हमारी दुनिया में, और खासतौर से हमारे इस देश में अक्सर यह होता है कि एक जीता जागता शख्स अचानक हेडिंग और हेडलाइंस में तब्दील हो जाता है और फिर उसके बारे में वे लोग भी कई तरह की कहानियां कहने लगते हैं, जिनसे किसी का कभी कोई वास्ता नहीं रहा होता। बाला साहेब की अंतिम यात्रा को भी हमने अपनी अलग अलग नजरों से देखा। इस यात्रा में हमने उद्धव ठाकरे की अलग अहमियत देखने की कोशिश की और राज ठाकरे की राजनीति के रंग तलाशने का प्रयास भी। न तो हमको बाला साहेब के प्रति उमड़ती श्रद्धा का समृद्ध संसार, न श्रद्धांजली देने आए अपार जनसमुदाय की संख्या और न ही देश के इतिहास की एक और बहुत बड़ी अंतिम यात्रा दिखी। बाला साहेब के ना रहने से ठाकरे कुटुंब और समूची शिवसेना में पैदा हुए दर्द के दावानल से उपजी भावनाओं की तस्वीर देखने की फुरसत हमको नहीं मिली। हम सब दुर्भाग्य में भी दिल का सुकून तलाशने में माहिर हैं, सो बाला साहेब की अंतिम यात्रा में भी हमने तलाशी तो, सिर्फ राज की राजनीतिक ताकत, उद्धव का संभावित अस्तित्व और महाराष्ट्र की राजनीति के भविष्य की तस्वीर। बाकी कुछ नहीं। जाना एक दिन सभी को है। आपको भी और हमको भी। ऊम्र किसी की कम तो किसी की ज्यादा है। बाला साहेब 86 साल के थे। और वे कोई अमृत खाकर नहीं जन्मे थे कि अपने कुटुंब और कबीले की राजनीति को निखारने और उसमें आनेवाली बाधाओं को सुलझाने के लिए ही हमेशा जिंदा रहते। इस पूरे परिदृश्य में मूल विषय पिता की छत्रछाया खो चुके उद्धव ठाकरे नाम के एक दुखी आदमी की ताकत तलाशने का नहीं है।
रोते और आंसू पोंछते राज ठाकरे की राजनीतिक जमीन में गहरी जाती जड़ें भी कोई विषय नहीं है। और न ही दुनिया से आखरी विदाई ले चुके बाल केशव ठाकरे नाम का एक वह वयोवृद्ध शख्स कोई विषय है। मूल विषय है हमारे अंतःकरण में छिपी हर किसी में कुछ ना कुछ तलाशते रहने की भावना और हमारी उन भावनाओं को आकार देने की हमारी कल्पनाशक्ति, जो हमें दुर्भाग्य में भी राजनीति तलाशने को मजबूर कर देती है। फिर टेलीविजन के दृश्यों का वह जागता बहता संसार तो कुल मिलाकर शुद्ध टीआरपी का खेल है। हेडिंग और हेडलाइंस की वह होड़ भी अंततः सर्कुलेशन के संसार का ही हिस्सा है। पर, टीआरपी और सर्कुलेशन आखिरकार शब्द हैं। लेकिन हर शब्द और हर कर्म की अपनी मर्यादाएं होती है। और मीडिया में होने की वजह से मर्यादाएं तोड़ने के अपराध से हम आजाद नहीं हो सकते। भले ही हम मनुष्य होने की सारी कमजोरियों के साथ जिंदा हैं। पर, भावनाएं हममें भी हैं। संवेदनाओं की समझ भी हम सबको है। फिर भी, संवेदनाओं में सनसनी खोजने और दुर्भाग्य में भी दर्द को दरकिनार करके हम सिर्फ और सिर्फ राजनीति ही तलाशेंगे, तो हमारे इस अपराध की सजा कौन तय करेगा ?

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं)

Saturday, November 17, 2012

करिश्मे की उम्मीद अब किससे साहेब !


