Friday, September 13, 2013

आत्मा के उत्सर्ग का महापर्व है क्षमापना

-राष्ट्रसंत आचार्य श्री चंद्रानन सागर सूरीश्वर महाराज-
मानव जीवन सबसे अनमोल है। इसे व्यर्थ में जाने देना सबसे बड़ी भूल है। इसलिए हर पल हमें जीवन को सार्थक बनाने के प्रयास में लगे रहना चाहिए। यह प्रयास अगर जीवन के शुद्धिकरण से हो, तो जीवन की सार्थकता शीग्र फलित होती है। लेकिन यह सब तभी होगा, जब हमारे जीवन में शुद्धता, शुचिता और शुभ्र आचरण का स्थान सर्वोपरि होगा। क्योंकि ये ही हमारे जीवन धर्म के सबसे आवश्यक अंग हैं। इनके बिना जीवन निरर्थक है। जीवन में अनेक अवसर ऐसे आते हैं, जो हमें अकसर भटकाव की तरफ बहा ले जाते हैं। ऐसे अवसरों पर सिर्फ सांसारिक लोग ही नहीं साधु संत भी शुद्धता, शुचिता और शुभ्र आचरण की तलाश में देखे जा सकते हैं। क्योंकि इनके बिना जीवन को संयमित रखना, मन को नियंत्रित रखना और व्यवहार में सदाचार को स्थान देना आसान नहीं होता। लेकिन जीवन तभी शुद्ध होगा, जब हमारा मन शुद्ध होगा। हमारी भावना शुद्ध होगी तभी हमारी आत्मा शुद्ध होगी। आत्मा की शुद्दि का पर्व है  - पर्यूषण महापर्व।
Media Expert and Political analyst Niranjan Parihar and Praveen Shah 
presenting their Book to President Smt. Pratibha Patil at Raj Bhawan,  
Mumbai. Book was on RashtraSant ShriChandranan Sagar  
यह महापर्व है मन, भावना और आत्मा के उत्सर्ग का। जब तक मन शुद्ध नहीं होगा, हमारा जीवन कभी शुद्धता को प्राप्त नहीं हो सकता। हमारे धार्मिक ग्रंथों में कहा गया है कि क्षमा मांगना बहुत बड़ा काम है। लेकिन उससे भी बड़ा काम है क्षमा करना। हालांकि क्षमा मांगने और क्षमा करने दोनों ही के लिए मन बहुत बड़ा होना चाहिए। क्योंकि मन अगर बड़ा है, तभी हम दूसरों की भूलों को भूल सकते हैं। मानवीय जीवन का यह सबसे महान कार्य माना गया है। दूसरों की भूलों को भूल जाना जीवन की सबसे बड़ी सार्थक है, इसी में  पर्यूषण पर्व की सार्थकता है। पर्यूषण पर्व की समाप्ति पर आनेवाला क्षमापना दिवस इस महापर्व की आत्मा कहा जा सकता है।
यह मैत्री पर्व मानव धर्म की दुर्लभ विशेषताओं में से एक है। क्योंकि यह पर्व हमारी ग्रंथियों को खोलने की सीख देता है।  क्षमा मांगने वाला अपनी भूलों को स्वीकृति देता है और भविष्य में पुनः न दुहराने का संकल्प लेता है। जबकि क्षमा करने वाला बिना किसी पूर्वाग्रह या निमित्तों को सह लेता है। यह सहना भी एक तरह का तप कहा जाता है। मेरा मानना है कि क्षमा मानव जीवन का एक ऐसा ऐसा विलक्षण आधार है जो किसी को मिटाता नहीं, बल्कि स्वयं मिटकर हमारे संबंधों को सुधरने का अवसर प्रदान करता है। जो स्वयं अपना अस्तित्व समाप्त करके संबंधों को संवारे, उससे बड़ा अवसर और कोई नहीं होता। इसीलिए क्षमापना को हमारे जीवन का सबसे बड़ा पर्व यानी महापर्व माना गया है। यह दूसरों की भूल को भूलने और अपनी भूल को सुधारने का पर्व है। पर्यूषण के दौरान एक दूसरे के निकच।
महापर्व इसलिए, क्योंकि क्षमा के महत्व को हमारे जीवन के संदर्भ में परिभाषित करते हुए कहा जा सकता है कि क्षमा घने अंधेरों के बीच जुगनू की तरह चमकता एक प्रेरक जीवन मूल्य हैं। चमक उसी को प्राप्त होती जो महान होता है। लेकिन क्षमा के अभाव में मनुष्य दानव बन जाता है। हम न किसी से क्षमा मांगे, न किसी को क्षमा करें, तो क्या होगा। बैर भाव बढ़ता ही जाएगा। भीतर बी भीतर हम हमेशा आक्रोश में ही रहेंगे। तो फिर दम मनुष्य होकर भी किसी दानव से कम नहीं होंगे, क्योंकि दानव यानी राक्षसों के भीतर आक्रोष ही तो भरा रहता है। हमें अपने भीतर की दानवता का शमन करने के लिए पूरे मन और संपूर्ण समर्पण भाव से अपनी हर भूल की क्षमा मांगने और दूसरों को क्षमा करने का संकल्प करना चाहिए। क्योंकि क्षमा ही हमारे जीवन धर्म की प्रतिष्ठा का प्राण है।
धर्म की प्रतिष्ठा का यह प्राण अवस्थित है पर्यूषण महापर्व की अवधारणा में। पर्यूषण महापर्व आत्मा को शुद्ध करने का पर्व है। दरअसल, मन जब शुद्ध होता है तभी वह प्रसन्न होता है। हम जब किसी से क्षमा मांगते हैं, मिच्छामि दुक्कड़म कहते हुए विनम्रता से हाथ जोड़कर सिर झुकाते हैं, तो सामनेवाले का मन तो प्रसन्न होता ही है, हमारा भी मन खिल उठता है। मन जब खिलता है, वही पल है जब हम स्व. के सबसे ज्यादा निकट होते हैं। पर्यूषण की व्याख्या करते हुए कहा जा सकता है कि पर्यूषण का मतलब स्वयं के निकट होना है। स्वयं के निकट यानि अपने असली केंद्र की ओर लौटना। पर्यूषण दो शब्दों का मेल है। परि एवं उषण। परि का मतलब है चारों ओर सेतथा उषण का अर्थ है दाह। जिस पर्व में चारों तरफ से कर्मों का दाह यानी विनाश होता है, वह पर्यूषण है। जब हमारे हर तरह के कर्मों का शमन होता है, तभी हम स्वयं के सर्वाधिक निकट जा सकते हैं। यह आत्मा में अवस्थित होने का पर्व है।
पर्यूषण महापर्व के दौरान हमारा सारा ध्यान जीवन के सुखों के संयम पर होता है। कहा जाता है कि यह संयम जिसके जीवन में है और जो धार्मिक आचरण में रहता है, उनका देवी-देवता भी अभिनंदन करते हैं। पर्यूषण महापर्व के दौरान धार्मिक कार्यों एवं धार्मिक आचरण का ज्यादा महत्व इसलिए भी है, क्योंकि यह मानव जीवन के उत्सर्ग का सबसे महत्वपूर्ण पर्व है। जिस प्रकार वर्षा के मौसम में बरसात का पानी जमीन में प्रवेश कर भूमि को उपजाऊ व ऊर्जावान बनाता है। ठीक उसी तरह पर्यूषण महापर्व के दौरान किया गया धर्माचरण मनुष्य को पवित्रता एवं शांति का परम सुख प्रदान करता है।
इसी परम सुख प्रदान करनेवाले महापर्व के समापन का पर्व है क्षमापना। दरअसल, क्षमा में बहुत बड़ी ताकत होती है। वह सब बराबर कर देती है। हम जब क्षमा मांगते हैं, तो हमारे मन के भाव बदलने के साथ ही सामने वाले के भाव भी बदल जाते हैं। वे बदवे हुए बाव ही क्षमा मांगनेवाले को क्षमा प्रप्त करने की पात्रता से भर देते हैं। इसीलिए सामनेवाले को भी क्षमादान के लिए प्रेरित होना पड़ता है। यही प्रेरणा क्षमा मांगने वाले को तपस्वी बनाती है और क्षमा प्रदान करनेवाले को दानवीर। यही वजह है कि हमारे ग्रेंथों में बी कहा गय़ा है कि क्षमा प्रदान करने से दान बड़ा कोई दान है ही नहीं। क्योंकि वह दो मनों के बोझ को हल्का करता है। और मन जब हल्का होता है तो जीवन में भी सुकून के फूल खिलने लगते हैं। पर्यूषण महापर्व और क्षमापना के इस पावन अवसर पर, आप सबके जीवन की बगिया में भी सुख, शांति और समृद्धि के फूलों की बहार हमेशा खिली रहे, यही शुभाशीष। मिच्छामि दुक्कड़म। 
(मीडिया विशेषज्ञ निरंजन परिहार से हुई बातचीत के अंश)

गहलोत की पिक्चर तो अभी बाकी है मेरे दोस्त...!


-निरंजन परिहार-
राजस्थान में चुनाव की बिसात बिछ गई है। अशोक नहीं ये आंधी हैं, मारवाड़ का गांधी हैं के नारे फिर से गूंजने लग गए हैं। कांग्रेस में जोश कुछ ज्यादा ही दिखाई दे रहा है। सीएम अशोक गहलोत कांग्रेस में प्रदेश के निर्विवाद रूप से सबसे बड़े नेता के रूप में अपने होने को साबित कर चुके हैं। अब सबसे मुश्किल काम शुरू होने वाला है। दो सौ विधानसभाओं में उम्मीदवारियां तय करने की तैयारी है। नेताओं के लिए अपनी असल ताकत साबित करने का यही सही वक्त है। माहौल बदल गया है। इसीलिए लोग अभी से कहने लग गए हैं कि सरकार तो फिर से अशोक गहलोत की ही बनेगी, कांग्रेस की ही बनेगी।

राहुल गांधी की सलूंबर में हुई सभा के बाद हालांकि दिख तो यही रहा है कि सारे कांग्रेसियों को संभावित जीत ने एकजुट कर दिया है। सीएम अशोक गहलोत, पीसीसी अध्यक्ष डॉ. चन्द्रभान, प्रभारी महासचिव गुरुदास कामत, सीपी जोशी, राजस्थान से निकलकर दिल्ली जाकर बने सारे केंद्रीय मंत्री गिरिजा व्यास, शीशराम ओला, चन्द्रेश कुमारीनमोनारायण मीणा, सचिन पायलट, लालचन्द कटारिया, सब के सब सलूंबर में थे। डेढ़ लाख आदिवासियों – किसानों की भीड़ इकट्ठा करने के लिए दिन रात सफल मेहनत करने के लिए गहलोत को बधाई दे रहे थे। आपस में देखकर मुस्कुरा भी रहे थे। एकजुट लग रहे थे। पर राजनीति में, खासकर कांग्रेस की राजनीति में अंत में होता वही है, जो किसी को भी दिखता नहीं है। और, जो दिखता है, वह तो कभी भी नहीं होता। सो, राहुल गांधी की सलूंबर सभा की सफलता को दरकिनार करके नेता अपने लोगों को टिकट दिलाने की तैयारी में लग गए हैं।
विधानसभा चुनाव सर पर हैं। उम्मीदवारी तय करने के दिन आ गए हैं। इस बार टिकट की मारामारी बहुत ज्यादा होनेवाली है। सो, बड़े नेता कमर कस रहे हैं। सबसे ज्यादा कोशिश सीपी जोशी करते दिखाई दे रहे हैं। हालांकि, वे खुद भी जानते हैं कि दिल्ली से लेकर राजस्थान के गांव की बिल्ली तक सभी को पता है कि प्रदेश में कांग्रेस अकेले गहलोत की ताकत पर ही टिकी हुई है। इसलिए इस बार भी उनकी कोई बहुत ज्यादा नहीं चलनेवाली। लेकिन फिर भी राजनीति में इस तरह से हार मानकर कोई भी आसानी से घर नहीं बैठ जाता। भले ही बिहार में भी विधानसभा के चुनाव हैं और एआईसीसी महासचिव सीपी जोशी वहां के प्रभारी होने के नाते वहां भी बहुत व्यस्त रहेंगे। लेकिन मन तो उनका राजस्थान में ही रमता है। सो, खबर है कि सीपी जोशी ने विधानसभा चुनाव में राजस्थान में अपने समर्थकों को टिकट दिलाने के लिए कमर कस ली है।   
वैसे, कहते तो यही हैं कि दिल्ली की माई और कांग्रेस के भाई, दोनों ने मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को राजस्थान में खुली छूट दे दी है। लेकिन गहलोत ठहरे गांधी के अनुयायी। मारवाड़ के गांधी, सबको साथ लेकर चलने और सबकी सुनकर काम करने के मूड़ में लगते हैं। पता नहीं सच में ऐसा हो पाता है या नहीं, पर कोशिश तो ऐसी ही रहे हैं। गहलोत जानते हैं कि राजस्थान के इतिहास में सारे के सारे 200 टिकट आज तक न तो कोई अपनी मर्जी से बांट सका है और न ही कभी ऐसा हो सकता। फिर वे तो यह भी जानते हैं कि वे अगर अकेले कर भी लेंगे, तो दुश्मनों की फौज में और इजाफा हो जाएगा। नेता बहुत हैं। कम से कम प्रदेश में पांच बड़े नेता तो हैं ही। एआईसीसी के महासचिव सीपी जोशी, केंद्रीय मंत्री गिरिजा व्यास और शीशराम ओला, केंद्रीय राज्य मंत्री जितेंद्र सिंह और सचिन पायलट। लेकिन इन सबकी मुश्किल यह हैं कि सारे के सारे इलाकाई और कबिलाई के नेता हैं। मेवाड़ के बाहर सीपी और गिरिजा का प्रभाव कितना है, यह किसी को बताने की जरूरत नहीं है। सचिन पायलट अपने पिता राजेश पायलट की तरह गुर्जरों के एकछत्र नेता नहीं हैं। वे अभी तो अपनों में ही जगह बनाने की कोशिश में हैं। जितेंद्र सिंह का मेवात से बाहर कोई बहुत ज्यादा असर नहीं है। सारे जानते हैं कि कांग्रेस के किसी नेता का पूरे के पूरे प्रदेश में समान प्रभाव हैं तो वह सिर्फ और सिर्फ अशोक गहलोत ही हैं।
फिर भी राजनीति तो राजनीति है। कितनी भी नीतियां बना लीजिए, चाहे जितने नियम लागू कर दीजिए, कोई फर्क नहीं पड़ता। सो, सीपी जोशी को भले ही केंद्रीय मंत्री पद से हटाकर कमजोर करके पार्टी के महामंत्री के रूप में बंगाल, बिहार जैसे कांग्रेस के लिए दुष्कर राज्यों का प्रभारी बना दिया गया हो, फिर बिहार में भले ही चुनाव भी हों, लेकिन गहलोत पर भारी साबित होने की कोशिश में सीपी जोशी राजस्थान में दखल देते रहेंगे। हालांकि, गहलोत पर भारी पड़ना सीपी जोशी के बस की बात न तो पहले थी और न अब है। फिर जिस मेवाड़ को सीपी जोशी अपनी जागीर मानते हैं, वहां की करीब तीन दर्जन से अधिक सीटों के टिकट बंटवारे में गिरिजा व्यास और रघुवीर मीणा भी अपनी बड़ी भूमिका हैं। गिरिजा व्यास और मीणा दोनों, अब पहले से ज्यादा ताकतवर हैं। फिर कांग्रेस को सबसे ज्यादा उम्मीद भी मेवाड़ से ही है। सो, मेवाड़ में अकेले सीपी जोशी को ज्यादा भाव देकर कांग्रेस खुद को कमजोर करने के मूड़ में नहीं है।
देखा जाए, तो टिकट बंटवारे में अशोक गहलोत को एक सबसे बड़ा फायदा यह है कि इस बार राजस्थान में कांग्रेस के प्रभारी के रूप में गुरूदास कामत को खास तौर से दिल्ली से भेजा गया है। राजनीति में उनकी ताकत का अंदाज सभी को है। कामत कोई लुंज पुंज राजनेता नहीं हैं। पार्टी के रास्ते में कांटे बोनेवालों और तकलीफ पैदा करने वालों के साथ बहुत सख्ती से निपटने में माहिर भी हैं। माना जा रहा है कि ऐसे ताकतवर आदमी को सोनिया गांधी ने गहलोत की ढ़ाल बनाकर भेजा है। लेकिन कांग्रेस है, सो, खींचतान तय है। सो, किसी भी तरह गुटबाजी बहुत ज्यादा न पनपे, इसके लिए पार्टी दिल्ली दरबार से राहुल गांधी के जरिए सभी बड़े नेताओं को संदेश दे दिया गया है कि वे कोई भी ऐसा कदम न उठाए, जिससे गहलोत ने जो फिर से कांग्रेस को सत्ता में लाने का जो मजबूत माहौल बनाया है, वह कमजोर पड़ जाए। पार्टी मानती है कि अशोक गहलोत माहौल को बदलने में सफल रहे हैं। राजस्थान में कांग्रेस के बाकी नेताओं के असहयोग के बावजूद कांग्रेस को सत्ता में फिर से लाने के पथरीले रास्ते को उन्हीं ने सहज बनाया है। अपना मानना है कि अशोक गहलोत यह सब बहुत आसानी से इसलिए कर लेते हैं, क्योंकि बहुत सीधे, सरल, सहज और सादे दिखने के बावजूद गहलोत राजनीतिक रूप से बहुत परिपक्व हैं और कहां का दर्द ठीक करने के लिए चोट कहां करनी हैं, यह उन्हें पता है। पता नहीं होता, तो राजस्थान की गलियों में,  ‘अशोक नहीं ये आंधी हैं... के नारे अभी से थोड़े ही गूंजते। वैसे, लोग कहते हैं कि गहलोत की असल अग्नि परीक्षा तो टिकट बंटवारे में होगी। लेकिन इसके जवाब में अपनी बात को अगर फिल्मी भाषा में कहें, तो गहलोत की असल पिक्चर तो अभी बाकी है मेरे दोस्त...। खेल तो अभी शुरू हुआ है। देखते रहिए, अभी तो और क्या - क्या होता है।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं)

Thursday, September 12, 2013

..तो राजनीति में कइयों को निवृत्त कर देगी निवृति कुमारी

-निरंजन परिहार-
राजस्थान की राजनीति में उम्मीद की जा रही है कि मेवाड़ की राजनीतिक धाराएं बदलनेवाली हैं। खासकर बीजेपी की राजनीति में मेवाड़ का महत्व आनेवाले दिनों में कुछ और बढ़ सकता है। निवृत्ति कुमारी मेवाड़ आ रही हैं। वे पूरे ठसके से आ रही हैं और सब कुछ ठीक ठाक रहा तो कोई आश्चर्य नहीं कि निवृत्ति कुमारी आनेवाले दिनों में बीजेपी के कई तीसमार खांओं की राजनीति से निवृत्ति के रास्ते तय कर दे। मेवाड़ वैसे भी राजनीतिक रूप से निरंकुश रहा है। लेकिन मेवाड़ राजघराने की निगाह में जब तक बीजेपी की कमान रही, सब कुछ ठीक ठाक ही था। महाराणा भगवत सिंह और भानुकुमार शास्त्री के जमाने में इतने लफड़े नहीं थे। गुलाबचंद कटारिया भी सब कुछ अच्छे से ही सम्हाले हुए थे। लेकिन आजकल मेवाड़ बीजेपी में यह निरंकुशता कुछ ज्यादा ही बढ़ी हुई दिखाई देती है। विशेषकर तब से, जब से किरण माहेश्वरी जैसे लोगों को पार्टी में अचानक उनकी औकात से बहुत ज्यादा जगह मिली, पार्टी में एक दूसरे का सम्मान ही समाप्त हो गया। लेकिन अब लगता है कि मेवाड़ में बीजेपी के दिन फिरनेवाले हैं। राजनीति में इस उम्मीद की किरण कोई माहेश्वरी नहीं बल्कि मेवाड़ राजघराने की होनेवाली यह नई बहुरानी हैं, जिनके हाथों मेवाड़ में बीजेपी के कल्याण की उम्मीद की जा रही है।
 मेवाड़ राजघराना वैसे भी, सालों तक राजस्थान में बीजेपी की राजनीति को कंट्रोल करता रहा। लेकिन महाराणा भगवत सिंह के दिवंगत हो जाने के बाद राजनीति पर से मेवाड़ राजघराने का कंट्रोल छूटता गया। महाराणा भगवतसिंह विश्व हिंदू परिषद के अध्यक्ष थे। वे जब गए, तो मेवाड़ को लगा था कि हिंदुत्व का सूर्य अस्त हो गया। महाराणा प्रताप का प्रतापी शासन हिंदुत्व के इतिहास की शान माना जाता है। मेवाड़ राजघराना अपनी परंपरा के मुताबिक हिंदुत्व का प्रबल पक्षधर रहा है। लेकिन महाराणा भगवत सिंह के बाद मेवाड़ राजघराने का राजनीति में कोई सक्रिय योगदान कभी नहीं रहा। उल्टे, महाराणा भगवत सिंह के जाने बाद में तो मेवाड़ राजघराने के पूर्व शासकों के आपसी झगड़ों को सड़क पर बिखरते और प्रताप की परंपराओं को तार तार होते आपने और हम सबने देखा ही है। महाराणा भगवत सिंह के वंशज अरविंद सिंह मेवाड़, उदयपुर के अपने पुराने किलों और महलों को सहेजकर उनको होटल के रूप में दुनिया भर में ख्याति दिलाने में जरूर सफल रहे हैं। वे सामाजिक कार्यक्रमों में भी कभी कभार देखे जाते रहे हैं, लेकिन राजनीति में आने की बहुत प्रबल इच्छाओं के बावजूद राजनीतिक रूप से उपेक्षित ही हैं। बरसों हो गए, अरविंद सिंह का मेवाड़ की राजनीति में भी कहीं कोई दखल कभी नहीं दिखा।
 लेकिन अब लगता है कि राजनीति में मेवाड़ का सितारा एक बार फिर से बुलंद होनेवाला है। बुलंदी की यह आस दिख रही है राजघराने की नई होनेवाली युवरानी में। माना जा रहा है कि राजघराने के युवराज लक्ष्यराज सिंह मेवाड़ की जिस युवती से सगाई हुई है, वह ओडीशा के बोलांगीर राजघराने की राजकुमारी निवृत्ति कुमारी सिंह आने वाले समय में मेवाड़ की राजनीति की राहों को बदल सकती है। इस काम में उनके होनेवाले पति लक्ष्यराज सिंह मेवाड़ का भी उन्हें सहयोग मिल सकता है। लक्ष्यराज सिंह की भी राजनीति में रुचि तो रही ही है, जो कभी उदयपुर क्रिकेट असोसिएशन के अध्यक्ष के रूप में तो कभी राजनीतिक मंचों पर उनकी उपस्थिति के जरिए जोर मारती रहती है। अपने पिता महाराणा अरविंद सिंह मेवाड़ से थोड़े भिन्न राजकुमार लक्ष्यराज सिंह का लोगों से जुड़ाव ज्यादा है। उन्हें कभी कभार उदयपुर शहर में भी घूमते देखा जा सकता हैं। इन्हीं वजहों से लोग भले ही उनको बहुत जिंदादिल व नेक इंसान मानते हों, लेकिन अब भी आम लोगों तक उनकी पहुंच बहुत ही कम है। वैसे भी राजा होने की वजह से महलों में रहने की मजबूरियां आम जनता से इतनी दूरी तो बना ही देती हैं। लेकिन सक्रिय राजनीति की शौकीन पत्नी के रूप में अब उनको भी एक मजबूत राजनीतिक जीवन साथी मिल जाएगा, जो जनता और उनके बीट की इन दूरियों को मिटाने में सहयोगी साबित होगा।
 निवृत्ति कुमारी सिंह तेज तर्रार हैं, खूबसूरत भी हैं और धारदार भी। राजघराने की होने की वजह से मान देना और बदले में सम्मान पाना, दोनों उनको आता भी है, भाता भी है और सुहाता भी है। राजनीति में उनकी गहरी रुचि है क्योंकि वह उनके खून में है। यह सब राजवंश की होने के कारण नहीं बल्कि मेवाड़ की इस नई बहू को राजनीति अपने माता पिता से विरासत में मिली है। उनके पिता कनकवर्धन सिंह ओडीशा बीजेपी के अध्यक्ष हैं और मां संगीता सिंह बीजेपी की सांसद रही है। खास बात यह है कि अपने माता और पिता दोनों के राजनीतिक मामलों को संभालने में निवृत्ति कुमारी हमेशा से महत्वपूर्ण काम करती रही है। वे चुनाव प्रबंधन करने से लेकर सभाएं आयोजित करने, जनसंपर्क संभालने, कार्टकर्ताओं को सहेजने, उनकी हौसला अफजाई करने और चुनाव जीतने की अंदरूनी रणनीति तय करने में वे अहम रोल निभाती रही हैं। उनके इन्हीं सारे गुणों की वजह से बीजेपी की पहली पांत के प्रमुख नेता उनको निजी तौर से जानते हैं और उनकी राजनीतिक क्षमता का लोहा भी मानते हैं। ये नई पीढ़ी का नया चेहरा हैं और बड़े नेताओं से उन के संबंध भी बहुत अच्छे है। बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह से लेकर गुजरात के सीएम नरेंद्र मोदी, और बीजेपी के लौहपुरुष लालकृष्ण आडवाणी आदि सभी उनके काम करने के तरीकों से वाकिफ हैं।
राजनीति में निवृत्ति कुमारी की काम करने की परंपरागत पारिवारिक शैली को देखकर कहा जा सकता है कि वे भले ही राजकुमारी है और महलों में रहती हैं, लेकिन दिल उनका हमेशा महलों की ऊंची दीवारों को फांदकर गलियों और चौबारौं में घुमक्कड़ी करता रहता है, ताकि लोगों के मन को समझा जा सके। वे मजबूर मन की मजबूती और मकाबला करने की ताकत को समझती हैं। सुनते हैं कि कमजोर और जरूरतमंद की मदद के लिए इसीलिए वे हमेशा तैयार रहती है। बोलांगीर की राजकुमारी निवृत्ति कुमारी सिंह जनवरी 2014 में ब्याह कर मेवाड़ की बहूरानी बनकर उदयपुर आएंगी। इसी साल मई - जून में लोकसभा के चुनाव हैं। यह बहुत सहज बात है कि निवृत्ति कुमारी अगर राजनीति में आती हैं, तो मेवाड़ के सियासी समीकरण बदलना तय है। लेकिन मेवाड राजघराने की राजनीतिक आकाश पर फिर से छा जाने की मंशा ने ज्यादा जोर मारा और नई बहू को अगर पूरी छूट मिली और तो यह भी तय है कि निवृत्ति कुमारी अपनी चमत्कृत कर देनेवाली राजनीतिक कलाबाजियों से बीजेपी को बीमार करनेवालों की राजनीतिक निवृत्ति भी जरूर तय कर देगी।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं)