Thursday, May 30, 2013

गहलोत पर हर वार
को तैयार संघ परिवार
-निरंजन परिहार-
राजस्थान में अशोक गहलोत को हटाकर बीजेपी को सत्ता में लाने के लिए संघ परिवार ने मोर्चा संभाल लिया है। खबर है कि संघ परिवार को यह एहसास हो गया है कि राजस्थान में इस बार बीजेपी नहीं जीत पाई, तो फिर आनेवाले कई सालों तक प्रदेश में तो बीजेपी सत्ता से दूर ही रहेगी। पार्टी के बहुत सारे बड़े नेता बहुत बूढ़े हो गए हैं। नाम गिनने जाएंगे, तो सूची बहुत लंबी हो जाएगी। पांच साल बाद के चुनाव में वे किसी काम के नहीं रहेंगे। आज की तारीख में वसुंधरा राजे के अलावा ऐसा कोई नहीं है जो बीजेपी की नैया को पार लगा सके। कद्दावर कटारिया का गुलाब सीबीआई की धूप से मुरझा सकता है। और यह भी समझ में आ गया है कि बीजेपी इस बार भी सिर्फ अपनी कोशिशों से तो सत्ता में आने से रही। क्योंकि प्रदेश भर में आम आदमी के मन में यह धारणा बहुत तेजी से मजबूत होती जा रही है कि अशोक गहलोत लगातार  मजबूत होते जा रहे हैं।

अशोक गहलोत की तैयारी है कि कैसे भी करके एक बार कांग्रेस फिर से सत्ता में आ जाए, प्रदेश में बीजेपी का कैडर ही खत्म हो जाए। गहलोत मानते हैं कि राजनीति में कार्यकर्ता का जिंदा रहना जरूरी है। वही नहीं रहा, तो पार्टी कैसे चलेगी। गहलोत की कोशिश है कि बीजेपी दस साल लगातार सत्ता से अलग रही तो उसका कार्यकर्ता वैसे भी खत्म हो जाएगा। संघ परिवार ने गहलोत की इस मंशा को भांपकर कमान कमर कस ली है। गहलोत की काट में संघ परिवार की कोशिश है कि कैसे भी करके इस बार राजस्थान में बीजेपी की नैया को पार लगाया जाए और कार्यकर्ता को मजबूत किया जाए। वैसे, सच सिर्फ यही है कि प्रदेश में बीजेपी में स्वर्गीय भैरोंसिंह शेखावत और कांग्रेस में अशोक गहलोत के मुकाबले अब तक कोई और नेता नहीं जन्मा, जिसने कार्यकर्ता को भरपूर पनपाया हो। शेखावत जब सरकार में थे, तो कुछेक मंत्रियों को छोड़कर सारे के सारे मंत्री कार्यकर्ता की नजर में नाकारा थे। कार्यकर्ता का काम ही नहीं होता था। पिछली बार वसुंधरा राजे की सरकार आई, तो यह खाई और बढ़ गई। सेठों, दलालों और ठेकेदारों के सारे काम हुए लेकिन कार्यकर्ता के लिए नीतियां आड़े आती हैं। अभी गहलोत की सरकार में भी खुद उनके अलावा कार्यकर्ता के लिए सारे मंत्री नाकारा ही हैं। वैसे तो सारे मंत्री इन बातों को खारिज करते हैं। वे कहते हैं कि कार्यकर्ता तो हमेशा रोता ही रहता है। पर, दिल पर हाथ रखकर वसुंधरा राजे सोचेंगी, याद करेंगी, यादों में डूबेंगी तो उनको ये पंक्तियां सच लगेंगी। कार्यकर्ता के हक में संघ परिवार इसीलिए कदम आगे बढ़ा रहा है।
हालात से लगता है कि बीजेपी के मुकाबले संघ परिवार ज्यादा गंभीर है। देश में कांग्रेस की घटती साख के बावजूद हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और कर्नाटक में हाल ही में कांग्रेस की सत्ता में वापसी से संघ परिवार को समझ में आ रहा है कि हमारे हिंदुस्तान के लिए भ्रष्टाचार, महंगाई, वादाखिलाफी और बेईमानी अब कोई बहुत बड़े मुद्दे नहीं है। संघ परिवार का मानना है कि बीजेपी के लिए बहुत अनुकूल माहौल के बाद भी प्रमुख राज्यों में सत्ता गंवाने का मूल कारण गहरे तक घुस गए भाई - भतीजावाद, भ्रष्टाचार, और चहेतों को टिकट देना सबसे बड़ा कारण है। विधानसभा चुनाव में टिकट बंटवारे में नेताओं की मनमानी रोकने के लिए संघ परिवार ने उम्मीदवार चयन के मापदंड बना रहा है। विधायक की चुनाव क्षेत्र में उपलब्धता, क्षेत्रीय विकास में सक्रिय भूमिका, विधानसभा में सक्रियता एवं निजी और सार्वजनिक आचरण की शुचिता के अलावा जातिगत जनाधार तो है ही, लोकप्रियता और अपराध से दूर रहना सबसे पहली जरूरत होंगे। इन पर खरे उतरने वाले विधायकों को सबसे पहले क्लीयर किया जाएगा। आला नेताओं में विचार विमर्श हो गया है। बीते महीने भर से राष्ट्रीय नेता सौदान सिंह इसी मिशन पर प्रदेश के बहगुत सारे जिलों का दौरा कर चुके है। संघ परिवार ने हर जिले से बीजेपी की हालत की रिपोर्ट भी जुटा ली है। कुल मिलाकर अशोक गहलोत की हर कोशिश की काट का मंत्र संघ परिवार तैयार कर रहा है।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं)  

Tuesday, May 28, 2013

बीजेपी की बेवकूफी साबित होते जेठमलानी 
-निरंजन परिहार-
बीजेपी अब समझदार लोगों की पार्टी नहीं रही। अटलजी चलते थे और आडवाणीजी की चलती थी, तब तक बीजेपी में और भले ही कुछ भी खराब हो गया हो, पर पार्टी की इज्जत तो कमसे कम कभी खराब नहीं हुई। लेकिन अब तो रोज हो रही है। उसके अपने ही पार्टी पर कीचड़ उछाल रहे हैं। इससे बड़ी बेवकूफी और क्या हो सकती है कि ये कीचड़ उछालनेवाले भी वह खुद ही पैदा कर रही है। हर दूसरे दिन कोई न कोई किस्सा, कोई कहानी सुनने में आती है, जिसमें बीजेपी की बेवकूफियां जाहिर होती हैं। लोग अपने ही हाथ से खुद के सिर में राख डालने का काम कर रहे हैं। कीचड़ उछालने के लिए वैसे भी कोई कम लोग थे, जो बीजेपी को अब इन राम जेठमलानी को पैदा करने की जरूरत पड़ गई। बीजेपी में थोड़ी भी समझदारी होती, तो जेठमलानी को इस उमर में तो कम से कम पार्टी से निष्कासित करने की कारवाई नहीं करती। बाकी सब तो ठीक, पर नरेंद्र मोदी ने यह सब कैसे होने दे दिया, यह समझ में नहीं आ रहा है।
Singer Ila Arun, Actress Juhi Chawala and Media Expert Niranjan Parihar
with Mr. Bhairon Singh Shekhawat at Hotel Centaur, Mumbai