-निरंजन परिहार-

बाला साहेब ठाकरे। हिंदू हृदय सम्राट। हमेशा अगल अंदाज। बिल्कुल अलग बयान। जो जी में आया, वह बोल दिया। हर बयान पर बवाल और हर बवाल पर देश भर में व्यापक प्रतिक्रिया। फिर भी अपने कहे पर किसी भी तरह का कोई मलाल नहीं। कह दिया तो कह दिया। चाहे कितना भी विरोध हुआ, भले ही किसी ने भी विरोध किया, पर, वे विरोध से विचलित कभी नहीं हुए। अपने कहे से हिले नहीं। कभी डिगे नहीं। एकदम अटल रहे। हमेशा अडिग। बाला साहेब दमदार थे। दिग्गज थे। दयालू भी थे और दिलदार भी। दिल के राजा थे। निधन भी दिल का दौरा पड़ने से ही हुआ। कहा जा सकता है कि जाते जाते भी दिल से दिल का रिश्ता निभाते गए। दिलवाले बाला साहेब के नाम के साथ अब स्वर्गीय लिखा जाएगा, यह लाखों दिलों को कभी मंजूर नहीं होगा।
अब जब, वे नही हैं, तो बहुत सारे लोगों को यह बता देना भी जरूरी है कि राजनीति में बाल ठाकरे को जितना सम्मान हासिल था, उतना सम्मान पाने के लिए हमारे देश के ही नहीं दुनिया भर के हजारों नेताओं को कई कई जनम लेने पड़ेंगे। और, यह जान लेना भी जरूरी है कि बाला साहेब को हासिल सम्मान भी किसी और की खैरात या उधार की सौगात नहीं था। उनको यह सम्मान उनकी फितरत से हासिल था। सम्मान इतना कि लिखने में बाल ठाकरे को ‘बाला साहेब’ लिखा जाता है और बोलने में ‘साहेब’ कहा जाता है। भारतीय राजनीति का इतिहास देख लीजिए, हर नेता को किसी न किसी के साए की जरूरत होती रही है। हर कोई किसी न किसी की वजह से किसी मुकाम पर होता है। पर राजनीति में बाल ठाकरे का ना तो कोई गॉडफादर था और ना ही कोई खैरख्वाह। पता नहीं जीवन के किस मोड़ पर कहां बाला साहेब ने यह जान लिया था कि राजनीति में विचार, वाणी और व्यवहार ही सबसे बड़ी पूंजी हुआ करते हैं। और यह भी समझ लिया था कि इनका जितना ज्यादा उपयोग किया जाएगा, राजनीति उतनी ही खिल उठेगी। इसीलिए विचार, वाणी और व्यवहार को ही उनने अपने गॉडफादर के रूप में खड़ा कर दिया। इन तीनों के अलावा, भले ही कोई व्यक्ति हो या वाद, राजनीति में बाला साहेब ने किसी भी चौथे को तवज्जो नहीं दी। विचार उनके अपने होते थे। वाणी उन विचारों के मुकाबिल होती थी। फिर विचार और वाणी के साथ ही उनका व्यवहार भी वैसा ही विकसित होता था। इसीलिए कहा जा सकता है कि बाला साहेब को बाला साहेब किसी और ने नहीं बनाया। उनको बाला साहेब बनाने में उनकी फितरत का ही सबसे बड़ा रोल रहा। और यह भी उनकी अपनी फितरत ही थी कि राजनीति में बाला साहेब सबके आलाकमान रहे। मगर उनका आलाकमान कोई नहीं। राजनीति में बहुत सारे लोग, बहुत सारे लोगों की बहुत सारी सलाह लेकर अपनी रणनीति तय करते हैं। उसके बाद मैदान में उतरते हैं। लेकिन बाला साहेब तो खुद ही अपने सलाहकार थे। मैदान भी वे ही चुनते थे, योद्धा भी वे ही होते थे और निशाना भी वे ही लगाते थे। निशाना हमेशा से उनकी जिंदगी का सबसे बड़ा शौक रहा। लोगों को सदा उनने अपने निशाने पर रखा और वे खुद भी पूरे शौक के साथ हमेशा निशाने पर रहे। राजनीति में आने से पहले जब वे कार्टूनिस्ट थे, तब भी राजनेता ही उनके निशाने पर थे। राजनीति में उतर गए, तब भी राजनेता उनके निशाने पर रहे। पर, इस बात का क्या किय़ा जाए कि निशाने की नीयती ने हमेशा निशाने पर खुद बाला साहेब को भी रखा, जिससे वे खुद भी कभी बच नहीं पाए। जो पद के लिए राजनीति में आते हैं और आने के बाद पद पाने की लालसा में इधर से उधर आया जाया करते हैं, बाला साहेब उन लोगों के लिए हमेशा अजूबा ही रहे। पूरे जीवन में ना किसी पद की लालसा नहीं पाली और ना ही खुद ने कभी कोई पद नहीं लिया, पर महापौर से लेकर मुख्यमंत्री, यहां तक कि प्रधानमंत्री भी और लोकसभा अध्यक्ष से लेकर राष्ट्रपति भी उनने बनाए। उनके अपने लोगों में सबसे पहले छगन भुजबल, फिर नारायण राणे, बाद में मनोहर जोशी, बीजेपी के अटल बिहारी वाजपेयी और कांग्रेस की प्रतिभा पाटिल, कोई यूं ही बाला साहेब का गुणगान थोड़े ही करते हैं। इतना तो आप भी जानते ही हैं कि हमारे देश में बहुत सारे लोग प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति बनकर भी अपने परिवार तक के लोगों के दिल के किसी कोने में भी जगह नहीं बना पाए। उसी देश में बाला साहेब बिना किसी पद पर रहकर भी देश भर में करोड़ों लोगों के पूरे के पूरे दिल पर ही कब्जा किए हुए देखे जाते रहे हैं। लोग मुखौटों की राजनीति करते हैं। छद्म छंद गाते हैं और सायों का साथ लेते हैं। लेना ही होता तो बाला साहेब के लिए यह सब कुछ बहुत सहज था। पर, बाला साहेब बेबाकी से आम आदमी की भाषा में भाषण करके आम आदमी के मन को मोहते रहे। ऐसा वे इसलिए करते रहे क्योंकि इस गुर को उनने समझ लिया था कि भावनाओं के भंवर में उतरकर ही राजनीति के भवसागर को आसानी से पार किया जा सकता है। भारतीय राजनीति के हमारे बहुत सारे नेताओं को हमने अकसर यह कहते सुना हैं कि राजनीति में भावनाओं के लिए कोई जगह नहीं होती। पर, ऐसे लोगों के लिए बाला साहेब की पूरी जिंदगी एक अजूबा रही। क्योंकि देश के बाकी राजनेताओं की तरह भावनाओं के साथ खेल करना तो वे भी जानते थे। पर, अपनी राजनीति वे खुद को भावनाओं से भरकर करते रहे। यही वजह रही कि उन पर बाकी तो किसम किसम के सारे आरोप लगते रहे, पर जन भावनाओं से खेलने और खिलवाड़ करने के आरोप कभी नहीं लगे। वरना मराठी माणूस और मराठी अस्मिता भावनाओं का मुद्दा नहीं तो और क्या थे। बाकी बातों के साथ साथ एक यह बात और कि राजनीति में लोग एक सोची समझी रणनीति के तहत अखबारों का अपने समर्थन में खुलकर उपयोग करते हैं, पर स्वीकारने से बचते हैं। मगर, बाला साहेब ने तो इसके उलट अपने लिए मराठी में ‘सामना’ और हिंदी में ‘दोपहर का सामना’ अखबार भी निकाले और अपनी राजनीति को चमकाने में उनका भरपूर अपयोग भी किया। बाकी नेताओं की तरह किसी से कभी भी कुछ भी नहीं छुपाया। शराब के शौक से लेकर सिगार का धुआं। सब कुछ डंके की चोट पर। मराठी माणूस, मराठी अस्मिता और मुंबई के अलावा महाराष्ट्र को हमेशा सर्वोपरि माननेवाले बाला साहेब ने अपने जीवन में कई बड़ी बड़ी राजनीतिक लड़ाईयां पहले खुद ही खड़ी कीं। फिर उनको जीता भी। यह उनकी फितरत रही। लेकिन यह सभी जानते हैं कि अपनी फितरत की वजह से ही शिवसेना को एकजुट रखने की लड़ाई में वे उसी तरह से हार गए, जैसा अपने अंतिम वक्त में वे पांच दिन तक जिंदगी से लड़ते रहे और अंततः जिंदगी जीत गई, साहेब हार गए। बाला साहेब तो चले गए, पर, उनकी जगह कोई नहीं ले पाएगा। ठीक वैसे ही, जैसे बाला साहेब ने पार्टी अध्यगक्ष का पद तो छोड़ दिया, फिर भी उनकी जगह किसी ने नहीं ली। आपके ज्ञान के लिए यह बताना जरूरी है कि उद्धव ठाकरे आज भी कार्यकारी अध्यलक्ष के रूप में ही काम कर रहे हैं। अपना मानना है कि बाला साहेब जैसा न कोई हुआ है, न कोई होगा। इसलिए, क्योंकि जैसा कि पहले और हमेशा अपन कहते रहे हैं कि उनके जैसा बनने के लिए कलेजा चाहिए। सवा हाथ का कलेजा। ऐसे कलेजेवाले ही करिश्मा पैदा कर करते है। और अब जब बाला साहेब हमारे बीच नहीं है, तो हमारे समय की राजनीति में किसी अन्य व्यक्ति से करिश्मे की उम्मीद करना कोई बहुत समझदारी का काम नहीं लगता। करिश्माई बाला साहेब के इस जहां से चले जाने के यथार्थ का आभास राजनीति को ही नहीं बल्कि पूरे समाज को होने में अभी बहुत वक्त लगेगा। वे लोग जो कुछ दिन पहले तक बाला साहेब को इस युग का सबसे उग्र, हिंदुवादी और कट्टरवादी नेता करार दे रहे थे, आज उनकी बोलती बंद है।
अपन पहले भी कहते रहे हैं और फिर कह रहे हैं कि बाला साहेब वैरागी नहीं थे, पूरे तौर पर एक विशुद्ध राजनेता थे। मगर असल में उनकी राजनीति और उनके संघर्ष हमारी मुंबई और महाराष्ट्र को बेहतर और रहने लायक बनाने के लिए थे। निधन की खबर सुनकर जींस – टी शर्ट पहने 25 साल का एक पढ़ा लिखा जवान मातोश्री के बाहर धार धार रोते हुए आहत भाव से कह रहा था - इस साली जिंदगी का क्या भरोसा, आज है और कल नहीं। सवाल यह नहीं है कि बाला साहेब के प्रति नए जमाने की इस नई पीढ़ी की श्रद्धा अब किस तरफ जाएगी। पर, राजनीति में अब करिश्मे की उम्मीद किससे की जाए, यह सबसे बड़ा सवाल है। (लेखक राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं)

Monday, November 12, 2012

मजबूत मोदी के मैदान में मीडिया की मुश्किल

-निरंजन परिहार-

कायदे से चौथी बार और सीएम के नाते तीसरी बार नरेंद्र मोदी गुजरात के चुनाव मैदान में हैं। कांग्रेस को गुजरात में मोदी के मुकाबले अपने भीतर कोई मजबूत आदमी नहीं मिला। पर पिछले एक दशक से वहां मीडिया मोर्चा संभाले हुए है। कांग्रेस को इसमें मजा आ रहा है। क्योंकि उसका काम हो रहा है। बीजेपी कहती है, गुजरात में मीडिया कांग्रेस का हथियार बना हुआ है। लोगों को भी ऐसा ही लग रहा है। इसलिए, क्योंकि कोई भी न्यूज चैनल देख लीजिए, अखबार पढ़ लीजिए। मोदी खलनायक के रूप में नजर आएंगे। मतलब, मीडिया और मोदी की रिश्तेदारी बहुत मजबूत है। बाकी लोग मीडिया से घबराते हैं। भागते हैं। पर, मीडिया मोदी के पीछे दौड़ता दिखता है। और मोदी जब मिल जाते हैं, तो वह उनको बदनाम करने में कोई कसर नहीं छोड़ता। यह सबको लगता है। इतिहास गवाह है। अखबारों ने, टीवी ने और सोशल मीडिया ने भी मोदी को बदनाम करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। एक दशक से भी ज्यादा वक्त बीत गया, पर गोधरा को मोदी के माथे का मुकुट बनाने से मीडिया नहीं चूकता। गोधरा में ट्रेन में सोए लोगों को जिंदा जलाने के अपराधी मुसलमानों की कोई गलती नजर नहीं आती। मीडिया ऐसा साबित करने पर तुला हुआ है, जैसे गुजरात का मुसलमान होना इस पूरे पृथ्वी लोक पर सबसे सीधी प्रजाति का परिचायक है। और बाकी गुजरातियों से बड़ा हैवान इस दुनिया में कोई नहीं। लेकिन ऐसा नहीं है। किसी भी एक हथियार का जब जरूरत से ज्यादा किसी के खिलाफ उपयोग किया जाए। तो वह हथियार तो अपनी धार खो ही देता है। वार सहनेवाला भी उससे बचने और उसके जरिए ही मजबूत होने की कलाबाजियां जान लेता है। फिर मोदी तो, दुश्मन के हथियार को उसी के खिलाफ उपयोग करने में माहिर हैं।
मोदी और उनके गुजरात के साथ भी मीडिया ने जो किया वह सबके सामने है। गोधरा को कलंक साबित करने की कोशिश कांग्रेसी ने की। पर, यह तो आपको भी मानना ही पड़ेगा कि, कांग्रेस की उस कोशिश को मोदी के माथे पर मढ़ने की महानता मीडिया ने की। लेकिन, इस सबने मोदी को बदनामी कम और ख्याति ज्यादा दी है। कांग्रेस के कहे - कहे, मीडिया जैसे जैसे मोदी को मुसलमानों का विरोधी बताता रहा, दूसरा वर्ग लगातार मोदी के साथ और मजबूती से खड़ा होता रहा। सत्य यही है कि मीडिया ने एक खास वर्ग में मोदी को बहुत बदनामी दी। लेकिन तथ्य यह भी है कि मीडिया के इस आचरण ने ही मोदी को दूसरे वर्ग में बहुत ज्यादा लोकप्रियता दी। देश के सारे ही राज्यों के सीएम और मनमोहनसिंह के पूरे के पूरे मंत्रिमंडल सहित बहुत सारे भूतपूर्व और अभूतपूर्व सीएम और मंत्री वगैरह देश का प्रधानमंत्री बनने के सपने पालते हैं। उनमें से ज्यादातर का तर्क यही है कि मनमोहनसिंह से तो वे ज्यादा काबिल हैं। और उनके इस तर्क में सच्चाई भी है। फिर, मोदी पीएम बनने के प्रयास में है, तो गलत क्या है। पर, मीडिया ने मोदी को देश का सबसे बड़ा दावेदार बता बताकर भारत भर में उनको राजनीतिक निशाने पर लाकर खड़ा कर दिया। लेकिन इस सबसे भी मोदी देश भर के मुख्यमंत्रियों के मुकाबले कुछ ज्यादा ही ऊंचे लगने लगे। गुजरात में तो उनका कद इतना बढ़ा गया कि प्रदेश में बाकी सारे नेता उनके सामने नेता बौने लगने लगे हैं। कांग्रेस में तो खैर, वैसे भी उनके मुकाबले का कोई था ही नहीं। अपना मानना है कि मोदी को अतिरक्षात्मक भी कांग्रेस ने नहीं, मीडिया ने ही किया है। कांग्रेस सहित बहुत सारे केशुभाई पटेलों, सुरेश मेहताओं, प्रवीण मणियारों और प्रवीण तोगड़ियाओं, जैसे लोगों ने तो विरोध में मैदान में उतरकर मोदी को मजबूत ही किया है। अपन मोदी के आभामंडल से अभिभूत प्राणी नहीं है। फिर भी यह सब इसलिए लिख रहे हैं क्योंकि गुजरात, गुजरात की जनता और उस जनता के गुजरात प्रेम की तासीर से अपन वाकिफ हैं। पिछले चुनाव में भी गुजरात में मीडिया मोदी का कांग्रेस से भी बड़ा दुश्मन बना हुआ था। लेकिन क्या हुआ। इस बार भी मोदी के खिलाफ कांग्रेस से भी बड़े शत्रु के रूप में मीडिया मैदान में है। लेकिन हर मैदान की मुश्किल यह है कि बिना धूल के वह बन नहीं पाता। और गुजरात के इस मैदान की मुश्किल यह है कि उसकी धूल को चाटना मोदी विरोधियों के खाते में ही लिखा है। सो, कुछ दिन बाद गुजरात में मीडिया एक बार फिर धूल चाटता दिखे, तो इसमें तो आप भी क्या कर सकते हैं। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)

Sunday, November 11, 2012

राजनीति कीचड़ नहीं है हुजूर

-निरंजन परिहार-

राजनीति कीचड़ है। हमारे हिंदुस्तान में तो कम से कम यही कहा जाता है। पर, बाकी देशों में ऐसा नहीं है। वहां राजनीति देश चलाने का माध्यम है। समाज को संवारने का साधन है। और अर्थव्यवस्था के आधार का नाम है। है तो हमारे यहां भी ऐसा ही। फिर भी हमारे देश में राजनीति को कीचड़ क्यों कहा जाता है। यह अपनी समझ से परे है। अपन ने तो समझ संभाली तब से ही अपने इधर और उधर, दोनों तरफ के परिवार को राजनीति में ही पाया। बाबूजी मंत्री थे। जो पिताजी हैं, वे तो अपन जब जन्मे, तब भी गोरक्षा आंदोलन के लिए जेल में ही थे। मामा लोग भी कोई कांग्रेस तो कोई बीजेपी की सरकारों में मंत्री - संत्री रहे ही हैं और हैं भी। पर, राजनीति का दर्प और अहंकार अपने को छू भी नहीं पाया। पर, एक दिन समझ में आया कि कीचड़ तो असल में हमारे दिमाग में है। अचानक लगा कि दिमाग अगर ठीक ठाक है, तो कीचड़ को भी जिंदगी के सबसे चमकदार रास्ते में तब्दील किया जा सकता है। लेकिन गंदगी अगर दिमाग में ही है तो, बाहर भी आपको गंदगी के अलावा कुछ भी नहीं दिखेगा। अपनी तो खैर कोई औकात ही नहीं है। पर, सोनिया गांधी से बड़ा राजनीतिक परिवार तो इस देश में और कोई नहीं है।
सोनिया ने एक भरपूर गृहस्थी का जीवन जिया। जब तक घर में रही, सारे लोग उनकी तारीफ करते रहे। कहते रहे कि विदेशी होने के बावजूद एक बहू, पत्नी और मां होने के मामले में सोनिया गांधी ने भारतीय मूल्यों, संस्कारों और आदर्शों पर कभी कोई आंच नहीं आने दी। एक आज्ञाकारी बहू के तौर पर तो देवरानी मेनका गांधी के मुकाबले भारतीय समाज ने सोनिया को ज्यादा मान्यता दी। देश ने उनको एक बेहद आदर्श बहु का सम्मान दिया। लेकिन पति राजीव गांधी की हत्या के बाद बूढ़े कांग्रेसियों ने अनाथ बच्चों की तरह सोनिया के समक्ष विलाप किया। पूरी कांग्रेस ने मिन्नतें की। हाथ – पांव जोड़े। तो, आधे मन और अधूरी इच्छाओं के साथ जैसे ही वे जैसे ही राजनीति में आई, उन पर गो हत्या से लेकर दलाली तक में मददगार होने के आरोप लगने लगे। किसी के पास कोई प्रमाण नहीं, फिर भी उनको मांसाहारी बताकर देश के एक वर्ग से उनको काटने की कोशिशे की जाने लगीं। और सच तो यह है कि सोनिया गांधी को मांसाहारी बताकर अछूत साबित करने की कोशिश हमारे समाज का वह वर्ग कर रहा था, जो उन दिनों की घनघोर मांसाहारी बिपाषाओं, सुष्मिताओं, माधुरियों की जवानी को जीने के सपने दिन में भी देखता रहता था। सोनिया गांधी अगर सिर्फ एक विधवा बनी रहती। गूंगी गुड़िया बनकर चुपचाप घर में ही बैठी रहती। राजीव गांधी ट्रस्ट चलाकर करोड़ों का दान और चंदा लेती। तो किसी को कोई आपत्ति नहीं होती। कोई इल्जाम नहीं लगता। लेकिन वे राजनीति में आईं। पुरुषों की कृपा से मिली कुर्सी की परंपरा को तोड़कर ताकतवर बनीं। तो सबको मिर्ची लगने लगी। सोनिया गांधी तो एक उदाहरण हैं। लेकिन राजनीति में ऐसा ही होता है। और यह इसलिए होता है, क्योंकि राजनीति में ताकत है। क्षमता है। ग्लैमर है। और इस सबके अलावा राजनीति देश की सत्ता पर आसीन होने के राजपथ का नाम है। जो लोग इस राजपथ पर चल नहीं पाते, वे जलते हैं। चिढ़ते हैं। कुढ़ते हैं। और राजनीति को कीचड़ कहते हैं। कहनेवाले कहते रहें। पर, यह तो आपको भी मानना ही पड़ेगा कि राजनीति को कीचड़ कहनेवाले लोगों के जीवन और दिमाग में कीचड़ है। है कि नहीं ?

सियासत की सांसत का स्वामी


-निरंजन परिहार-

सुब्रमण्यम स्वामी एक बार फिर मुख्यधारा में हैं। भारतीय राजनीति में वे रह रहकर प्रकट होते रहे हैं। और जिन वजहों से प्रकट होते हैं, उन्ही वजहों से अचानक अंतर्धान भी हो जाते हैं। भारतीय राजनीति के पटल पर प्रकट हो-होकर अंतर्धान हो जाने के अनेक किस्से उनके खाते में दर्ज हैं। फिलहाल स्वामी ने कांग्रेस की नाक में दम कर रखा है। उनकी बातों में बहुत दम है। और दम तो उनमें भी को कम नहीं है। वैसे, बेदम वे कभी रहे नहीं। भारतीय राजनीति में उनने अच्छे अच्छों का दम निकाला है। और उनको देखते ही कईयों का दम निकल जाता है, यह भी सभी जानते हैं। दम देना और दम निकालना उनकी फितरत का हिस्सा है।
स्वामी जब किसी का दम निकाल रहे होते हैं, तो अकसर कई दूसरे उनके दम पर पहलवान बन रहे होते हैं। कांग्रेस पार्टी, सोनिया गांधी और राहुल गांधी के बारे में स्वामी के ताजा विस्फोट से कांग्रेस भले ही बेदम हो रही हो। पर, इस माहौल ने दूसरे दलों के कई नेताओं के लिए ताकत का काम किया है। ऐसा असकर होता है, और दुनिया के सबसे सबल लोकतंत्र के अनेक दुर्बल नेता स्वामी की सांसों में अपनी संजीवनी की तलाश करते हैं। इस बार भी कुछ कुछ ऐसा ही हो रहा है। वैसे तो राजनीति में कौन किसका भरोसा करता है ! पर, सुब्रमण्यम स्वामी के जीवन के इतिहास के पन्ने उलटकर देखें, तो पूरे जनम में जिसने किसी पर भरोसा नहीं किया हो, स्वामी उसका भी भरोसा जीतने का माद्दा रखते हैं। भरोसा जीतने में उनका कोई सानी नहीं है। फिर उस मिले हुए भरोसे के साथ दगा करने में भी उनकी बराबरी का कोई आज तक पैदा नहीं हुआ। और ना ही होगा, यह अपना दावा हैं। दावा इसलिए, क्योंकि स्वामी की जन्म कुंडली अपन जानते हैं। लेकिन समय समय पर सियासत को सांसत में डालने वाले स्वामी के बारे यह सब जानने से पहले, आईए थोड़ा उनकी जिंदगी की जड़ों को जान लें। जन्म से तमिल ब्राह्मण और कर्म से राजनीतिक सुब्रमण्यम स्वामी के जैसा परम पढ़ा लिखा और चरम विद्वान भारतीय राजनीति में दूसरा है, यह अपन नहीं जानते। चेन्नई के पास मयलापुर में 1939 को जन्मे स्वामी हार्वर्ड में पढ़े हैं, और वहीं पढ़ाते भी रहे हैं। पता नहीं कितने विषयों पर पीएचडी करके डॉक्टरेट की उपाधीधारी यह स्वामी कुछ दिन पहले तक, जब भारत में खाली होता था, तो हार्वर्ड में पढ़ाते हुए पाया जाता था। बात अपन भरोसे की कर रहे थे। तो, राजनीति के इस स्वामी पर भरोसा किया भी जा सकता है और नहीं भी। वैसे भी राजनीति में लोग अपनी सुविधा, संभावना और सियासत के समीकरण देखकर ही भरोसा किया करते हैं। भारतीय राजनीति में ऐसे बहुत सारे लोग हैं, जो सुब्रमण्यम स्वामी की जिंदगी का हिस्सा रहे। और बहुत सारे ऐसे भी हैं जिन्होंने स्वामी की जिंदगी से उधार ली हुई जमीन पर अपनी राजनीति के महल बनाए। इनमें से बहुत सारे लोग अब स्वर्ग सिधार चुके हैं। लेकिन जो जिंदा हैं, उनको स्वामी के सुलभ सियासी सन्मार्ग का दुर्लभ गवाह कहा जा सकता है। हमारी राजनीति में सुब्रमण्यम स्वामी क्या चीज है। यह स्वामी की सियासत से भी ज्यादा जटिल सवाल है। पर, फिर भी स्वामी को समझने के लिए उनके कुछ किस्सों और कहानियों के हिस्सों को जीना ज्यादा जरूरी हो जाता है।
कभी वे दीनदयाल शोध संस्थान के सबसे समर्पित पदाधिकारी थे। रोजाना संघ का शाखाओं में जाकर नियमित रूप से ‘नमस्ते सदा वत्सले’ का राग आलापते थे। पर, आज डॉ. स्वामी से आप कोई सीधा सवाल कर लिजिए। सवाल के जवाब में आपको उल्टा सवाल सुनने को मिलेगा – क्या संघ परिवार से आए हो। बात कोई सन 75 के आसपास की है। यह वो जमाना था, जब अटल बिहारी वाजपेयी जनसंघ के पर्यायवाची कहलाते थे। लेकिन पता नहीं क्या करके, डॉ. स्वामी ने संघ परिवार के मुखिया नानाजी देशमुख का भरोसा इस कदर जीत लिया कि उनको लगने लगा कि बिजली से भी तेज चमकदार दिमाग और विलक्षण बुद्धि वाला यह आदमी तब के सबसे लोकप्रिय नेता वाजपेयी का पर्याय सकता है। बाद में तो, वाजपेयी की सलाह के विपरीत नानाजी ने जनसंघ के टिकट पर स्वामी को राज्यसभा में भी भेजा। लेकिन बाद में रिश्तों के बदलने की कहानी जानने के लिए यह जानना सबसे जरूरी है कि जनता पार्टी की सरकार में जब स्वामी को जगह नहीं मिली, तो वे नानाजी देशमुख के पक्के दुश्मन बन गए। और उसके बाद डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी उन नानाजी देशमुख को मनुष्य के तौर पर स्वीकारने के लिए कभी तैयार नहीं हुए, जिनकी कभी वे रोज सुबह चरण वंदना किया करते थे। जिन मोरारजी देसाई को स्वामी रोज सुबह गालियां देते थे, बाद में उनके कांति देसाई से दोस्ती करके स्वामी मोरारजी के संकटमोचक के रूप में भी उभरे। स्वामी कर्नाटक के सीएम बनना चाहते थे। पर, चंद्रशेखर ने अपने सखा रामकृष्ण हेगड़े को साएम बनवा दिया। इसके बाद के अखबारों में स्वामी ने चंद्रशेखर को द्वापर के कंस और त्रेतायुग के रावण जैसे राक्षस की पदवी से भी नवाजा। लेकिन बाद में पता नहीं कैसे अचानक वे चंद्रशेखर के दोस्त भी बने और उनकी सरकार में दमदार मंत्री भी रहे। पर, फिर रिश्तों ने पलटी खाई और स्वामी ने चंद्रशेखर की पूरी की पूरी जनता पार्टी को ही हड़पकर उसके चुनाव चिन्ह तक को अपने नाम करा डाला। मोरारजी देसाई की सरकार के डांवाडोल होने पर जगजीवनराम को पीएम बनवाने के लिए करामाती स्वामी तब के सबसे तगड़े दावेदार चौधरी चरणसिंह के विरोध में सक्रिय हुए। पर, राष्ट्रपति भवन से बुलावा चरणसिंह को ही आया। तो, प्रधानमंत्री चरणसिंह के बेटे अजितसिंह को साधकर पीएम हाउस को अपना घर बना लिया और राज्यसभा के लिए लोकदल का टिकट भी पा लिया। स्वामी से रिश्तों के बदलते रंगों की गवाह जयललिता भी रही हैं। एक जमाने में स्वामी उनके पक्के दोस्त हुआ करते थे। पर, रिश्तों की इस डोर में पता नहीं कैसै गांठ पड़ गई कि बाद के दिनों में काफी अर्से तक स्वामी चेन्नई में जयललिता के खिलाफ हर हफ्ते प्रेस कांफ्रेस करके उनकी पोल खोलते नजर आते रहे। लेकिन ताजा हालात यह है कि जयललिता से दुश्मनी जारी रखने से उनका मोहभंग हो चुका है और दुश्मनी के रास्तों के बीच से दोस्ती का दरिया बहाने में स्वामी माहिर हैं सो, अब वे फिर जयललिता के पाले में हैं। पर कब तक, यह तो भगवान भी नहीं बता सकता। स्वामी एक जमाने में कांग्रेस में ना होकर भी कांग्रेस के प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव का भरोसा जीतकर उनकी सरकार में केबीनेट मंत्री का दर्जा लेकर सरकार के अंग थे। उनकी असली ख्याति नरसिंह राव के संकट मोचक और राजीव गांधी के दोस्त की रही है। पर, अब उसी कांग्रेस पर निशाना साधने के साथ राजीव गांधी की पत्नी सोनिया गांधी और बेटे राहुल गांधी को संकट में डालने में उनको बहुत मजा आ रहा है। सुब्रमण्यम स्वामी ऐसे ही है। हमारी राजनीति में स्वामी को भले ही आरोपों का आविष्कार करनेवाले राजनेता के रूप में जाना जाता हो। पर, सत्य को हर तरह के तथ्य के साथ पेश करने के उनके अंदाज भी बहुत अलग हुआ करते हैं। यही वजह है कि राजनेताओं पर भरोसे के इस भयंकर दावानल के बीच अब भी इस देश में सुब्रमण्यम स्वामी पर भरोसा करनेवालों की कमी नहीं है। भरोसा नहीं हो तो, कुछ दिन रुक जाइए। आप और हम सारे जिंदा रहेंगे। सुब्रमण्यम स्वामी भी रहेंगे। और, अपन फिर बताएंगे कि ये देखिए फिर पूरा देश स्वामी पर भरोसा कर रहा है। भले ही कांग्रेस, उसकी अध्यक्ष सोनिया गांधी और महासचिव राहुल गांधी अपने पर स्वामी द्वारा लगाए गए आरोपों पर कितनी भी सफाई दें। पर, भरोसा तो अब भी लोग राजनीति के भवसागर में कइयों का भव बिगाड़नेवाले स्वामी पर ही कर रहे हैं। अपना मानना है कि हमारी राजनीति में सुब्रमण्यम स्वामी उस अत्यंत दुर्लभ प्रजाति के प्राणी हैं। जिन पर भरोसा किए बिना छुटकारा नहीं है। यह सरकारों की मजबूरी है कि स्वामी की सियासत से कभी सरकार की सांसें फूलने लगती हैं, तो कभी सरकार उनकी सांसों में संजीवनी तलाशती भी नजर आती हैं। उनके ब्लॉग पर गीता में भगवान श्रीकृष्ण का अर्जुन को दिया उपदेश लिखा है – ‘या तो तू युद्ध में मारा जाकर स्वर्ग को प्राप्त होगा। अथवा संग्राम में विजयी होकर पृथ्वी का राज्य भोगेगा। इसलिए हे अर्जुन, तू युद्ध के लिए निश्चय करके खड़ा हो जा।’ स्वामी इसी से सीख लेकर एक योद्धा की तरह खड़े रहे हैं। पहले भी, आज भी, हमेशा। (लेखक जाने माने राजनीतिक विश्लेषक हैं)