Wednesday, December 26, 2012

मुश्किल मुकाम पर मोदी


-निरंजन परिहार-

नरेंद्र मोदी एक बार फिर अपने मुकाम पर हैं। खुद चुनाव जीतकर तीसरी बार और नंबर के हिसाब से चौथी बार सीएम बन गए हैं। सीएम भले ही वे सिर्फ गुजरात के बने हैं, लेकिन देश के किसी भी प्रदेश के सीएम के मुकाबले वे ज्यादा ऊंचे सीएम लगते हैं। नंबर वन सीएम। 26 दिसंबर, 2012 को बुधवार के दिन उनके शपथ ग्रहण समारोह के जलवे से तो कमसे कम ऐसा ही लगा। पर, आगे भी उनका यह जलवा जोरदार रहेगा, या शानदार सफल होगा, यह राम जाने।

राम इसलिए, क्योंकि हमारे देश में ऐसे चमत्कारी लोगों का भविष्य अकसर भगवान ही जानता है। और नरेंद्र मोदी तो अपने आप में किसी चमत्कार से कम नहीं है, उनकी काम करने की शैली से लेकर समन्वय न रखने के अपने शौक तक, हर मामले में वे चमत्कारी अंदाज से जीते हैं, सो कुछ भी हो सकता है। अशोक गहलोत भले आदमी हैं। अभी तो खैर दूसरी बार राजस्थान के सीएम हैं, पर जब 1998 से लेकर 2003 तक पहली पारी में राजस्थान से सूबेदार थे, तो वे देश के नंबर वन सीएम कहलाते थे। देश के कई मीडिया संस्थानों ने तो बाकायदा अपनी रेडिंग में उनको पहले नंबर पर खड़ा किया था। लेकिन 2003 के चुनाव में बीजेपी ने कांग्रेस को धूल चटा दी। सो, राजनीति में नंबर मायने नहीं रखते। आंकडों का असर अहमियत रखता होता, तो राहुल गांधी तो देश के नंबर वन युवा नेता हैं। फिर हर जगह फिसड्डी क्यों है।

खैर, मामला मोदी को है और मोदी फिर सीएम हैं। अहमदाबाद के नवरंगपुरा के एक लाख लोगों की क्षमता वाले सरदार पटेल स्टेड़ियम में बुधवार को उनके शपथ ग्रहण समारोह में जयललिता से लेकर राज ठाकरे, उद्धव ठाकरे से लेकर विवेक ओबरॉय और सुब्रत रॉय सहारा से लेकर प्रकाश सिंह बादल जैसे भांति भांति के लोग भांति भांति के प्रदेशों से आए थे। नहीं आए, तो सिर्फ नीतिश कुमार, जिनको बिहार में तो बीजेपी के कंधों पर सवार होकर सरकार चलाना सुहाता है, और नरेंद्र मोदी से अपनी तुलना भी उन्हें भाती है। लेकिन मोदी की बराबरी में खड़े होने की उनकी कोशिश ऐसी फ्लॉप रही कि अब मोदी से मुंह चुरा रहे हैं, शायद इसीलिए नहीं आए। या यह भी हो सकता है कि मोदी ने उनको बुलाया ही ना हो, जैसी की मोदी की फितरत है। राजस्थान से मोदी के सखा और विश्वस्त राजनीतिक सलाहकार ओमप्रकाश माथुर और प्रदेश अध्यक्ष अरुण चतुर्वेदी के अलावा महारानी साहिबा वसुंधरा राजे भी वहां थीं। पूरी की पूरी बीजेपी तो अपने भूतपूर्व लौहपुरुष लालकृष्ण आडवाणी की अगुवाई में उपस्थित थी ही।

मोदी का सीएम बनना संघ परिवार के लिए खुशी का विषय होना चाहिए। क्योंकि मोदी संघ परिवार के रहे हैं। केशुभाई पटेल बनते तो वे भी संघ परिवार के हैं। और अल्लाह के करम से सरकार अगर कांग्रेस की आ जाती, तो शंकरसिंह वाघेला ही सीएम बनते। वे भी संघ परिवार के ही रहे हैं। लेकिन संघ परिवार के लिए यह चिंतन का कम और चिंता का विषय ज्यादा है। क्योंकि मोदी उसकी इच्छा के खिलाफ अपने मुकाम पर हैं। फिर संघ परिवार की तो सबसे बड़ी मुश्किल यह भी है कि मोदी के मुकाबले वह किसी भी और को गुजरात में खड़ा तक नहीं कर पाया है। उधर बीजेपी के लिए भी सबसे बड़ी मुश्किल यही है कि मोदी अगर देश की राजनीति करने के लिए गुजरात से आगे बढ़ते हैं, तो पीछे कौन संभालेगा। मध्य प्रदेश छोड़कर अर्जुनसिंह जब देश की सेवा करने दिल्ली आ गए, तो भले ही दिग्विजय सिंह ने कुछ वक्त काम संभाला। पर, बाद में वहां कांग्रेस पानी मांगने लायक भी नहीं रही। कोई आश्चर्य नहीं कि शिवराज सिंह फिर कहीं अगली बार भी मध्य प्रदेश में कांग्रेस को धूल चटा दें।

वैसे, सच यह भी है कि हमारे देश में मोदी जैसे बहुत कम राजनेता हुए हैं, जो केंद्रीय राजनीति की मुख्यधारा में तो नहीं हैं, लेकिन केंद्रीय राजनीति उन्हीं के केंद्र में रहती है। वे गोधरा के खलनायक हैं मगर कुल मिला कर हिंदुओं के बीच बहुत भले आदमी के रूप में उनकी ख्याति है। और बहुत मजबूत मुख्यमंत्री के रूप में भी वे ही सबके बीच जाने जाते हैं। बहुत कम लोग जानते हैं कि कभी सहज मनुष्य की तरह जीनेवाले नरेंद्र मोदी अब कुछ शौकीन भी हो गए हैं। संघ के स्वयंसेवकों की तरह नरेंद्र मोदी, जो मिल गया उसी को मुकद्दर समझ लिया वाले मामले में यकीन नहीं करते। वे अब रेशमी कपड़े पहनते हैं, महंगे मोबाइल फोन पर बात करते हैं और बहुत आला किस्म के लैपटॉप अपने पास रखते हैं। अपन ने स्वर्गीय प्रमोद महाजन को बहुत करीब से देखा है। सो, कह सकते हैं कि मोदी ने काफी कुछ महाजन की तरह ही राजनीति में अपनी जलवेदार जगह खुद बनाई है। वे किसी की मेहरबानियों के मोहताज नहीं हैं। मोदी ने घरद्वार छोड़ा, पत्नी की शक्ल तो खैर बहुत सालों बाद दुश्मनों की दया से शायद अखबारों या टीवी पर ही देखी होगी। संघ परिवार के निर्देश पर ही राजनीति में आए और पहले गुजरात और फिर देश में बीजेपी के महासचिव बन कर उन्होंने आधार और रणनीति दोनों अर्जित किए।

अपन कोई नरेंद्र मोदी से बहुत अभिभूत नहीं है। और न ही उनकी राजनीति के कायल हैं। लेकिन इतना जरूर है कि उनके जैसे मुख्यमंत्री हमारे देश में बहुत आसानी से पैदा नहीं होते। यह सोलह आने सच है कि आनेवाले कुछ समय में अगर बीजेपी सत्ता में आई तो नरेंद्र मोदी ही देश के प्रधानमंत्री बनेंगे। अपन यह नहीं कह रहे कि वे बन सकते हैं। बल्कि यह कह रहे हैं कि बनेंगे ही। इस निष्कर्ष से बहुतों को ऐतराज हो सकता है। कुछ को मिर्ची भी लग सकती है। लेकिन जिनको ऐतराज है, वे भी आखिर इस सच को तो किनारे कर ही नहीं सकते। और जिनको मोदी के देश का प्रधानमंत्री बनने की संभावनाओं से मिर्ची लग रही है, उनके कहने से अमर सिंह जोकर से दार्शनिक नहीं हो जाएंगे और अब्दुल करीम तेलगी कोई धर्मराज का अवतार नहीं बन जाएगा। जिनको मोदी के मामले में अपनी बात पर ऐतराज है, वे यह मानकर अपना कलेजा ठंड़ा कर सकते हैं कि राजनैतिक रूप से भरी जवानी में मोदी प्रधानमंत्री नहीं बन पाएंगे। बासठ साल के वे हो चुके हैं, और अगले चुनाव में बीजेपी या उसके मोर्चे की सरकार बनेगी ही, इसकी फिलहाल तो कोई गारंटी नहीं है।

आज की तारीख में बीजेपी में अगर कोई जननेता है तो अपनी आधी अधूरी उपस्थिति के बावजूद नंबर वन पर बैठे अटल बिहारी वाजपेयी के बाद नरेंद्र मोदी का ही नाम लिया जा सकता है। वैसे लाल कृष्ण आडवाणी भी हैं। पर, वाजपेयी के अलावा मोदी की ही सभाओं में लाखों की भीड़ होती है और भले ही मोदी वाजपेयी की तरह कोई बहुत सहज और लोकलुभावन वक्ता नहीं हैं, लेकिन भीड़ को बांध कर रखना उन्हें आता है। मुहावरे वे गढ़ लेते हैं, और श्रोताओं की भावना का खयाल रखते हुए जरूरत होती है, उनकी ही भाषा भी बोलने लग जाते हैं। वे अपने पर लगाए गए आरोपों पर शर्मिंदा नजर नहीं आते। उल्टे वे उन आरोपों को शान से स्वीकारते हैं। और पूरी ताकत के साथ उन्हीं को तीर बनाकर उन्हीं से सामनेवाले को परास्त भी कर देते हैं। गुजरात के अब तक के सारे चुनावों में दुनिया ने मोदी को यह करिश्मा करते भी देखा है। और कांग्रेस को घायल होते भी। गुजरात ही नहीं देश भर की जनता इसीलिए उनकी कायल है। लोग उनकी इसी काबीलियत की वजह से ही प्रधानमंत्री के रूप में उनको देखने को ललायित है।

फिर भी अपना तो यह तक मानना है कि मोदी को रोकने के लिए बहुत सारे लोग और बहुत सारी पार्टियां अपना बहुत सारा जोर लगाकर हमारे देश में रह रहे बहुत सारे मुसलमानों को मोदी से बहुत सारा डराएंगे। पर, इस बात से हमारे देश के मुसलमानों को डरने की कोई जरूरत नहीं है कि मोदी आएंगे तो देश से मुसलमानों का सफाया कर देंगे। उनका पर्सनल लॉ खत्म कर देंगे और धारा 370 खत्म करके जरूरी हुआ तो कश्मीर में अनिश्चितकालीन आपातकाल लगा देंगे। यह हिंदुस्तान है। हमारा लोकतंत्र इतना बालिग हो चुका है कि वह अगर किसी को सिर पर बिठाता है तो गर्दन को झटका देने का विकल्प भी मौजूद रखता है। मोदी यह जानते हैं, और यह मानते भी है कि इतने बड़े देश में सिर्फ हिंदुत्व के बूते पर शासन मुमकिन नहीं है। क्योंकि भारत, नेपाल नहीं है। और अब तो खैर, नेपाल भी नेपाल नहीं रहा। तो फिर हमारे यहां यह सब कैसे चल सकता है, यह मोदी भी जानते ही हैं।

अब मोदी ने जो यह राष्ट्रीय फलक अर्जित कर लिया है, वहां संघ का उनके मामले में क्या फैसला होगा। यह सबसे बड़ा सवाल है। पर, इससे भी बड़ा सवाल यह है कि मोदी के कद का बीजेपी में दूसरा है कौन, जिसके बारे में सोचा जा सकता हो। रही कद की बात, तो राजनीति में खींच खांच कर किसी के राजनीतिक कद को लंबा नहीं किया जा सकता। वहां कद सिर्फ अपने कर्मों से बना करते हैं। और मोदी ने औरों के मुकाबले ज्यादा ऊंचे कद के काम तो किए ही हैं। लेकिन कद के बारे में सबसे बड़ा सच यह भी है कि वह जब कुछ ज्यादा ही लंबा हो जाता है, तो वह दूसरों के लिए कम और खुद के लिए ज्यादा मुसीबतें खड़ी करता है। मोदी की मुसीबत भी यही है। यह सही है कि चौथी बार सीएम बनकर नरेंद्र मोदी अपने मुकाम पर हैं। पर, यह मुकाम बहुत मुश्किल है, यह भी सही है। (लेखक राजनीतिक विश्लेषक और 'प्राइम टाइम' के संपादक हैं)

Thursday, December 20, 2012

सीपी, गिरिजा, गहलोत और एक अदद एहसान फरामोश !

-निरंजन परिहार-

सीपी जोशी राजनीतिक रूप से बहुत समझदार हैं। परिपक्व हैं और दूरदर्शी भी। वे बहुत बड़ी कांग्रेस के बड़े नेता हैं। और राजस्थान में वे बाकी कांग्रेसियों के मुकाबले बहुत दमदार हैं। जो लोग यह मानते हैं, उनको अपनी सलाह है कि वे अपना राजनीतिक ज्ञान जरा दुरुस्त कर लें। कांग्रेस बहुत बड़ी पार्टी है। इतिहास देखें, तो कांग्रेस में सीपी जोशी जैसे छप्पन सौ चार आए और चले भी गए। कांग्रेस के पन्नों पर उनका कोई नामोनिशान नहीं। फिर देश तो और भी बड़ा है।
हमारे देश के राजनेताओं की सूची देखें, तो दिल पर हाथ रखकर ईमानदारी से आप खुद से भी पूछेंगे, तो सीपी जोशी जैसे लोगों का कम से कम देश की राजनीति में तो कोई भी स्थान नहीं है। फिर भी अशोक गहलोत की मेहरबानियों और कांग्रेस की कमजोर राजनीतिक रणनीतियों की वजह से वे केंद्र की सरकार में मंत्री हैं। यह भी सभी जानते ही हैं। वरना, समूचा राजस्थान तो बहुत दूर की बात है, सिर्फ मेवाड़ की राजनीति में भी सीपी जोशी के मुकाबले गिरिजा व्यास बहुत भारी नेता है। देश भर में उनका सम्मान है। पूरे देश में लोग गिरिजा व्यास को जानते हैं। उनकी राजनीति को मानते हैं। लोगों के लिए उनके किए पर कार्यों पर सीना तानते हैं। महिलाओं के मामले में गिरिजा व्यास ने जो काम किए हैं, उन पर पूरी कांग्रेस ही नहीं देश भर की महिलाओं को नाज है। राज्य और केंद्र में मंत्री रहने के अलावा महिला कांग्रेस, राजस्थान कांग्रेस और महिला आयोग की अध्यक्ष जैसे कई पदों पर रहकर गिरिजा व्यास देश भर में छा गई। लोगों को भा गई। इसीलिए फिर संसद में भी आ गई। गिरिजा व्यास के लिए यह सब एक राजनीतिक सफर का हिस्सा है। इसीलिए, उन्होंने कभी अभिमान नहीं किया। लेकिन सीपी जोशी को तो जुम्मा जुम्मा साढ़े तीन साल हुए हैं, संसद में पहुंचे हुए और उनका घमंड देखा हो, तो बाप रे...। मुंहफट तो वे पहले भी कोई कम नहीं थे। किसी की भी इज्जत, ऊम्र और रुतबे का खयाल किए बिना क्या क्या बोल लेते हैं, यह जालौर – सिरोही के हमारे सांसद देवजी पटेल से ज्यादा कौन जानता है। वैसे, अपन मानते हैं कि सीपी जोशी कोई ढक्कन आदमी नहीं, पढ़े लिखे हैं। और वे जानकार भी हैं। पर, यह भी जानते हैं कि जानकारी और समझदारी के बीच रिश्तों की डोर बहुत नाजुक हुआ करती है। सीपी जोशी अगर यह जान गए होते, तो आज बड़े नेता होते। यही वजह है कि गिरिजा व्यास और सीपी जोशी के बीच लोकप्रियता की थोड़े फिल्मी अंदाज में व्याख्या करें, तो दोनों के बीच फासला हेमामालिनी और धनुष जितना है। धनुष वही, रजनीकांत के दामाद। जो, सिर्फ एक ‘कोलावरी डी’ गाकर बहुत हिट भले ही हो गए, पर अब कहां है। गिरिजा व्यास चाहे देश में कहीं भी चली जाएं, लोग उनको जानते हैं। लेकिन देश की सरकार में कई लोग ऐसे भी हैं, जो कहीं दौरे पर पहुंचते हैं, तो उनके स्वागत में आए लोग उनके बजाय साथ आए लोगों के गले में ही माला पहना देते हैं। हमारे सीपी जोशी का हाल भी कुछ कुछ ऐसा ही है। भाई, फिर भी सीधे अशोक गहलोत को ही चुनौती देने चले हैं। गहलोत सीपी के राजनीतिक जीवन के भी निर्माता हैं। पर, संयोग से केंद्र में मंत्री हो जाने के अपने भाग्य पर इतराकर सीपी, अपने चंगुओं को आगे करके गहलोत के खिलाफ ही ताल ठोक रहे हैं। सीपी के उस चंगू के धत्कर्म पर कलम चलाकर आपके जीवन का वक्त अपन बरबाद नहीं करेंगे। लेकिन, इतना जरूर कहेंगे कि अपने राजनीतिक पिता के ही खिलाफ खड़े होने और भरी सभा में तौहीन करने की गुस्ताखी और एहसान फरामोशी की तासीर कम से कम सिरोही के पानी में तो नहीं है। (लेखक राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं )

अब मोदी में ठौर तलाश रहे हैं ठिकाने लगे हुए कांग्रेसी

-निरंजन परिहार-

जैसा कि सबको पता था, आपको हमको, और पूरे हिंदुस्तान को। हुआ वही। गुजरात में मोदी मैदान मार गए। पता तो अशोक गहलोत को भी था। सोनिया गांधी को और राहुल गांधी को भी। लेकिन फिर भी सारे के सारे गुजरात गए। बहुत सारे नेताओं को भी साथ ले गए। पता था कि हारेंगे। बुरी तरह हारेंगे। फिर भी गए। जाना पड़ता है। नहीं जाते, तो लड़ने से पहले ही हार जाते। पर, अब जब नतीजे सामने हैं, तो जो बीत गया, उसकी रामायण बांचकर इतिहास में उतरने का कोई अर्थ नहीं है। ताजा हालात यह है कि मोदी ने सारे अर्थ निरर्थक कर दिए हैं। हिमाचल में कांग्रेस हिल रही थी। लग रहा था कि लुटिया डूब भी सकती है। पर कांग्रेस जीत गई।
मोदी के दिए मातम के मुकाबले हिमाचल को देखकर हंसने और खुश होने का कांग्रेस के पास मौका है। लेकिन अपनी राजनीतिक बेवकूफियों के लिए कुख्यात उन पी चिदंबरम का क्या किया जाए, जो अंग्रेजी में ज्ञान बघारते हुए कह रहे थे कि गुजरात में हमारी सीटें पहले से ज्यादा आ रही हैं, सो हम एक तरह से वहां भी जीत रहे हैं। अजीब बेवकूफी है। देश की सरकार में बैठा इतना बड़ा मंत्री ऐसी दर्दनाक दुर्गति पर भी खुशियां मनाए, तो कांग्रेस की हालत को समझा जा सकता है। चिदंबरम की राजनीतिक बेवकूफियों पर विस्तार से कभी और बात करेंगे। आज बात सिर्फ गुजरात के चुनाव परिणाम और मोदी के जलवे पर बहुत सारे कांग्रेसियों के हाल की। आपको लग रहा होगा, कि गुजरात के इस मामले में राहुल भैया और सोनिया माता तो ठीक, पर अशोक गहलोत के जिक्र का क्या मतलब। पर, मतलब है हुजूर। क्योंकि मोदी को उत्तर गुजरात में जो मुश्किलें आईं, और उनकी सीटें भी उम्मीद से कम आईं। इसके पीछे करिश्मा अशोक गहलोत का है। गहलोत वहां कई दिनों तक जमे रहे। अपने रतन देवासी भी वहां सीएम के साथ थे। रणनीति बनाई, बिसात बिछाई, धुंआधार प्रचार किया और कांग्रेस को जिताया। सीपी जोशी भी गुजरात गए थे, टिकट बांटने। पर, जिन जिन को कांग्रेस का टिकट दिया, सारे के सारे ठिकाने लग गए। मेवाड़ के तो ठिकाने नहीं, और सीपी जोशी गुजरात में चले थे राजनीति करने। पर, ठिकाने लग गए। पर, असल मामला मोदी का है।
सवाल यह है कि मोदी तो तीसरी बार गुजरात फतह कर गए हैं। पर, आगे क्या होगा ? क्या गुजरात से निकलकर दिल्ली आएंगे? क्या देश की राजनीति में छाएंगे? क्या बीजेपी के बाकी नेताओं को भाएंगे? और क्या वे प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के रूप में आगे लाए जाएंगे? पर, असल बात यह है कि मोदी को राष्ट्रीय स्तर पर लाने की उतावली जितनी बीजेपी को नहीं है, उससे भी बहुत ज्यादा जल्दी कांग्रेसियों को है। कांग्रेस के बहुत सारे नेता चाहते हैं कि मोदी देश की राजनीति करें, ताकि उनकी दूकान चलती रहे। सीपी जोशी की तरह ही कांग्रेस के हमारे बहुत सारे नेता बड़े तो हो गए हैं, पर उनकी दुकान में कोई सामान नहीं है। कोई किसी का विरोध करके तो कोई समर्थन में खड़ा होकर दुकान में सजाने के लिए सामान जुटाने के जुगाड़ में है। भाई लोगों ने सोनिया गांधी के दिमाग में पहले ही भर दिया है कि मोदी के सामने अकेले राहुल भैया को भिड़ाना खतरे से खाली नहीं है। मोदी केंद्र में आएंगे, तो राहुल गांधी के इर्द गिर्द खड़े होने से उनकी दुकान भी चल निकलेगी। पर, व्यापार की सच्चाई यह है हुजूर, कि उधार के सामान पर धंधा करनेवालों की दुकानें जल्दी बंद भी हो जाती है। अपनी दुकान बंद हो जाने से आहत होकर भरी सभा में संयम खोनेवाले किसी बनिए से ज्यादा इस सच को और कौन समझ सकता है ! (लेखक राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं)

मुस्लिम हृदय सम्राट भी थे बाला साहेब ठाकरे !

-निरंजन परिहार-

दिलीप कुमार मुसलमान। जावेद मियांदाद मुसलमान। सलीम खान और जलील पारकर भी मुसलमान। शाहिद अली भी और सलमान खान भी मुसलमान। सलमान खान के पिता सलीम खान और भाई अरबाज खान भी मुसलमान। एपीजे अब्दुल कलाम और साबीर शेख के अलावा मकबूल फिदा हुसैन भी मुसलमान। ये सारे के सारे मुसलमान। और इंडियन मुसलिम लीग के अध्यक्ष थे सो, गुलाम मोहम्मद बनातवाला के भी मुसलमान होने के अलावा और कुछ भी होने का तो सवाल ही नहीं होता। इन्हीं बहुत सारे ख्यात और प्रख्यात मुसलमानों की तरह, और भी कई सारे कम प्रसिद्ध, प्रसिद्ध और सुप्रसिद्ध लोग, जो नाम से, रहन सहन से, जीवन से व्यवहार से, धर्म से और हर कोण से मुसलमान। कहीं से भी तलाश कर लीजिए, उनके हिंदू होने के कोई सबूत नहीं। लेकिन भारतीय राजनीति के अब तक के सबसे कट्टर करार दिए गए हिंदू हृदय सम्राट बाला साहेब ठाकरे के परम मुरीद। फिर भी अब तक हमारे देश के बहुत सारे लोगों को पता नहीं यह कैसे, क्यों और किस वजह से समझ में नहीं आया कि बाला साहेब कट्टर हिंदुवाद के पक्षधर तो कभी रहे ही नहीं। बाला साहेब नेता थे। राज करनेवालों के नेता। वे राज लाते थे, और उस पर लोगों से राज करवाते थे। फिर जो राज करते थे, उन लोगों के दिलों पर बाला साहेब राज करते थे। राजनीति की धाराओं में बहनेवाली हवाओं के रुख की दशा और दिशा कैसे बदली जाती है, यह वे अच्छी तरह से समझते थे। इसलिए राजनीति में उनको जो तगमे और बिल्ले मिले, उनका विरोध भी उनने कभी नहीं किया। स्वीकारते गए और उन तगमों और बिल्लों का कब, किस तरह, कैसे, कहां, किसके हक में कितना उपयोग किया जाना चाहिए, यह जीवन में कहीं तो उनने जान लिया था। सो, करते रहे। अपने को मिले हिंदू हृदय सम्राट के तगमे का भी उनने अपनी राजनीति को चमकाने के लिए भरपूर उपयोग किया, और मुसलमानों के कट्टर विरोधी कहे गए, तो उसका भी उनने कभी विरोध नहीं किया।
पाकिस्तान के खिलाफ बाला साहेब ने बयान दिए। एक बार तय किया तो, उसके क्रिकेटरों को मुंबई में कभी खेलने नहीं दिया। दुश्मन देश के साथ खेल का रिश्ता होना भी क्यों चाहिए। रामजन्मभूमि पर बनी बाबरी मसजिद कारसेवकों ने गिराई और बीजेपी उसकी जिम्मेदारी लेने से बच रही थी, तो बाला साहेब ने आगे आकर कहा कि अगर मेरे शिवसैनिकों ने तोड़ी है, तो मुझे उन पर गर्व है। बाला साहेब के ऐसे ही कुछेक बयानों को जीवनभर उनके खिलाफ खड़ा कर कर के उनको भले ही मुसलमान विरोधी घोषित करने के कुछ सफल और कुछ असफल प्रयत्न किए गए। लेकिन हकीकत कुछ और है। मुसलमानों और बाला साहेब के रिश्तों की कुंडली देखें तो, बाला साहेब कभी उतने कट्टर थे ही नहीं, जितना उनको दुनिया में दर्शाया गया। ये बीजेपी वाले तो बहुत बाद में बाला साहेब के गले में आकर टंग गए और गठबंधन करके सरकार में आए। पर, बहुत कम लोगों को याद होगा कि बीजेपी से बहुत पहले अपनी शिवसेना का पहला गठबंधन तो बाला साहेब ने मुसलमानों के साथ ही किया था। बात 1979 की है। शिवसेना मुंबई महानगर पालिका फतह करने की कोशिश में था। और इंडियन मुसलिम लीग चाहती थी कि शिवसेना को मदद की जाए। सो, मुसलिम लीग के अध्यक्ष गुलाम मोहम्मद बनातवाला ने बाला साहेब की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाया, और दोनों ने गठबंधन की गांठ बांधी। मुंबई के सबसे करीब मुसलमानों का एक गढ़ है – मीरा रोड़। अब तो खैर, वहां हिंदुओं की कुल आबादी मुसलमानों के मुकाबले दस गुना ज्यादा हो गई है, फिर भी पहचान मीरा रोड़ की मुख्यतः मुसलमानों से ही है। मीरा रोड़ के सबसे ताकतवर और कद्दावर नेता मुजफ्फर हुसैन की वजह से भी मीरा रोड़ को लोग जानते हैं। मीरा रोड़ में मुसलमान सबसे ज्यादा वहां के नया नगर नाम की बस्ती में ही रहते हैं। और इस बात का आपके पास तो क्या किसी के पास कोई जवाब नहीं है कि मुसलमानों की उस बस्ती के शिलान्यास समारोह की पहली शिला बाला साहेब ठाकरे के हाथों ही क्यों रखी गई थी। बाला साहेब नया नगर के शिलान्यास समारोह के मुख्य मेहमान थे। और इसके बावजूद कि भाई लोगों ने बाला साहेब की उस वक्त भी कोई कम कट्टर हिंदू नेता की पहचान नहीं बना रखी थी। मुजफ्फर हुसैन अपने दोस्त हैं। पक्के मुसलमान हैं। उनके पिता नजर हुसैन ने ही बाला साहेब को बुलाया था। नया नगर में बाला साहेब की श्रद्धांजली के बहुत बड़े बड़े होर्डिंग्ज लगे हैं। दो चार नहीं पचासों की तादाद में। उनमें शिलान्यास के पत्थर पर बाकायदा उर्दू में खुदा हुआ नाम देखते हुए बाला साहेब की तस्वीरें है। नीचे भावपूर्ण श्रद्धांजली की तहरीरें भी। बहुत सारे पोस्टर और होर्डिंग तो पूरे के पूरे उर्दू में हैं।
बाला साहेब को जीवन भर मुसलमान विरोधी करार देने वालों को अब तो कमसे कम यह समझ में आ ही जाना चाहिए कि बाला साहेब एक खालिस राजनेता थे। ना तो मुसलमानों के विरोधी और ना ही पक्षधर। जिन मुसलमानों ने देश भक्ति दिखाई तो उनकी उनने हमेशा जमकर तारीफ की और जो हिंदुस्तान में रहकर भी पकिस्तान की गाते और खाते रहे, उनका बाला साहेब ने पूरे जनम विरोध किया। पर, हमारे देश में रहकर बहुत सारे मुसलमान बहुत सारे सालों से पाकिस्तान के टुकड़ों पर पलते रहे हैं, ऐसे मुसलमानों ने तो अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए बाला साहेब की मुसलमान विरोधी छवि को हमेशा मजबूती देने के काम किया ही, कांग्रेस जैसे राजनीतिक दलों ने भी अपना वोट बैंक बनाए रखने के लिए हमेशा मुसलमानों को बाला साहेब के नाम से डराए रखा, यह भी समझ में आ जाना चाहिए। हमारे आसपास का ऊम्र से पका हुआ भरे पूरे परिवार वाला कोई बूढ़ा आदमी दुनिया से चला जाए, तो हम खुशी भले ही नहीं मनाते, पर इतना तो जरूर कहते हैं कि पूरा जीवन अच्छे से जी कर विदाई ली। लेकिन बाला साहेब के इस संसार से जाने पर बहुत सारे मुसलमान उनको याद कर रहे हैं, रो रहे हैं, श्रद्धांजली दे रहे हैं और फूल चढ़ा रहे हैं, तो कोई दिखावे के लिए नहीं कर रहे हैं। यह उनके प्रति मुसलमानों के मन में अपार श्रद्धा और सम्मान का प्रतीक है। अगर बाला साहेब मुसलमान विरोधी थे, तो उनकी मौत पर मुसलमानों में मातम क्यों है भाई। हमारे दिलीप कुमार ने ऐलान किया है कि वे अपना बर्थ डे नहीं मनाएंगे। 80 साल के हो रहे हैं। बाला साहेब और वे बहुत पक्के दोस्त थे। जब तक जिंदा थे, तो हर साल मिलते थे। सायरा बानो भी बहुत आहत हैं। कह रही थी, बाला साहेब की खबर सुनकर दिलीप साहब सदमे में हैं। पाकिस्तानी क्रिकेटर जावेद मियांदाद ने बाला साहेब कहा कि वे बहुत अच्छे आदमी थे। मेरे दोस्त थे और दोस्त के तौर पर उन्होंने घर पर बुलाया, मेरा स्वागत किया, मैं उनको कभी भी भूल नहीं सकता। मियांदाद ने उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए कहा कि पाकिस्तान में रहकर भी मैं बाला साहेब का मुरीद हूं, वे बहुत अच्छी शख्सियत के मालिक थे। जलील पारकर उस डॉक्टर का नाम है, जिन्होंने बाला साहेब का इलाज किया। बरसों तक सेवा की। और तो और 17 नवंबर 2012 की दोपहर 3. 33 पर उनकी मौत होने की घोषणा भी ठाकरे खानदान के किसी सदस्य ने नहीं, बल्कि जलील पारकर ने ही की। हिंदू हृदय सम्राट की अंतिम यात्रा की सवारी का वाहक था शाहिद अली, जो फूलों से सजी शैया पर सोए बाला साहेब के ट्रक को मातोश्री से चलाकर शिवाजी पार्क तक ले गया। शाहिद को बाला साहेब का आखरी ड्राइवर कहा जा सकता है। साबीर शेख अंबरनाथ से विधायक के रूप में शिवसेना से चुनकर आए थे। बाला साहेब ने उनको मंत्री भी बनाया। एपीजे अब्दुल कलाम को राष्ट्रपति बनाने में मदद से लेकर बाद में भी उनके प्रति बाला साहेब का स्नेह हमेशा उमड़ता रहा। मकबू फिदा हुसैन जब तक जिए, बाला साहेब के प्रति आभार जताते रहे। सलमान खान और अरबाज खान तो अपने लेखक पिता सलीम खान के लेकर बीमार बाला साहेब से मिलने पहंचे थे, यह सबने देखा ही था। सैयद मुजफ्फर हुसैन के पिता नजर हुसैन ही बाला साहेब को बुलाकर नया नगर के शिलान्यास पर बनातवाला को साथ लेकर गए थे। ये कुछ मुसलमान तो मिसरे हैं, बाला साहेब के मुरीद मुसलमानों की फहरिस्त बहुत लंबी है। अपन तो इसलिए भी नहीं लिख रहे हैं क्योंकि बहुत सारे चेहरों से उनकी धर्मनिरपेक्षता के नकाब उतर जाएंगे। जो लोग अपने आपको कुछ ज्यादा ही मुसलमान मानते हैं, वे बाला साहेब के इन मुरीद मुसलमानों को काफिर भी कह सकते हैं, यह उनका हक है। लेकिन उनके ऐसा कहने भर से इन सबके मुसलमान होने में कुछ भी कम नहीं हो जाएगा। अपना मानना है कि बाला साहेब को कट्टर हिंदुत्व का सरदार कहनेवालों को कम से कम अब तो अपनी इस उपमा के अर्थ की नए सिरे से व्याख्या करने और समझने की जरूरत महसूस होनी चाहिए। या फिर जरा इस सवाल का जवाब दीजिए कि ठाकरे कहां से मुसलमानों के कट्टर विरोधी थे भाईजान, जरा बताइए तो सही! (लेखक निरंजन परिहार राजनीतिक विश्लेषक और जाने माने पत्रकार हैं)