कांग्रेस आम तौर पर ऐसे मामलों में बहुत संयत रहती है। हो हल्ला नहीं करती। बूटासिंह बिहार के गवर्नर थे। लफड़ा किया, बदनाम हुए और कांग्रेस की किरकिरी हुई तो हटा दिया। मुंह बंद करने के लिए एससीएसटी कमीशन का चेयरमैन बना दिया। सन 2009 का लोकसभा का चुनाव आया, तो कांग्रेस ने टिकट नहीं दिया। भन्नाए हुए बूटासिंह सन 84 से अपनी बपौती कही जानेवाली सीट जालौर से कांग्रेस के खिलाफ लड़ लिए और उसे धूल चटा दी। फिर भी कांग्रेस ने न तो बूटासिंह को एससीएसटी कमीशन से हटाया और न कोई बयानबाजी करके उन्हें भड़काया। धीरे धीरे वक्त पूरा हुआ और बूटासिंह खुद ही अपनी गति को प्राप्त हो गए। ऐसे हजारों उदाहरण हैं। कांग्रेस बीजेपी की तरह उतावलापन नहीं दिखाती। कांग्रेस में किसी के भी होने के अहसास और उसे खोने के खतरों की व्यापक समीक्षा करने के बाद ही कोई मजबूत कदम उठाया जाता है। ऐसा नहीं है कि बीजेपी में ऐसा नहीं होता। होता होगा। लेकिन जेठमलानी पर कारवाई करनेवालों के दिमाग पर दया आती है। दया इसलिए क्योंकि किसी और के खिलाफ कारवाई करते तो कोई बात नहीं। जिंदगी के आखरी पड़ाव पर बैठे 89 साल के बेहद बुजुर्ग जेठमलानी के मुंह लगने की बीजेपी को जरूरत नहीं थी। कुछ दिन बाद वैसे ही ठिकाने लग जाते। पर अब बीजेपी को ठिकाने लगाएंगे। बीजेपी को कांग्रेस से सीखना चाहिए।
अब तक तो जेठमलानी को चुप रहने को कहा जा सकता था। लेकिन पार्टी ने खुद ही रिश्ता खत्म करके उन्हें कुछ भी बोलने को खुला छोड़ दिया। एक घोड़ा, जो भले ही बेलगाम था, पर आप जब चाहते, तब अपने रथ से लेकर तांगे तक में जोत सकते थे। और ऐसा नहीं भी कर सकते, तो कम से कम वह आपकी घुड़साल में तो बंधा था। चारा चरता और पड़ा रहता। लेकिन जब उसे आजाद कर ही दिया, तो अब उसकी हिनहिनाहट भी सुननी पड़ेगी और काटेगा, तो दर्द भी झेलना होगा। सो, भुगतो। जैसे ही जेठमलानी को दरवाजा दिखाया, वे बोले –मैं अब पर्दाफाश करूंगा, चैन से नहीं बैठूंगा

संसार का यह नियम है कि ज्यादा बड़बड़ करनेवालों से दूर ही रहना चाहिए। क्योंकि वे आपके लिए सहायक तो कभी कभार ही साबित होते हैं, लेकिन आफत के रूप में खतरा बनकर सर पर सवार हमेशा रहते हैं। इसे ज्यादा आसान और साफ साफ ढ़ंग से समझना हो, तो जरा इस तरह से समझिए कि भौंकनेवाले कुत्ते अगर आपके घर में होते हैं, तो बाहरी लोगों को वे डराते तो सिर्फ तभी है जब कोई आता हैं। लेकिन अकसर भौंक भौंक कर आपके घर की शांति हमेशा भंग करते रहते हैं। लेकिन हम देखते ही हैं कि इस तरह के कुत्ते पालने के शौकीन भी आदत से मजबूर होते हैं। सो, शांति भंग होने के बावजूद एक के बाद एक, तरह तरह के कुत्तों को पालते रहते हैं। फिर बीजेपी के तो शौक भी ऐसे हैं और नीयती भी। सो, जेठमलानी ने कोई गलत नही कहा है कि बीजेपी आत्मघाती रास्ते पर है।                                     (लेखक राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं)
इस जंग में अकेली क्यूं हैं वसुंधरा !
-निरंजन परिहार-
श्रीमती वसुंधरा राजे को या तो दिख नहीं रहा हैं या फिर वे देखना नहीं चाहतीं। राजनीति में ज्यादातर समझदार लोग अकसर ऐसा करते हैं। पर, सभी को दिख रहा है कि राजस्थान बीजेपी की दीवारों की दरारें और खतरनाक होती जा रही हैं। और इसके उलट अशोक गहलोत रोके रुक नहीं रहे हैं। वे दिन ब दिन मजबूत होने की तरफ बढ़ते ही जा रहे हैं। लेकिन बीजेपी की मजबूरी यह है कि उसके पास गहलोत की रफ्तार को रोकने लायक कोई और है ही नहीं। श्रीमती राजे अपनी सुराज संकल्प यात्रा में मगन है। जिसके कोई बहुत अच्छे परिणाम फिलहाल तो दिख नहीं रहे हैं।

              राजस्थान बीजेपी के सबसे बड़े नेता गुलाब चंद को सीबीआई ने अटका दिया है। विपक्ष के नेता कटारिया बहुत दिनों तक श्रीमती राजे की सुराज संकल्प यात्रा में हर जगह साथ थे। बढ़िया माहौल बन रहा था। पर, जब से सीबीआई ने उन पर शिकंजा कसा है, कटारिया शांत हैं। सीबीआई उनको फांस कर जेल भेजने पर तुली हुई है और वे इससे बचने के लिए राजस्थान से बहुत दूर मुंबई में बैठकर कोर्ट में सीबीआई से लड़ने की तैयारी कर रहे हैं। सार्वजनिक जीवन में ईमानदारी की धमक और शुचिता के लिए अपनी अलग किस्म की चमचमाती चमक रखनेवाले कटारिया वसुंधरा राजे की यात्रा में न जाने को मजबूर है। वैसे भी जीवन भर की कमाई और पीढ़ियों की पूंजी जब अपनी नजरों के सामने छिनती नजर आ रही हों, तो काहे का सुराज, काहे का संकल्प और काहे की यात्रा। मुसीबत के मारे मुनष्य को कुछ भी याद नहीं आता, सिवाय अपनी इज्जत के। इज्ज्त बच जाए तो बहुत बड़ी बात। कटारिया जैन हैं और बीजेपी में दूसरे दिग्गज जैन नेता महावीर प्रसाद जैन भी आजकल कहीं दिखाई नहीं देते।
Gulab Chand Kataria, then Home Minister of Rajasthan at a event in Mumbai
with Mr. Niranjan Parihar

 कटारिया जैसी ही हाल राजेंद्र सिंह राठौड़ का है। जेल से आने के बाद वे भी आजकल ठंडे ठंडे से है। दारिया हत्या कांड में सीबीआई के साए में अटक जाने के बाद से ही श्रीमती राजे के खास सिपहसालार राजेंद्र सिंह राठौड की रफ्तार धीमी पड़ गई है। नरपत सिंह राजवी कहां हैं, क्या कर रहे हैं, और क्यूं कर रहे हैं, यह कोई नहीं जानता। राजवी और राठौड़ दोनों राजपूत हैं और भरपूर प्रभावशाली भी। प्रदेश में सामंत वर्ग के वोटों को कांग्रेस से छिटका कर बीजेपी को साथ जोड़े रखने में ये दोनों बहुत आसानी से कामयाब हो सकते हैं। हाल ही में पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष पद से निवृत्त हुए अरुण चतुर्वेदी का बीजेपी कोई बहुत कायदे से उपयोग कर नहीं पा रही है। धुरंधर नेता ललित किशोर चतुर्वेदी क्षमतावान होने के बावजूद सक्रिय नहीं हैं। घनश्याम तिवाड़ी अलग राग आलाप रहे हैं। सारे के सारे बड़े ब्राह्मण नेता पार्टी में दरकिनार है।
               हालात मुश्किल हैं और रास्ता कठिन। फिर श्रीमती राजे का राजस्थान बीजेपी मैं आज बिल्कुल अकेला पड़ते जाना भी नई मुश्किल है। उनकी सुराज संकल्प यात्रा में उनके मंच पर या साथ में जो लोग दिखाई देते हैं, उनका अपनी गली में भी कितना प्रभाव है, यह खुद उनको भी नहीं पता। और जो बड़े नेता हैं, वे प्रभावशाली तरीके से कहीं भी दिखाई नहीं दे रहे हैं। फिर भी वसुंधरा राजे मस्त हैं। लेकिन खतरा यह है कि श्रीमती राजे जिस संगठन को अभेद्य किला मानकर चल रही है, वह कहीं भरभरा कर गिर न जाए। दीवारें तो वैसे भी दरक रही हैं। बामन, बनिया और राजपूतों की पार्टी कही जानेवाली बीजेपी में इन तीनों के बड़े नेता ही नदारद हैं।
आप जब किसी से सीधे टकराव में हों, तो बचाव के लिए अपने साथियों को दूसरे मोर्चों पर खड़ा करना होता है, ताकि दुश्मन जब आप पर सीधे प्रहार करने की मुद्रा में आए, तो आपके बाकी साथी उसे घेर कर धावा बोल दे। जंग की परंपरा तो कम से कम यही कहती है। पर, इस जंग में श्रीमती राजे अकेली हैं। बिल्कुल अकेली। फिर भी उनको लग रहा है कि यह यात्रा प्रदेश का माहौल बदल देगी। ईश्वर करे, उनकी यह कामना सफल हो, लेकिन अपना मानना है कि ईश्वर भी सिर्फ उन्हीं का साथ देता है, जिसके साथ उसके घरवाले साथ होते हैं। (लेखक राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं)


Monday, May 27, 2013

चुनौतियां बहुत हैं सीपी जोशी के सामने
-निरंजन परिहार-
सीपी जोशी को गुस्सा बहुत जल्दी आता है। छोटी सी बात पर भी भड़क जाते हैं और किसी को भी खूब सुना भी देते हैं। इसके पीछे वजह सिर्फ एक ही है कि उनको किसी का डर नहीं है। यह डर कि कोई उनका कुछ बिगाड़ लेगा। राजनीति में चोर लोग हर किसी से डरते हैं। भ्रष्ट लोग किसी को भी कुछ कहने से बचते हैं। और, बेईमान लोग अपने कारनामों के खुल जाने की वजह से हर कहीं टांग अड़ाने से दूर रहते हैं। लेकिन सीपी जोशी को किसका डर। दाग उन पर कोई है नहीं, कभी बदनाम रहे नहीं और बदनाम उनको कोई कर नहीं सका। लेकिन अब रेल मंत्रालय में उनको थोड़ा संभलकर चलना होगा, क्योंकि यह एक बहुत बड़ा चैलेंज है। दिलीप कुमार की बहुत पुरानी फिल्म गोपी के एक गीत के बोल काजल की कोठरी में कैसे भी जतन करो, काजल का दाग भाई लागे ही लागे रे भाई लागे ही लागे हमारे रेल मंत्रालय पर बहुत सटीक साबित होते हैं। सीपी जोशी के लिए यह सबसे बड़ा चैलेंज है।   

वैसे सीपी जोशी की निजी जिंदगी के बारे में अपन बहुत कुछ नहीं जानते, सो ज्यादा कुछ कह नहीं सकते। पर, बात अगर राजनीति की की जाए, तो सीपी की राजनीतिक जिंदगी मैं चैलेंज शुरू से ही कभी कम नहीं रहे। नाथद्वारा से लेकर उदयपुर और राजस्थान से लेकर दिल्ली तक चैसेंज ही चैलेंज। और सीपी जोशी हर बार हर चैलेंज को फतह करके आगे बढ़े हैं। लेकिन रेल मंत्रालय उनके लिए वक्त के हिसाब से, राजनीतिक कद के हिसाब से और छवि के हिसाब से बहुत बड़े चैलेंज के रूप में उभर कर सामने आ रहा है। ऊपर से मेवाड़ जैसे पहाड़ी इलाके के लोगों की रेल विकास अपेक्षाओं के हिसाब तो रेल मंत्रालय उनके लिए और भी बड़ा चैलेंज है। जोशी रेल मंत्री तो बन गए हैं, पर लगता है अभी वे उसके सुर, ताल और लय को समझने की कोशिश कर रहे, जो कि किसी के लिए भी बहुत आसान नहीं है। खासकर, सीपी जैसे कड़क आदमी के लिए तो यह और भी मुश्किल है। क्योंकि खाऊ आदमी के लिए तो हर तरह के हजार रास्ते खुल जाते हैं, बहुत सारे बेईमान लोगों के कुनबे के बीच किसी ईमानदार के लिए अपना आशियाना बनाना कांटों भरे रास्ते से कमनहीं होता। 
Union Minister Gurudas Kamat felicitating Mr. Praveen Shah
and Media Expert Niranjan Parihar at Mumbai

राजनीतिक उठापटक और प्रशासनिक कामकाज के लंबे चौड़े हिसाब किताब को कुछ देर के लिए एक तरफ रख दें, तो भी रेल मंत्रालय में सीपी जोशी के सामने एक सबसे बड़ा चैलेंज यह भी है कि रेलवे बोर्ड में नियुक्ति के चक्कर में घनचक्कर बनकर मंत्री पद से हाथ धो बैठे पवन बंसल की जगह वे मंत्री बने हैं। इसलिए अब सिर्फ ईमानदार होने भर से काम नहीं चलेगा। जोशी को अपनी ईमानदारी साबित भी करनी होगी। रेल मंत्रालय हमारे देश में भ्रष्टाचार, बेईमानी और दलाली का सबसे बड़ा गढ़ है। विकास के नाम पर बेतरतीब किस्म के खूब काम होते हैं, रोज अनेक ठेके निकलते हैं और सुबह से शाम तक कई करोड़ के वारे न्यारे होते हैं। और ऐसी जगहों का रिवाज रहा है कि यहां रहकर अगर आप किसी को भी काम नहीं भी करें, तो भी4 बहुत सारी मलाई खुद चलकर आपके घर पहुंच जाती है। ऐसे में जोशी के लिए अपनी ईमानदारी को साबित करना सबसे टेढ़ी खीर साबित होगा।   
ईश्वर करे, श्रीमती सोनिया गांधी ने सीपी जोशी को रेल मंत्रालय का यह जो अतिरिक्त कार्यभार सौंपा है, यही उन्हें स्थायी रूप से भी मिल जाए। ताकि और कुछ भले ही हो नहीं हो, रेल विकास के मामले में राजस्थान का तो कल्याण हो जाए। वैसे, सीपी जोशी किसी पर भी आसानी से मेहरबानियां न करने के लिए भी काफी कुख्यात रहे हैं। लेकिन यह रेल मंत्रालय का इतिहास है कि हर रेल मंत्री की मातृभूमि अपने सपूत से इतनी आस करती रही है कि विकास की गंगा को वह थोड़ा सा अपने प्रदेश की तरफ भी मोड़ दे। सीपी जोशी मेवाड़ के इतिहास की परंपरा के प्राणी हैं। सो, रेल मंत्रियों के विकास की धारा को अपने प्रदेश की तरफ मोड़ने की परंपरा का तो निर्वहन करेंगे। लेकिन चैलेंज इस काम में भी कोई कम नहीं हैं। अगर रेल मंत्रालय उन्हीं के पास रह गया तो चुनाव में भले ही एक साल हो, पर उनके पास काम करने के लिए सिर्फ छह महीने ही बचे हैं। और इन्हीं छह महीनों में राजस्थान में चुनाव हैं। फिर रेल विकास राजस्थान के सीएम अशोक गहलोत का भी हमेशा से ही सबसे प्रिय विषय रहा है। वे भी चाहेंगे कि राजस्थान में अब तो कम से कम रेलों का विकास हो। सीपी को राजस्थान में रेल का विकास करना है, तो विधानसभा चुनाव से पहले करना होगा। और फायदा गहलोत को होगा। सीएम बनने का सपना संजोनेवाले सीपी के लिए गहलोत को फायदा देना भी कोई कम तकलीफदेह नहीं है। पर, जो कुछ भी करना है, सिर्फ छह महीने में ही करना होगा। राजनीति की राह में रोड़े बहुत हैं और फिसलन भी कोई कम नहीं। पर, अब तक सारी भवबाधाओं को सहज पार कर लेनेवाले सीपी जोशी छह महीने में क्या कर गुजरते हैं, यह अपन सब मिलकर देखेंगे। ठीक है ? 
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं)     


जिस कपिल सिब्बल को आप नही जानते
-निरंजन परिहार-

यह जो हेडिंग आपने पढ़ा, इन सात शब्दों को जिनने लिखा, वे लिखनेवाले देश के बहुत सिद्ध, प्रसिद्ध एवं धारदार पत्रकार आलोक तोमर अब उस दुनिया में नहीं हैं। उनने लिखा था कि मशहूर शायर निदा फाजली जब यह शेर लिख रहे थे कि हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी, जिसको भी देखना हो कई बार देखना…’ तब वे शायद कपिल सिब्बल के बारे में ही लिख रहे होंगे। क्योंकि कपिल सिब्बल को जितनी बार देखते हैं, हर बार उनका नया अवतार सामने आता है। कभी स्तब्ध करने वाला, कभी अवाक कर देने वाला तो कभी चौंकाने वाला।

अभी भले ही कपिल सिब्बल ने यह कह कर चौंका दिया हो कि नरेंद्र मोदी किसी गली मोहल्ले के दादा की तरह हैंया भले ही मुलायम सिंह को खुली देते हुए यह कहा हो कि किसी में हिम्मत है, तो हमारी सरकार गिरा कर दिखाएलेकिन यह कोई पहली बार नहीं है जब कपिल सिब्बल इस तरह से खुल कर बोल रहे हैं। दुनिया जानती है कि बीजेपी की स्मृति इरानी को देखकर उनके मन में कुछ कुछ ही नहीं बहुत होता है। लेकिन वैसा कुछ नहीं होता जो महिलाओं को देखकर कांग्रेस के दूसरे वकील नेता अभिषेक मनु सिंघवी के मन में होता है। चांदनी चौक से भले ही स्मृति सिब्ब्ल के सामने चुनाव हार गई थी, पर सिब्बल को उनने पइयां पइयां कर दिया था। स्मृति से सिब्बल कुढ़ते और चिढ़ते हैं क्योंकि वहीं एकमात्र हैं जो उनके लिए चुनौती बनकर लगातार खड़ी है। पर सिब्बल भी कोई डरपोक इंसान नहीं हैं।

वे दूसरे कांग्रेसियों की तरह अपनी औकात और हैसियत के बारे में किसी गफलत में भी नहीं है। राजनीति में अपनी औकात की गहराई माप चुके हैं और कांग्रेस में उनकी हैसियत की ऊंचाई देखने के लिए लोगों को दर्द होने की हद तक अपनी गर्दन उठानी पड़ती है। सिब्बल जलंधर के हैं, पर पहले चंडीगढ़, फिर दिल्ली और बाद में अमरीका के हार्वर्ड़ में पढ़े हैं। अमरीका की सुप्रीम कोर्ट में वकालात की, फिर बुद्धू की तरह नहीं मगर बुद्ध की तरह सब कुछ छोड़ कर लौट के दिल्ली आए, और हमारे देश में भी वकालात करके भी बहुत सिद्ध वकील और प्रसिद्ध राजनेता साबित हुए। वैसे कपिल सिब्बल का व्यावसायिक पद, सामाजिक कद और पार्टी में उनका पराक्रम देखकर किसी को भी आश्चर्य हो सकता है कि वे दिल्ली के चांदनी चौक जैसे बहुत पुराने इलाके से चुनाव क्यों लड़ते हैं। उनको तो किसी ऐसे इलाके से चुनाव लड़ना चाहिए, जहां प्रबुद्ध और अभिजात लोग रहते हैं। लेकिन जो लोग ऐसा सोचते हैं वे यह नहीं जानते कि सिब्बल ने इतिहास में एमए किया है और चांदनी चौक से ज्यादा जीवंत इतिहास हमारे देश में और कहां मिलेगा।

सन 1998 में वे पहली बार राज्यसभा में लाए गए और इससे पहले वे देश की सबसे बड़ी अदालत की बार कौंसिल के तीन बार मुखिया रह चुके थे। वे देश के सबसे महंगे वकील हैं। कहते हैं कि हमारे देश के बहुत सारे वकील पूरे जनम भर जितनी कमाई नहीं कर पाते, उतनी कमाई हमारे सिब्बल साहब के लिए मिनटों का खेल हैं। आदमी के रूप में बहुत संवेदनशील है, शायद इसीलिए कविता लिखते लिखते वे कई बार बातचीत में बहुत समझदारी के साथ खुद को अटल बिहारी बाजपेयी के साथ भी खड़ा कर देते हैं। वे कहते रहते हैं कि अटलजी भी कविता करते थे और राजनीति में थे, मैं भी कविता लिखता हूं और राजनीति में भी हूं। बात तो सही है कपिल सिब्बल की। उनकी एक कविता हैमुझे प्रेम का एसएमएस मत भेजना, क्योंकि मैं जल्दी मिटना नहीं चाहतातुम तो मुझे ईरेज कर दोगे। जाहिर है, सिब्बल ताकतवर बने रहना चाहते हैं, मिटना नहीं चाहते। मुलायम सिंह को सरकार गिराने की चुनौती और नरेंद्र मोदी को गली के दादा का खिताब दे देकर अपने जीने का इंतजाम करते रहिए सिब्बल साहब, सैक्स करते हुए सीडी में समा जाने की वजह से अभिषेक मनु सिंघवी के ठिकाने लग जाने के बाद कांग्रेस में तो आपको मिटाने की किसी की औकात नहीं है। लगे रहिए।

(लंखक राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं)

बिल्कुल इंदिराजी के अवतार में आ रही हैं सोनिया गांधी





-निरंजन परिहार-
कांग्रेस ने देश की सरकार के बहुत सारे घोटालों में फंसे मंत्रियों और बाकी नेताओं को भले ही उनकी औकात बता दी हो और अपने आदमी सरदार मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली अपनी यूपीए सरकार को साल भर तक और टिकाए रखने का इंतजाम कर दिया हो, मगर सोनिया गांधी कोई खतरा मोल नही लेना चाहती। उन्होंने चुनाव अभियान की शैली मे देश भर में घूमने की तैयारियां कर लही हैं। राजकुमार राहुल गांधी तो घूम ही रहे हैं। पर अगले कुछेक दिनों में उनके दोरे शुरू हो जाएंगे और कहीं उनके सर पर बांस की टोपी पहने तस्वीरे आपको देखने को मिलेंगी, तो कहीं वे आदिवासियों के साथ लोकनृत्य करती नजर आएंगी। नाम उनका सोनिया गांधी हैं, पर अंदाज बिल्कुल इंदिरा गांधी वाला है।
अगले कुछेक महीनों में वे कई बार राजस्थान भी जाएंगी। मध्य प्रदेश भी जाएंगी और  छत्तीसगढ़ के दौरे भी करेंगी। दिल्ली में तो खैर वे हैं ही। यह सब राज्यों के विधानसभा चुनावों के लिए होगा, लेकिन क्योंकि वे सोनिया गांधी हैं, सो राज्यों के साथ साथ उनका निशाना देश की सत्ता में आने पर भी होगा। वे आनेवाले कुछ दिनों में महाराष्ट्र भी जानेवाली है जहां शरद पवार की जबरदस्त चलती है और बीजेपी के साथ साथ राज ठाकरे की पार्टी ने भी अपना अच्छा खासा वोट बैंक विकसित कर लिया है। शिवसेना का भी महाराष्ट्र में खूब असर है। और इन सबके बीच पृथ्वीराज चव्हाण ने कांग्रेस को कहां लाकर खड़ा कर दिया है, यह भी वे जानती हैं। सोनिया गांधी को इस बात का भी अच्छी तरह अहसास है कि यूपी और बिहार कांग्रेस के हाथ से चला गय़ा है। कहा जाता है कि कोई चमत्कार ही अब इन दो राज्यों को फिर से कांग्रेस के हाथ में ला सकता है। इटली में जन्म लेने के बावजूद सोनिया गांधी अब पूरी तरह से भारतीय हो गई है, सो अब वे सतयुग और कलयुग में भी विश्वास करने लग गई हैं, और जानने लग गई हैं कि कलयुग में चमत्कार नहीं होते। सो, वे यह समझती हैं कि महाराष्ट्र भी हाथ से गया तो अगली सरकार बनाने में अच्छी खासी दिक्कतें आ सकती है।
राहुल गांधी और इनकी राजनीतिक कोशिशें कहने को तो कांग्रेस के भले के लिए हो रही हैं। पर, सही मायने में उनके प्रयास अभी भी पता नहीं किस दिशा में जा रहे हैं, यह सिर्फ राहुल गांधी ही समझ रहे होंगे। इस देश को तो कमसे कम कुछ भी समझ में नहीं आ रहा। फिर कांग्रेस के पास श्रीमती सोनिया गांधी से ज्यादा बड़ा और कांग्रेस की जीत को सुनिश्चित करवाने वाला कोई दूसरा नेंता नही है और जाहिर है कि सोनिया गांधी अपनी इस महिमा को अच्छी तरह समझती है और इसलिए वे अभी से चुनाव अभियान मुद्रा में आ गयी है। सोनिया गांधी के संसदीय तेवर देर से ही सही, राजनीति की भाषा सीख गए हैं और लुभाने भी लगे हैं। भाषण चुनावी अंदाज मे करना वे सीख ही गई हैं।
श्रीमती गांधी जानती हैं कि ऐसा कतई नहीं है, फिर भी मनमोहन सिंह को देश का अब तक का सबसे काबिल प्रधानमंत्री करार देकर उनके सारे पाप धो देती हैं। सरकार की ढ़ाल तो वे हमेसा से ही रही है, पर लगता हे कि आनेवाले महीनों में वे पूरी तरह से सरकार की खैरख्वाह बनकर उभरेंगी। वजह यही हैं कि वे वर्तमान में रहने की सारी राजनैतिक ललित कलाएं एक साथ प्रस्तुत करना सीख गई है। वैसे, दस जनपथ से जो खबरें आ रही हैं, उनके मुताबिक कांग्रेस यह मान कर चल रही है कि अगले आम चुनाव के बाद भी सरकार तो उनकी अगुवाई में ही बनेगी। यूपी से उसे कोई बहुत उम्मीद नहीं है। राजस्थान में भी लोकसभा की उसकी सीटें कम हो जाएंगी। दस जनपथ के वफादारों का मानना है कि बहुत सारी दुखी आत्माएं भी अंततः धर्मनिरपेक्षता के टोटकों की वजह से कांग्रेस के ही साथ आने को मजबूर होंगी। मतलब, सोनिया गांधी को यह समझ कर चल रही हैं कि अगले साल भर के खेल में मैदान में पूरी तरह वे ही रहेंगी। इंदिराजी भी साल भर पहले से ही सी तरह से कमर कस लेती थीं।  (लेखक राजनीतिक विशलेषक एवं वरिष्ठ पत्रकार हैं)


Saturday, May 25, 2013


राजस्थान बीजेपी में कितना
निखार लाएंगे यादव और सौमैया
-निरंजन परिहार-
राजस्थान बीजेपी में प्रभारियों के कप्तान तो कप्तान सिंह सोलंकी हैं। लेकिन पूर्व सांसद किरीट सोमैया ओर राज्यसभा सांसद भूपेंद्र सिंह यादव भी प्रदेश में सह प्रभारी के रूप में काम काज संभालेंगे। किरीट सोमैया पहले भी राजस्थान के सह प्रभारी रहे हैं। उनको आप थोड़ा बहुत जानते ही हैं। पर, भूपेंद्र सिंह यादव जब से राजस्थान में राजनीतिक रूप से सक्रिय हुए हैं, तब से ही लोग थोड़ा बहुत जानने लगे हैं। पर कुल मिलाकर उनके बारे में राजस्थान के लोग कम ही जानते हैं। यादव एड़वोकेट हैं, और सोमैया चार्टर्ड अकाउंटेंट। एक तरह से कहा जा सकता है कि दोनों वकील। लेकिन फिलहाल दोनों जनता के वकील के रूप में काम कर रहे हैं। एक संसद में हैं, तो दूसरा सड़क पर। दोनों राजनीति में अपेक्षाकृत युवा हैं।

पहले बात किरीट सौमैया की। दुनिया भर के बहुत सारे उल्टे सीधे रास्तों से खूब कमाई करके ईमानदारी के देवता के रूप में अचानक प्रकट हुए अरविंद केजरीवाल तो खैर, अब पैदा हुए हैं। और जितनी तेजी से उनका ग्राफ उभरा, उससे भी ज्यादा तेजी से बरबाद भी हो गया। लेकिन किरीट सौमैया का बड़े लोग की पोल खोलने का शगल बहुत पुराना है। हर्षद मेहता इस लोक से विदा हो गए, पर उनके तत्काल बाद 1993 में केतन पारेख से लेकर राज्यों और केंद्र के बहुत सारे नेता, कई बड़े अफसर, क़ॉरपोरेट जगत के बड़े बड़े लोग और अब गुजरात की राज्यपाल कमला बेनीवाल तक बहुत सारे नामी गिरामी लोग सोमैया नामक दहकते अंगारे की आग में झुलसे हुए हैं। बीजेपी के बाहर भी उनको फायर ब्रांड नहीं बल्कि अपने आप में आग का गोला माना जाता है। कहा जाता है कि किरीट सोंमैया उस भयानक भूत की तरह हैं, जो जिसको लग जाए तो फिर बिना जिंदगी लिए मानता ही नहीं है। आपको शायद जानकारी नहीं हो तो अपन बता देते हैं कि सौमैया के पोल खोलने की वजह से कई सारे बेईमान लोग सदा के लिए राजनीति के रसातल में चले गए और शेयर बाजार में आजकल ये जो लेन देन की बहुत क्लीयर ट्रांसपेरेंसी आई है, यह किरीट सौमैया का ही करतब है। 
  सांसद भुपेंद्र यादव बीजेपी के राष्ट्रीय सचिव हैं। चवालीस साल के हैं और 50 साल की ऊम्र तक तो राजनीति में हर किसी को जवान ही माना जाता है, सो वे जवान ही हैं। सुप्रीम कोर्ट में प्रैक्टिस करते हैं। होने को तो, संसद के दोनों सदनों में जो कुल 130 के करीब वकील हैं, उन्हीं में से एक भूपेंद्र यादव भी है। लेकिन राजस्थान के लिहाज से देखें तो भूपेंद्र यादव बाकी वकीलों से बहुत अलग हैं। और, राजस्थान की राजनीति से वे किस हद तक वाकिफ हैं, इसकी बानगी देखनी हो तो सिर्फ इतना भर जान लीजिए कि केकड़ी की राजनीति में किसकी हेकड़ी चलती है और पुष्कर में किसको खुश कर राजनीति में सफल हुआ जा जाता है, यह भी वे अच्छी तरह जानते हैं। सांसद भूपेंद्र यादव का राजस्थान और खासकर अजमेर से जन्मजात रिश्ता है। अजमेर में लंबे अर्से तक एबीवीपी का काम किया है और उस जमाने में जीसीए के नाम से विख्यात राजकीय महाविद्यालय छात्र संघ के उपाध्यक्ष भी रहे, जो अपनी पढ़ाई के लिए जितना विख्यात था, उतना ही वहां के छात्रों की ताकत और जातिवादी गुटों के लिए कुख्यात भी। वे यादव है और राजस्थान के जयपुर, अजमेर, भरतपुर, दौसा, अलवर, करौली, धौलपुर, सवाई माधोपुर और टौंक आदि यादव बहुल जिलों की राजनीतिक धारा को नया मोड़ देने में उनका भरपूर उपयोग किया जा सकता है। मतलब यह है कि यादव से पार्टी को बहुत उम्मीद है। यह महत्वपूर्ण तो है ही जिम्मेदारी भी है। सोमैया और यादव को बीजेपी की तरफ से उनको भले ही प्रदेश का सह प्रभारी बनाया गया है, पर वसुंधरा राजे को पता है कि किसको क्या जिम्मा देकर कि किस का कैसे कैसे दोहन करना है। यादव राजस्थान में वसुंधरा राजे की सुराज संकल्प यात्रा के संयोजक कोई यूं ही नहीं हैं। अब देखते हैं दोनों सह संयोजक राजस्थान में क्या असर दिखाते हैं।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं)

Friday, May 24, 2013

फिर तो आधा जोधपुर गहलोत का रिश्तेदार है




-निरंजन परिहार-
राजनीति में आरोपों का सिलसिला कोई नया नहीं है। लेकिन आरोप जब रिश्तेदारी निभाने को लेकर उछाले जाने लगें, और सामने आदमी का नाम जब अशोक गहलोत हो तो मामला कुछ ज्यादा ही भारी हो जाता है। वैसे, रिश्तेदारी का भी अपना अलग ही मायाजाल है। रिश्तों के बिना जिंदगी आसान नहीं होती। लेकिन लोग रिश्तेदारी को जी का जंजाल भी बना देते हैं। खासकर राजनीति में तो बहुत दूर की रिश्तेदारी भी आफत बनकर उभरती है। हमारे सीएम अशोक गहलोत इस तथ्य को और तथ्य में छुपे सत्य को पता नहीं जीवन के किस मोड़ पर बहुत अच्छी तरह समझ गए थे। इसीलिए रिश्तेदारी और रिश्तेदारों से शुरू से ही वे थोड़ी दूरी पर ही मिलते रहे।
Media Expert Niranjan Parihar , Singer Ganga Kalawant, Musician Kamal
Kalawant  Langa Group of Rajasthani Folk Singers Barkat Khan & Party
at Grand Holi event at Mumbai on 29th March, 2013.

अशोक गहलोत सन 1980 से लगातार किसी न किसी बड़े पद पर हैं। वे 33 साल से कभी सांसद, तो कभी केंद्र सरकार में मंत्री, कभी एआईसीसी के महासचिव तो कभी विपक्ष के नेता, और कभी प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष तो कभी सीएम रहे हैं। लेकिन कभी किसी रिश्तेदार को पास आने तो दूर राजनीति तक में कहीं पसरने नहीं दिया। फिर रिश्तेदार भी जानते हैं कि राजनेता अपनी रिश्तेदारियों को आम तौर बहुत कम ही निभा पाते हैं। खासकर गहलोत जैसे राजनेता अपने रिश्तेदारों से कितनी रिश्तेदारी निभाते हैं, और कितने काम आते हैं, यह अपने से ज्यादा कौन जानता होगा। बीते तीस साल से, जब से अपन ने समझ संभाली है, तब से लगातार अपन देख भी रहे हैं, और भुगत भी रहे हैं। अपन साए की तरह उनके साथ रहे, बरसों तक उनके काम किए, और अब बहुत दूर रहकर भी उनके साथ रहने जैसे ही हैं। पर, उनके अपने होने के बावजूद कभी उनसे किसी फायदे की आस नहीं पाली। वैसे, हर व्यक्ति का अपना स्वभाव होता है, हमारे सीएम गहलोत का यही स्वभाव है, और उसे अपन बदल तो नहीं सकते।
विरोधी होने का धर्म निभाने के लिए गहलोत के विरोधी भले ही उनके खान आवंटन में रिश्तेदारी निभाने की बात कहते हों, पर यह तो उनके विरोधी भी जानते हैं कि गहलोत कभी किसी रिश्तेदार को अपने पास फटकने भी नहीं देते हैं। गहलोत ने कब, कहां, किससे, कैसी रिश्तेदारी निभाई है, यह तो रिश्तेदारों का जी जानता है। और ज्यादा सच जानना हो तो यह भ4 जन लीजिए कि दूर के रिश्तेदार तो बेचारे सीएम से अपनी रिश्तेदारी सार्वजनिक रूप से जाहिर करने से भी बचते हैं। वजह यही है कि वे सीएम गहलोत का स्वभाव जानते हैं। अब जब, गहलोत को रिश्तेदारों को खान बांटने के बवाल को बहुत बढ़ाया जा रहा है तो अपना भी आपसे कुछ सवाल करने का हक बनता हैं। सवाल यह है कि आपके भांजे के साले का भतीजा कौन है ? जरा बताइए तो? आपके भांजे के साले का समधी कौन है ? या फिर आपके भांजे के साले के समधी का साला कौन है? या फिर भांजे के साले के समधी का भाई कौन है? आप नहीं बता सकते। क्योंकि दूर के रिश्तेदारों के भी बहुत दूर के रिश्तेदारों को रिश्तेदार तो बेचारे कहने भर के रिश्तेदार होते है।
फिर ऐसी ही रिश्तेदारी तलाशनी है और ऐसी ही पत्थर की खदानों से जुड़े नाम गहलोत के माथे पर चिपकाने हैं, तो फिर करीब आधे से भी ज्यादा जोधपुर की गहलोत से रिश्तेदारी है और उनमें से सारे का सारे या तो पत्थर की खदानों को मालिक हैं या फिर ठेकेदार। कोई पांच साल पहले कोटा में जब अपन ने भी सरकार से पत्थर की खदान ली थी, तब भी भाई लोगों ने खूब कोहराम मचाया। लेकिन कुछ नहीं बिगाड़ पाए। अब चुनाव का मौसम शुरू हो गया है। विरोधियों को अपने भविष्य की चिंता है। ऐसे में कलंक की काजल लेकर गहलोत के पीछे पड़ने के अलावा उनके पास कोई चारा नहीं है। लेकिन आप ही बताइए कि राजनेताओं के रिश्तेदार और रिश्तेदारों के रिश्तेदार और उनके भी दूर रिश्तेदार होने की वजह से सारे रिश्तेदार लोग अपना धंधा पानी समेटकर भीख मांगना तो नहीं शुरू कर सकते।
     (लेखक राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्छ पत्रकार हैं)

Thursday, May 23, 2013


राज बब्बर की राजनीति के रौनक का राज
-निरंजन परिहार-
नई दिल्ली के महादेव रोड़ के बीस नंबर बंगले की रौनक अब कुछ ज्यादा ही बढ़ गई हैं। इसलिए, क्योंकि राज बब्बर अपने जीवन के अब तक के सबसे मजबूत मुकाम पर पहुंच गए हैं। कल तक वे अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की कार्यसमिति के सदस्य थे, पर अब वे अधिकारिक प्रवक्ता भी हैं। कांग्रेस में देश चलाने के रास्ते इसी तरह से खुलते हैं। एक आदमी किसी एक जनम में आखिर क्या क्या हो सकता है, राज बब्बर इसके सबसे सटीक उदाहरण हैं। वे राजनेता भी हैं, अभिनेता भी हैं और जन नेता भी। जन नेता नहीं होते, तो मुलायम सिंह यादव के पुत्र अखिलेश सिंह यादव के यूपी के सीएम बन जाने से खाली की हुई सीट से उनकी पत्नी डिंपल यादव को हराकर फिरोजाबाद से संसद में नहीं पहुंचते। वे जन नेता है, क्योंकि उत्तर प्रदेश की घनघोर जातिवादी राजनीति के बीच राज बब्बर जिस वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं, उस पंजाबी समुदाय की आबादी तो वहां एक प्रतिशत भी नहीं है। फिर भी वे फिरोजाबाद से जीते, जहां की चूड़ियां पूरी दुनिया में मशहूर हैं।

पहली बार 1994 में राज्यसभा और उसके बाद तीन बार लोकसभा में पहुंचे राज बब्बर अब कांग्रेस के सांसद हैं। इससे पहले उनकी राजनीति चमकी तो बहुत, पर वह चमक इतनी चमत्कृत कर देनेवाली चकाचौंध भरी कभी नहीं थी। पर, आज राज बब्बर को देश के सर्वोच्च सत्ता की सर्वेसर्वा श्रीमती सोनिया गांधी का विश्वास हासिल है और राहुल गांधी भी उनकी बात पर भरोसा करते हैं। मतलब साफ है कि वर्तमान तो अच्छा है ही, भविष्य भी उज्ज्वल लग रहा है। देश की सरकार चलाने के रास्ते दस जनपथ से ही निकलते हैं, और जिसे वहां का विश्वास हासिल हो, तो जिम्मेदारियां भी कुछ ज्यादा ही बढ़ जाती हैं। कांग्रेस में यह विश्वास किया जाता है कि राज बब्बर विश्वसनीय तो हैं ही, जिम्मेदार भी हैं। सो अगले लोकसभा चुनाव के प्रचार अभियान के एक हीरो वे भी होंगे। स्टार कैंपेनर तो वे शुरू से ही रहे हैं, और फिल्मों में हीरो भी।
Congress MP Raj Babbar Launching new book of Media Expert
Mr. Niranjan Parihar, along with Ex. union Minister Dr. Sanjay Sinh
 and RajasthaBJP President Arun Chaturvedi. 
हालांकि, राज बब्बर की जिंदगी पहले भी मजे से थी और आज भी कोई कमी नहीं है। यह तो, निरंकुश सीईओ की भूमिका में अमर सिंह ने पूरी समाजवादी पार्टी को ही प्राइवेट लिमिटेड कंपनी में तब्दील कर दिया था, जिससे नाराज होकर राज बब्बर ने अलविदा कह दिया। फिर, अमर सिंह तो खैर, अपने आप में एक अलग संस्कृति के प्राणी थे। वह संस्कृति, जो दलाली से निकल कर सिर्फ दलदल में समाती है, अमरसिंह जीते जी उसी में समा गए। लेकिन राज बब्बर संस्कारी आदमी हैं। और समाजवादी पार्टी या संस्कार, दोनों में से एक को उनको चुनना था, सो उन्होंने समाजवादी पार्टी से अपने संबंधों का अंतिम संस्कार करते हुए अलविदा कह दिया।  
राज बब्बर मूल रूप से अभिनेता हैं। फिल्मों में काम किया, तो इस कदर किया डूबकर किया कि कभी फिल्में उनकी वजह से और कभी वे फिल्मों की वजह से चलते रहे। यही वजह है कि उनने भले ही अपनी जिंदगी का ज्यादातर वक्त राजनीति को देना शुरू कर दिया हो, पर फिल्मों ने उनको अभी भी अपनी मजबूत डोर से बांधे रखा है। राज बब्बर अब फुल टाइम राजनेता हैं, फिर भी फिल्में हैं कि मुंईं छोड़ती ही नहीं। शायद इसलिए, क्योंकि राज बब्बर होने की अहमियत फिल्मों को पता है। हाल ही में आई उनकी फिल्म साहब, बीवी और गैंगेस्टर के उस सीन को याद कीजिए, जिसमें राज बब्बर सिर्फ एक शब्द और एक सीन में ही पूरी महफिल ही लूटकर निकल जाते हैं। आपको याद हो तो, साहब, बीवी और गैंगेस्टर में जब वह मुग्धा के आइटम सॉंग के दौरान मुग्ध होकर निहायत त्रस्त स्वर में तिवारी........पुकारते हैं, तो हर किसी को समझ में आ जाता है कि किसी फिल्म में राज बब्बर के होने का मतलब क्या है। लेकिन फिर भी राज बब्बर के लिए रिश्ते रिश्ते हैं, जिंदगी जिंदगी है और सिनेमा सिनेमा। राज बब्बर से अपने रिश्तों पर बात कभी और करेंगे। क्योंकि अपन इतना जानते हैं कि संबंधों के समानांतर संसार की संकरी गलियों में रिश्तों की राजनीति के राज, राज बब्बर अच्छी तरह जानते हैं। महादेव रोड़ के उनके बंगले पर कुछ ज्यादा रौनक कोई यूं ही नहीं है।  
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं)