Saturday, June 8, 2013

गालियों वाले गोपाल शर्मा की जिंदगी का साठवां साल
-निरंजन परिहार-
मुंबई के गोपाल शर्मा... वरिष्ठ पत्रकार। जाने माने स्तंभ लेखक और भाषा की जबरदस्त शैली व शिल्प के कारीगर। उम्रदराज होने के बावजूद मन बिल्कुल बच्चों सा। आदत औघड़ सी और जीवन फक्कड़ सा। बहुत लिखा। जमकर लिखा। कभी किसी का सहारा नहीं लिया। फिर भी खुद कईयों का सहारा बने। संपादक से लेकर हर पद पर काम किया। कई संस्थानों में रहे। और जितनी जगहों में काम किया, उनसे ज्यादा को छोड़ दिया। छोड़ा इसलिए क्योंकि उन संस्थानों को उनने अपने योग्य माहौलवाला नहीं माना।
Gopal Shjarma and his wife at their felicitation with
 Alok Tripathi, Vagish Saraswat, Nand Kishor Nautial,
Alok Bhattacharya, Prem Shukla and others at Mumbai.
पर, इतने भर से गोपाल शर्मा का परिचय पूरा नहीं हो जाता। गोपाल शर्मा का असली तब पूरा होता है, जब उनके बारे में दुनिया को यह बताया जाए कि वे मुंबई के एकमात्र ऐसे पत्रकार हैं, जिनके जो मन में आया बोल दिया। जैसा आया बोल दिया। मुंहफटगिरी में उनका कोई जवाब नहीं। मुंहफटाई भी ऐसी कि जैसे दुनिया में हर एक की सारी मां-बहनों की जनम कुंडली उन्ही के पास हों। कोई भी उनसे बच नहीं पाया। क्या मालिक और क्या संपादक। सारे के सारे एक कतार में। अभी कुछेक साल से पत्रकारिता में आए नए लोगों को छोड़ दिया जाए, तो मुंबई में शायद ही तो कोई पत्रकार हो, जिसके लिए गोपाल शर्मा के श्रीमुख से फूल ना झरे हों। उनसे पहला परिचय हो या पहली बातचीत। गोपाल शर्मा की शुरूआत ही उनके मुंह से झरनेवाले खूबसूरत फूलों से होती है। तब भी और अब भी। कुछ भी नहीं बदला। इतने सालों बाद भी वे जस के तस हैं। उनने ताऊम्र व्यक्तिगत उलाहनों से लेकर भरपूर गालियों के प्रयोग करते हुए लोगों से व्यवहार किया। लेकिन फिर भी यह सबसे बड़ा सवाल है कि वे ही लोग आखिर इस शख्स को इतना प्यार क्यों करते हैं। वे लोग, जिनने गोपाल शर्मा की गालियां खाई और पिटाई झेली, वे ही उनसे इतना स्नेह क्यों करते हैं। यह सबसे बड़ा सवाल रहा है। सवाल यही आज भी है और कल भी रहेगा।
वे गजब के लेखक हैं। अपनी विशिष्ट मारक भाषा शैली में किसी की भी खाल उधेड़ने में उनका कोई सानी नहीं। तो, उनकी बराबरी का रिपोर्ताज लिखनेवाला कोई आसानी से पैदा नहीं होता, यह भी सबको मानना पड़ेगा। जब लिखते हैं, तो इतना डूबकर लिखते हैं कि पढ़नेवाला चिंतन करने लगता है कि ये गोपाल शर्मा कोई आदमी है या इनसाइक्लोपिडिया। हर पहलू को छानकर अगल - बगल की गहरी पड़ताल के साथ सारी बातों के तकनीकी तथ्यों और संपूर्ण सत्य के साथ पेश करना उनके लेखन की खासियत है। साढे चार सौ से ज्यादा कविताएं लिखीं। एक हजार से भी ज्यादा कहानियां भी लिखी। सारी की सारी देश की नामी गिरामी पत्र पत्रिकाओं में छपी। लेकिन इस सबका गोपाल शर्मा का कोई दर्प नहीं। कभी उन्होंने खुद को साहित्यकार नहीं समझा। गजब की भाषा शैली और बेहद गहराईवाला लेखन करनेवाले गोपाल शर्मा को एक चलता फिरता ज्ञानकोष कहा जा सकता है। लेकिन बाबा आदम की औलाद की एक जो सबसे बड़ी कमजोरी है कि वह यही है कि हम किसी के भी सिर्फ एक पहलू को पकड़कर उसी के जरिए किसी का भी चित्रण करते रहते है। गोपाल शर्मा के बारे में ज्यादातर लोग सिर्फ यही जानते हैं कि उनने जितना लेखन को जिया हैं, उसमें ज्यादातर वक्त शराब को दिया है। बहुत सारे लोग शुरू से लेकर अब तक उनके जीवन की रंगीनियों वाले पहलू का परीक्षण करते हुए तब भी और आज भी उन पर मरनेवालियों की लंबी चौड़ी संख्या गिनाकर भी उनके चरित्र का चित्रण करते रहते हैं। पर, इस सबके बावजूद गोपाल  शर्मा कुल मिलाकर एक बेहतरीन लेखक, जानकार पत्रकार और लगातार लेखन करनेवाले जीवट के धनी आदमी हैं, जिनमें आदमियत भी ऊपरवाले ने कूट कूट कर भरी है।   
गोपाल शर्मा के बारे में बरसों से खुद से सवाल कर रहे मुंबई के मीडिया जगत ने हिंदी के इस लाडले पत्रकार का 60वां जन्मदिन मनाया रविवार के दिन। 28 अक्टूबर 2012 को। घाटकोपर के रामनिरंजन झुंझुनवाला कॉलेज के सभागार में उस दिन वे सारे चेहरे थे, जो कभी ना कभी गोपाल शर्मा के निशाने पर रहे। वाग्धाराद्वारा आयोजित गोपाल शर्मा के साठवें जन्मदिन के आयोजन में वागीश सारस्वत, अनुराग त्रिपाठी, और ओमप्रकाश तिवारी की विशेष भूमिका रही। मंच पर थे दोपहर का सामना के कार्यकारी संपादक प्रेम शुक्ल, वरिष्ठ पत्रकार नंदकिशोर नौटियाल, जगदंबाप्रसाद दीक्षित और आलोक भट्टाचार्य के अलावा गोपाल शर्मा की पत्नी प्रेमा भाभी। गोपाल शर्मा तो थे ही। कईयों ने गोपाल शर्मा के साथ अपने अनुभव सुनाए तो कुछ ने उनके चरित्र की चीरफाड करके उनके मन के अच्छेपन को सबके सामने पेश किया। बहुत सारे वक्ताओं ने प्रेमा भाभी को उनकी संयम क्षमता, उनके धीरज और उनकी दृढ़ता पर बधाई देते हुए कहा कि मीडिया जगत के बाकी लोग तो सार भर में एकाध बार गोपाल शर्मा को झेलते रहे, पर प्रेमा भाभी ने जिस धैर्य को साथ उनको जिया, वे सचमुच बधाई की पात्र हैं। जो लोग मंच से बोले, वे सारे के सारे गोपाल शर्मा की गालियां खा चुके हैं, फिर भी उनके बारे में अच्छा ही नहीं बहुत अच्छा बोल रहे थे। गोपाल शर्मा के बारे में अपन भी बोले। उनके शरारती व्यवहार और मोहक अंदाज के अलावा फक्कड़पन पर बोले। सबने उनकी तारीफ की। जो जीवन भर गोपाल शर्मा को गालियां देते रहे, उनने भी गोपालजी कहकर अपनी बात शुरू की। सम्मान दिया। उनके व्यक्तित्व की व्याख्या की। और कृतित्व की तारीफ की। किसी ने उनको फक्कड़ कहा। किसी ने औघड़। किसी ने गजब का आदमी बताया। तो किसी ने उनके भीतर बैठे बच्चों जैसे आदमी को दिखाया। कुल मिलाकर यह आयोजन गोपाल शर्मा के पत्रकारीय कद की एक महत्वपूर्ण बानगी रहा। खचाखच भरा हॉल देखकर अनुराग त्रिपाठी ने कहा कि गोपाल शर्मा ने जीवन भर लोगों के साथ जैसा व्यवहार किया, उसको देखकर शक था कि लोग आएंगे भी या नहीं। पर....., वाह गोपालजी... आपके जन्मदिन पर साबित हो गया कि लोग आपको बहुत स्नेह करते हैं... बहुत प्यार करते हैं। इस मौके पर उनकी पहली किताब बंबई दर बंबई का विमोचन भी हुआ। वरिष्ठ पत्रकार अभिलाष अवस्थी, बृजमोहन पांडे, सरोज त्रिपाठी, संजीव निगम, निजामुद्धीन राईन, अनिल गलगली, अखिलेष त्रिपाठी आदि तो थे ही, जानी मानी लेखिका और वाग्धाराकी प्रबंध संपादक सुमन सारस्वत भी थी। विलास आठवले, ब्रह्मजीत सिंह, सुरेंद्र मित्र, दयाशंकर पांडेय, जाकिर अहमद, शेषनारायण त्रिपाठी, राकेश शर्मा, दयाकृष्ण जोशी, दयाशंकर पांडे, अखिलेश चौबे, आनंद मिश्र, अरविंद तिवारी और जयसिंह सहित कई अन्य लोग भी उपस्थित थे। मुंबई के हिंदी पत्रकारिता जगत के और भी कई नए पुराने नामी लोग हाजिर थे, गोपाल शर्मा का साठवां जन्मदिन मनाने के लिए। किसी को अपनी यह बात अतिश्योक्ति लगे तो अपनी बला से, पर सच्चाई यही है कि मुंबई की हिंदी पत्रकारिता का एक पूरा युग गोपाल शर्मा के कर्मों और सत्कर्मों का तो ऋणी है ही उनके धतकर्मों का भी ऋणी है। उनके जन्म दिन के इस आयोजन में यह भी साबित हो गया। गोपाल शर्मा जैसा दूसरा कोई ना तो हुआ है और ना ही होगा। हो तो बताना।       

(लेखक मुंबई के जाने माने वरिष्ठ पत्रकार हैं)

Thursday, June 6, 2013

गहलोत के सामने बौने
साबित होते बाकी नेता
-निरंजन परिहार-
राजस्थान में अशोक गहलोत ने बाकी सबको बौना बना दिया है। राजस्थान के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है कि विधानसभा चुनाव खुले आम आठ महीने पहले से ही शुरू हो गया। इतने लंबे चुनाव प्रचार में लोग तो क्या पार्टियां तक थक जाती हैं। पर यह कांग्रेस के धुरंधर नेता राजस्थान के सीएम अशोक गहलोत की खुद को केंग्र में रखकर फिर से सरकार बनाने की दूरदृष्टि और वसुंधरा राजे की सरकार में आने की बेताबी ही इस माहौल की मजबूती कही जा सकती है। दोनों सुसज्ज हैं, दोनों पूरी क्षमता से मैदान में है। लेकिन इस बात का क्या किया जाए कि समूचे राजस्थान में बहुत तेजी से यह माहोल बनता जा है कि गहलोत ने बढ़िया काम किया है। भले ही सरकार लंगड़ी थी और कोई मंत्री राजनीतिक रूप से बहुत ताकतवर भी नहीं था। फिर भी उधार के बहुमत को मजबूत आधार में तब्दील करने का करिश्मा गहलोत ने किया और सरकार चलाई। काम भी किया। सो राजस्थान में सरकार के विरोध की धारणा तो खत्म हो ही गई, अब गहलोत के फिर से सरकार बनाने की बात पुख्त होती जा रही है।
बीजेपी इसीलिए बेचैन है। वैसे, बेचैनी कांग्रेस के नेताओं में भी है। उनको डर है कि इस बार अगर फिर से कांग्रेस ने सरकार बना ली तो सेहरा सिर्फ अशोक गहलोत के सिर पर ही बंधेगा। सारी फूमालाएं भी उन्हीं को मिलेंगी। दूसरे किसी को भी माला छोड़कर फूल तो क्या, पंखुड़ी भी नहीं मिलेगी। मंच भी गहलोत का, काम भी उनका, लोग भी उनके और यात्रा में भी वे ही वे। हर तरफ तेरा जलवा की तर्ज पर गहलोत ही गहलोत। दूसरे किसी के लिए कोई जगह ही नहीं है। दरअसल, गहलोत की सरकारी योजनाओं की जनता को जानकारी देने की इस .कांग्रेस संदेश.यात्रा ने कब उनके निजी रोड़ शो का रूप धर लिया किसी को समझ में ही नहीं आया। पर निश्चित रूप से गहलोत शुरू से ही समझ रहे होंगे। सो, शुरू से ही सबको अलग रखा। जिसको आना हो, अपने अपने इलाके में आओ। गहलोत पूरे प्रदेश में, बाकी लोग सिर्फ अपने इलाके में। राजनीति में कद इसी तरह से तय होते है।
 दरअसल, गहलोत यह सब इसलिए कर लेते हैं, क्योंकि उनको कोई चिंता नहीं है। भविष्य सुरक्षित है। राजनीति के सारे भंवर, प्रपात और प्रवाह वे पार कर ही चुके हैं। अब, अपनी योजनाओं को जनता के दिलों में बिठाने के लिए निकल रही गहलोत की यात्रा ने जो प्रदेशव्यापी माहौल बनाया है, उससे राजस्थान में ही नहीं देश में भी उनकी भविष्य की राजनीति को सुरक्षित कर दिया है। उनके पास अपनी योजनाओं का अंबार है। वे उनका बखान नहीं, प्रचार कर रहे हैं। और निशाने पर बीजेपी को रखे हुए है। लेकिन बीजेपी की ताकत देखें, तो उसकी मजबूरी यह है कि वह जिन हथियारों के सहारे लड़ रही है, उनकी धार के निर्माता भी गहलोत ही है। बीजेपी सरकार की योजनाओं के खिलाफ खूब बोल रही है, जो गहलोत की ही बनाई हुई हैं। मतलब कांग्रेस में तो गहलोत है ही, बीजेपी में भी गहलोत। इसके अलावा बीजेपी के पास कुछ है ही नहीं। बीजेपी का गहलोत की योजनाओं का विरोध करना जनता को सुहा नहीं रहा है।  
कुछेक कांग्रेसियों को इस बात पर पता नहीं क्यूं हैरत है कि गहलोत के संबोधन में प्रदेश की योजनाओं और उपलब्धियों का प्रचार ज्यादा और केन्द्र सरकार की उपलब्धियों का जिक्र कम होता है। लेकिन गहलोत सही है क्योंकि चुनाव प्रदेश का है, दिल्ली का नहीं। दिल्ली में सोनिया गांधी से लेकर राहुल भैया और सारे केंद्रीय नेताओं को पता है कि राजस्थान में कांग्रेस की नैया के खिवैया सिर्फ और सिर्फ अशोक गहलोत ही हैं। और अपना तो यहां तक मानना है कि राजस्थान में एक अशोक गहलोत को छोड़ दें, तो सीपी जोशियों, चंद्रभानों और बाकी बहुत सारे अल्लू – पल्लुओं के भरोसे तो कांग्रेस पच्चीस सीटें भी जीत नहीं सकती। श्रीमती वसुंधरा राजे ऐसे बहुत सारे नेताओं को एकसाथ चट करने का माद्दा रखती हैं। 

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं)
नई भूमिका में नरेंद्र मोदी
-निरंजन परिहार-
आप जब ये पंक्तियां पढ़ रहे होंगे, तो या तो गुजरात के सीएम नरेंद्र मोदी के बारे में गोवा से कोई नई खबर आपको मिल चुकी होगी। या फिर वह खबर बन रही होगी। या वह खबर हवा में तैरने को तैयार होगी। थोड़ी देर बाद, जब आप अपना टीवी खोलेंगे तो ब्रेकिंग न्यूज की शक्ल में बीजेपी में मोदी की नई भूमिका और उस भूमिका की महिमा का बखान होता देख रहे होंगे। कुल मिलाकर, नरेंद्र मोदी अपने राष्ट्रीय अवतार में प्रकट होनेवाले हैं। गुजरात तो फतह कर ही लिया है। अब देश में छा जाने की बारी है। राष्ट्रीय स्तर के बयान तो मोदी के पहले से ही आने शुरू हो गए हैं।
अपन यह सब इसलिए कह पा रहे हैं क्योंकि एक ही दिन में इतनी सारी खबरें एक साथ आई हैं कि नरेंद्र मोदी अचानक बहुत बड़े नेता के रूप में उभरकर देश के सामने आए हैं। सबसे पहले तो 20 देशों के राजदूतों ने मोदी से मुलाकात करके गुजरात के विकास पर बातचीत की। चौंकानेवाली बात यह है कि हिंदुस्तान के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ है कि इतने सारे राजदूतों ने एक साथ मिलकर किसी सूबे के सीएम के साथ वहां के विकास के मामले में मुलाकात की हो। ब्रिटेन और जर्मनी के बाद एक अन्य यूरोपीय देश बेल्जियम ने कहा कि वह गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी से संवाद बढ़ाने को तैयार है ताकि गुजरात के साथ व्यावसायिक संबंधों को मजबूत किया जा सके।
गोवा में हिंदू जागृति समिति द्वारा आयोजित अखिल भारतीय हिंदू सम्मेलन में मोदी का लिखित संदेश पढ़ा गया। स्वामी रामदेव ने कहा कि नरेंद्र मोदी ही देश में अकेले ऐसे नेता है जो जनाक्रोश को वोट में बदल सकते हैं। गोरक्ष पीठ के उत्तराधिकारी व गोरखपुर के सांसद योगी आदित्यनाथ ने लखनऊ में कहा कि नरेंद्र मोदी में अच्छा नेतृत्व प्रदान करने की क्षमता है। बीजेपी के राष्ट्रीय महासचिव राजीव प्रताप रूड़ी ने पटना में लगभग धमकाते हुए जेडीयू की हार पर कहा कि बीजेपी को ही नहीं जेडीयू को भी नरेंद्र मोदी की जरूरत है। मोदी अगर बिहार में प्रचार के लिए आते, तो जेडीयू नहीं हारती। नई दिल्ली में बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने ऐलान किया कि मोदी और लालकृष्ण आडवाणी के बीच कोई मतभेद नहीं हैं। और बीजेपी के वरिष्ठ नेता मुख्तार अब्बास नकवी ने स्पष्ट किया कि उनके लौहपुरुषजी लालकृष्ण आडवाणी न तो पार्टी के किसी नेता के पक्ष में हैं और न ही किसी के विरोध में। इन सारी खबरों को एक दूसरे से जोड़कर देखें, तो निष्कर्ष यही है कि दुनिया से लेकर देश और प्रदेश से लेकर समाज के स्तर पर मोदी और उनकी अगली भूमिका के प्रति स्वीकारोक्ति बढ़ती जा रही है।
मंजिल भले ही बहुत मुश्किल है, पर रास्ता भी कोई आसान नहीं है। ऐसा रास्ता पार कराने के लिए कोई रहनुमा भी कोई मजबूत चाहिए। रथयात्रा निकाल कर लालकृष्ण आडवाणी रबहर बने, तो बीजेपी की सरकार बन गई। अब आडवाणी वृद्ध हैं। शरीर थक जाता है और दिमाग तो पता नहीं क्या क्या खेल कर रहा है, हम रोज देख ही रहे हैं। सो, बीजेपी को ही नहीं देश भर को लग रहा है कि अगले चुनाव में मोदी से बढ़िया रहबर कोई नहीं हो सकता है। फिर मोदी ने अपने बंदों को पहले ही दिल्ली के अशोक रोड़ स्थित बीजेपी के मुख्यालय में प्रतिष्ठित कर दिया है। राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह से लेकर महासचिव अमित शाह तक सबके सब उनके ही आदमी हैं। बाकी भी बहुत सारे मोदी के आदमी वहां बिराजमान हैं। इस सबके पार जाकर देखें, तो मोदी एक खुर्रांट, खांटी और खबरदार करनेवाले राजनेता के रूप में हर तरह से सफल भी हैं, सबल भी है और सक्षम भी। राजनीति में किसी के भी किसी पद पर होने की इससे बड़ी योग्यता इसके अलावा कुछ नहीं होती। फिर मोदी तो चमत्कार करने में माहिर हैं। सो, कद के मुताबिक पद भी तय है। सिर्फ ऐलान बाकी है। अपन इसीलिए कह रहे हैं कि आप जब ये पंक्तियां पढ़ रहे होंगे, तो गुजरात के सीएम देश के नेता के रूप में प्रतिष्ठित होने के लिए कदम बढ़ा चुके होंगे।  

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ट पत्रकार हैं)

Wednesday, June 5, 2013

बचा खुचा गुजरात भी
फतह कर आए ओमजी
-निरंजन परिहार-
बीजेपी के लौहपुरुषजी यानी लालकृष्ण आडवाणी पिघल गए हैं। नरेंद्र मोदी का जयकारा लगनेवाला है। सुलह हो गई है। और ओमजी भाई साहब बम बम हैं। ओमजी, यानी राजस्थान बीजेपी के दिग्गज नेता राज्यसभा सांसद ओम प्रकाश माथुर। लोग सम्मान के साथ उनको बीजेपी में तो कमसे कम ओमजी भाई साहब के नाम से ही पुकारते हैं। और दुश्मनों की मुसीबत यह है कि उनके लिए नाम बिगाड़कर बोलना आसानी से संभव नहीं है। फिर ओम बिना जी के शोभा भी नहीं देता। सो, शुभचिंतकों से लेकर राजनीति के उनके दुश्मन तक उनको इसी नाम से याद करते हैं। तो, ओमजी भाई साहब के बम बम होने की वजह कोई नरेंद्र मोदी और लौहपुरुषजी की गलबहियां नहीं हैं। राजनीति में यह सब होता रहता है। उनके खुश होने का कारण है गुजरात में उपचुनावों के परिणाम। कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो गया। दो लोकसभा और चार विधान सभा में से एक पर भी कांग्रेस नहीं जीत पाई। और हार भी हुई तो बहुत बुरी तरह से। अब तक तो लोग चारों खाने चित होते थे। पर, गुजरात की छहों सीटों पर कांग्रेस छहों खाने चित। और वह भी तब, जब नरेंद्र मोदी ने किसी भी सीट पर जाकर प्रचार तक नहीं किया। सब कुछ ओमजी भाई साहब के हवाले था। और ओमजी अकेले दम पर रहा सहा गुजरात भी फतह करके ले लाए।
   
राजस्थान बीजेपी के अब तक के सारे अध्यक्षों में सबसे पराक्रमी अध्यक्ष के रूप में विख्यात ओमजी भाई साहब का गुजरात से पुराना नाता रहा है। बरसों से वे गुजरात बीजेपी के प्रभारी हैं। गजब के रणनीतिकार हैं और राजनीति में पता नहीं कहां से बिसात ही ऐसी बिछाना सीखे है कि दुश्मन के पास हारने के सिवाय कोई रास्ता ही नहीं बचता। यह तो पिछली बार राजस्थान में वसुंधरा राजे को शायद यह डर था कि ओमजी के लोग ज्यादा जीतकर आए, तो वे सीएम बन जाएंगे, सो आपस में ही लड़ मरे और अशोक गहलोत आधे अधूरे जनमत पर कांग्रेस की सरकार बनाकर सीएम बन बैठे। वरना, सन 2008 में राजस्थान में भी ओमजी ने रणनीति तो जगब की बनाई थी। माथुर बीजेपी के राष्ट्रीय महामंत्री रहे हैं। इस बार भी महासचिव के लिए नाम लगभग तय था, पर बीजेपी में पता नहीं चूक कहां हो गई कि माथुर रह गए।
गुजरात में दो लोकसभा सीटों- पोरबंदर और बनासकांठा के लिए और चार विधानसभा सीटों के उपचुनाव में बीजेपी ने शानदार जीत दर्ज की। गुजरात में इन उपचुनावों को कांग्रेस के लिए अग्निपरीक्षा माना जा रहा था। ये सभी सीटें कांग्रेस के पास थीं। लोकसभा सीट पोरबंदर से बीजेपी ने वहां पहले कांग्रेस का सांसद का चुनाव जीत चुके रादडिया को मैदान में उतारा था। सांसद का पद छोड़कर रादडिया ने धोराजी से विधायक का चुनाव लड़ा था। जीत गए। पर, कांग्रेस ने विधानसभा में विपक्ष के नेता का पद नहीं दिया तो अपने विधायक बेटे जयेश रादड़िया के साथ कांग्रेस से इस्तीफा देकर बीजेपी में आ गए। साबरकांठा में कांग्रेस सांसद मुकेश गढ़वी के निधन से खाली हुई थी। दो लोकसभा और चारों विधानसभा सीटों पर कांग्रेस को करारी हार का सामना करना पड़ा। मोदी के करीबी ओम माथुर लंबे समय से गुजरात से जुड़े हैं। उनकी पकड़ को देखते हुए ही बीजेपी ने उन्हें फिर से गुजरात का प्रभारी बनाया था।
गुजरात में उपचुनाव के दोरान चुनाव भी उन्हीं ने सजाया, लड़ाया भी उनने और जिताया भी उन्हीं ने। यही वजह है कि  गुजरात की दो लोकसभा और चार विधानसभा सीटों पर बीजेपी के क्लीन स्वीप में सबसे अधिक चर्चा चुनाव के रणनीतिकार ओमप्रकाश माथुर की ही है। गांधीनगर से लेकर दिल्ली और जयपुर तक ओमजी का डंका बज रहा है। हालांकि वे पहले भी गुजरात में बीजेपी को जिताते और कांग्रेस को हराते रहे हैं। लेकिन इस बार माथुर ने एक बार फिर कांग्रेस से सारी सीटें छीनकर अपने प्रभारी होने को तो सार्थक किया ही है। गजब के रणनीतिकार होने की अपनी छवि को भी मजबूत किया है। माथुर पर मोदी का भरोसा है। राजनीति में भरोसा जीतना कोई बहुत बड़ी बात नहीं होती। बड़ी बात होती है भरोसा करना। पर, वसुंधरा राजे यह सब सीखे तब न...!
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं)

Tuesday, June 4, 2013

...तो पत्ते गिनती नजर आएगी बीजेपी !
-निरंजन परिहार-
बीजेपी में अंदरुनी कलह खत्म होने का नाम नहीं ले रही। कलह के कलेवर का केंद्र अंतिम रूप से बीजेपी के लौहपुरुष ही हैं। आडवाणी कभी देश के नेता थे। बीजेपी के वरिष्ठ नेता तो वे अब भी हैं। लेकिन जब पार्टी ही रसातल में चली जाएगी, तो आडवाणी नेता किसके होंगे, उनको यह चिंता नहीं है। लौहपुरुषजी आजकल कुछ ज्यादा ही बदले बदले से सरकार नजर आ रहे हैं। सब कुछ यूं ही चलता रहेगा, तो न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी वाली कहावत बीजेपी पर बिल्कुल फिट बैठती नजर आएगी। किसी को समझ में नहीं आ रहा है कि आखिर नरेंद्र मोदी से आडवाणी की कहां बिगड़ गई है कि वे उनको घेरने में ही लगे रहते हैं। एमपी के शिवराज सिंह को मोदी से बेहतर सीएम बताने का मामला अभी ठंडा नहीं पडा था कि बीजेपी के लौहपुरुषजी ने एक पुराना राग फिर से आलाप दिया है। अब वे इस फिराक में है कि कैसे भी कर के 2014 के आम चुनाव में बीजेपी के प्रचार अभियान की कमान मोदी को न मिले।  

Media Expert Niranjan Parihar with Renowned Poet
 Mr. Surendra Sharma at Mumbai.
लालकृष्ण आडवाणी ने नितिन गड़करी को एक बार फिर से ढाल बनाने की कोशिश की है। वे चाहते हैं कि 2014 में होने वाले देश के आम चुनाव में बीजेपी के चुनाव अभियान के संयोजक के रूप में गडकरी काम करें। वैसे इस मामले में बहुत दिनों से देश भर में खुले आम जिस सिर्फ एक आदमी का नाम इस पद के लिए सबसे योग्य माना जा रहा है, वह नरेंद्र मोदी ही हैं। पार्टी से लेकर आम जनता तक जान रही है। लेकिन आडवाणी पता नहीं क्यूं अनजान होने का अभिनय कर रहे हैं। वैसे वे अभिनय कर सकते है। क्योंकि आडवाणी फिल्में देखने के शौकीन रहे हैं और बहुत सारे नए पुराने अभिनेताओं से उनके आत्मीय रिश्चते भी हैं ही, सो इतना तो अभिनय वे कर ही सकते हैं कि मोदी की आंधी का उन्हें पता तक नहीं है।
कुछ दिन पहले भी आडवाणी ने इस मामले को आगे बढ़ाने की कोशिश की थी। लेकिन बात बनी नहीं।  इस सिलसिले में आडवाणी ने गड़करी को अपने घर भी बुलाया। खाना भी खिलाया। पटाने की कोशिश भी की। लेकिन मामला जमा नहीं। गडकरी पता नहीं मोदी से डर रहे हैं या सीबीआई से। लेकिन आडवाणी के इस प्रस्ताव पर उनने बहाना यह बताया कि वे नागपुर से लोकसभा चुनाव लड़ने के इच्छुक हैं। और तर्क यह दिया कि अपने चुनाव के कारण देश भर का काम कैसे संभालेंगे। अपना मानना है कि मौके बार बार नहीं आते। गड़करी के पास वैसे भी अब खोने को बचा क्या है। और रही बात चुनाव लड़ने की, तो गड़करी को अपनी सलाह है कि वे इस मामले में राजस्थान के सीएम और कांग्रेस के धुरंधर नेता अशोक गहलोत को अपना गुरू बना लें। गहलोत जोधपुर में चुनाव लड़ने के लिए नामांकन भरने के बाद प्रदेश के दोरे पर निकल जाते हैं। एक सभा करते हैं, और लोगों से कहते हैं कि आज जा रहा हूं, अब सीधा वोट डालने ही आउंगा। उनका पूरा चुनाव जोधपुर के कार्यकर्ता लड़ते हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि गहलोत तो पूरे राजस्थान से उनके लिए लड़ रहे है।    
दरअसल, बीजेपी में एक बहुत बड़ा तबका चाहता हैं कि चुनाव अभियान के नेतृत्व को लेकर जल्द फैसला हो जाए तो ठीक। वरना, पार्टी पिछड़ जाएगी। कांग्रेस ने तो तैयारी भी शुरू कर दी है। अपना मानना है कि मोदी भले ही कितने भी तेजतर्रार नेता हैं, पर उनको भी तैयारी के लिए वक्त तो चाहिए। वैसे, गडकरी जब अध्यक्ष थे तो चुनाव अभियान मोदी को सौंपने की बात थी। ऐसे में आडवाणी का गडकरी को यह प्रस्ताव देना उनकी मोदी से बढ़ती दूरियों के राज खोलने के लिए काफी हैं। दरअसल बात यह है कि आडवाणी की मंशा यह हैं कि चुनाव अभियान समिति के मुखिया के रूप में मोदी का पत्ता साफ हो जाए। लेकिन मोदी का पत्ता अगर साफ हो गया तो बीजेपी देश भर में वोट तो नहीं, पर पत्ते गिनती जरूर नजर आएगी। न आए तो कहना।  
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं)


आडवाणी की असलियत  और बीजेपी में बवाल
-निरंजन परिहार-
लालकृष्ण आडवाणी। जिनने अपनी कोशिश से बीजेपी को भारतीय राजनीति में बहुत अचानक प्रमुख पार्टी बना दिया। बीजेपी आज जिस मुकाम पर है, वहां पहुंचाने में आडवाणी का ही सबसे महत्वपूर्ण योगदान है। बात बिल्कुल सही है। लेकिन आडवाणी द्वारा शिवराज सिंह की तारीफ के बाद पैदा हुई स्थिति की समीक्षा करेंगे, तो भी जवाब यही मिलेगा कि बीजेपी आज जिस मुकाम पर है, वहां पहुंचाने में आडवाणी का सबसे महत्वपूर्ण योगदान है। जिसने बीजेपी को बनाया, वही आडवाणी बीजेपी को बवाल बना रहे हैं। आज अटल बिहारी वाजपेयी की आधी अधूरी उपस्थिति की वजह से लालकृष्ण आडवाणी ही बीजेपी के सबसे बड़े नेता हैं। लेकिन बीजेपी के इन लौहपुरुषजी को यह सलाह देने का मन करता है कि आडवाणी को बड़े नेता होने के आचरण को एक बार फिर से सीखने की जरूरत है।
Media Expert Niranjan Parihar presented his newest book
to the President of India HE Mrs. Pratibha Patil.
The Book is a life scatch of Jain Saint Acharya
Chandranan Sagar Maharaj.  
ग्वालियर में आडवाणी ने पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी से शिवराज सिंह चौहान की तुलना करते हुए कहा कि दोनों विनम्र हैं और दोनों अहंकार से परे हैं। लगे हाथ आडवाणी ने विकास के लिये शिवराज सिंह की तुलना नरेन्द्र मोदी से कर डाली। और बवाल खड़ा करके दिल्ली आ गए। अब बेचारे राजनाथ सिंह सफाई देते घूम रहे हैं। वैसे यह कोई पहली बार नहीं है। अपने कहे से बवाल पैदा करना आडवाणी का पुराना शगल रहा है।
कुछ साल पहले आडवाणी ने एक किताब लिखी थी - 'माई कंट्री माई लाइफ' इसके विमोचन समारोह में देश के तब के उपराष्ट्रपति भैरोंसिंह शेखावत भी थे। संयोग से उनके साथ अपन भी थे। और खुश भी हो गए थे। अपन तो खैर इसलिए खुश थे कि आडवाणी की इस किताब में अपने माऊंट आबू का भी जिक्र है। 'माई कंट्री माई लाइफ'  में आडवाणी ने लिखा है कि माउंट आबू में जनसंघ की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक चल रही थी। उसमें पार्टी नेता और ज्योतिषी डॉ. वसंत कुमार पंडित भी आये हुए थे। जिनसे आडवाणी ने अपने राजनीतिक कैरियर के बारे पूछा तो जवाब मिला कि जनसंघ के सारे लोग दो साल के वनवास की तरफ बढ़ रहे हैं। यह सुनकर आडवाणी सन्न रह गए। बाद में आपातकाल की जेल ने इस बात को सही साबित भी किया। अपन छोटे आदमी थे, सो माऊंट आबू के जिक्र जैसी छोटी सी बात में ही खुश हो गए। पर, 'माई कंट्री माई लाइफ' के विमोचन में यूं तो बीजेपी के सारे बड़े नेता मौजूद थे। लेकिन इस कार्यक्रम में आडवाणी के लिए सबसे खास नरेन्द्र मोदी थे। समारोह में आए सारे लोगों को तब साफ लग रहा था कि अगर आज देश में आडवाणी के कोई सबसे करीबी है, तो वह नरेंद्र मोदी ही हैं। जैसा कि होता है, मोदी और आडवाणी की ये नजदीकियां बीजेपी के अन्य बड़े नेताओं को कभी खुशी, कभी गम देती रहीं, पर आज खुद आडवाणी लगता है गम में हैं। शिवराज की तुलना मोदी से करके शायद ने यही कहना चाह रहे हैं। 
 कंधार की घटना अभी इतनी पुरानी नहीं हुई है कि आप भूल गए हों। आडवाणी ने तब साफ झूठ बोल दिया था। आतंकवादियों को छोडने और जसवंत सिंह के आतंकवादियों के साथ कंधार जाने के फैसले को जसवंत सिह पर थोपकर साफ बच निकलने की कोसिश में थे। जबकि फैसला मंत्रिमंडल की बैठक में हुआ था।  और आडवाणी देश के गृह मंत्री की हैसियत से उस बैठक और फैसले, दोनों में शामिल थे। जसवंत सिंह ने बाद में एक किताब लिखी, जिसमें उनने जिन्ना की तारीफ की, तो कहते हैं कि वह आडवाणी ही थे, जिन्होंने जसवंत सिंह को पार्टी से निकालने की बात सबसे पहले की। जबकि उनसे भी पहले आडवाणी तो जिन्ना की मजार पर फूल चढाने भी गए थे और यह कहकर भी आए कि जिन्ना से ज्यादा धर्मनिरपेक्ष नेता भारत में कोई नहीं हुआ। कथाएं, दंतकथाएं और अंतर्कथाएं और भी बहुस हैं, पर बात सिर्फ आडवाणी की नहीं, समूची बीजेपी के बदलते चरित्र की है। और बीजेपी में जो हो रहा है, वह सिर्फ एक पार्टी के लिए ही नहीं,  समूचे देश के लिए भी दुर्भाग्यपूर्ण है। आखिर बीजेपी दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्र का सबसे बड़ा विपक्षी दल है। एक ऐसा प्रतिपक्ष, जिसका सबसे बड़ा नेता ऐसे बयान देता है जो पार्टी के लिए आफत बनकर उभरते हैं।                  (लेखक राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं)


Monday, June 3, 2013

क्यूंकि गहलोत चाहते हैं  सत्ता कांग्रेस की ही रहे
-निरंजन परिहार-
अशोक गहलोत अच्छे आदमी हैं। भले हैं और भलमनसाहत को समझते भी हैं। राजस्थान के इतिहास में इतने कम समय में एक साथ इतनी सारी सरकारी योजनाएं कभी शुरू नहीं हुईं, जितनी गहलोत के कार्यकाल में हुई हैं। हम कह सकते हैं कि गहलोत राजस्थान का भला करने पर उतरे हुए हैं। वसुंधरा राजे भले ही पूरे प्रदेश में कहती फिरें कि गहलोत ने राजस्थान को बरबाद कर दिया है। लेकिन उनकी बात कोई नहीं मानेगा। क्योंकि लोग मानते हैं कि गहलोत भले आदमी हैं, अच्छे आदमी हैं। अच्छा काम कर रहे हैं। हमारी राजनीति में किसी के अच्छा आदमी होने की अब तक जो परिभाषा थी, वह यही थी कि अच्छा आदमी यानी ढक्कन आदमी। गहलोत ने इस पूरी को पूरी तरह से उलटकर रख दिया है।

गहलोत की ताजा छवि को देखकर पूरे प्रदेश को लगने लगा है कि गूढ़ राजनेता हैं। जिनको आसानी से समझना बहुत मुश्किल है। अपना मानना है कि राजनीति में कोई सीधा सादा नहीं होता। सारे के सारे बहुत तेज तर्रार और चीते की तरह चालाक होते हैं। ऐसे लोगों के बीच अशोक गहलोत अगर बीते चालीस साल से राजनीति में कायदे से जिंदा हैं। कईयों की राजनीतिक जिंदगी के निर्माता भी हैं। और निर्विवाद रूप से राजस्थान में कांग्रेस के सर्वोच्च नेता हैं। तो, निश्चित रूप से वे गजब के राजनेता हैं। इन दिनों वे बहुत समझदारी से अपने कदम बढ़ा रहे हैं। लोग तो एक तीर में दो निशाने साधते हैं, पर गहलोत बिना तीर ही कईयों को निशाने पर लिए हुए हैं। राहुल गांधी के बहुत करीबी होने का भरपूर प्रचार करके प्रदेश का सीएम बनने और कांग्रेस में गहलोत पर सवार होने का सपना देखनेवाले सीपी जोशी प्रदेश की राजनीति से छू हो गए हैं, कोई याद ही नहीं करता। यह गहलोत के कद का कमाल है। राजनीति में कोई किसी का करीबी होने से बड़ा नहीं हो जाता। अपन और अपने बहुत सारे दोस्त लोग बहुत सारे बड़े बड़ों के बहुत करीबी रहे हैं और हैं भी। प्रदेशों के सीएम से लेकर देश चलानेवालों के विश्वासपात्र रहे हैं, पर सत्ता में आने और ताकत पाने का राजनीति में सिर्फ किसी का करीबी होना ही पैमाना नहीं होता। गहलोत ने बहुत मेहनत से राजस्थान में कांग्रेस को पनपाया है। कितनी मेहनत कर रहे हैं, हम देख ही रहे हैं।
राजस्थान में विधानसभा चुनाव को देखते हुए अशोक गहलोत अपनी संदेश यात्रा के जरिए कई निशाने साधने में जुटे हैं। गहलोत इस यात्रा में एक तरफ जहां जनता से सीधा संवाद कर रहे हैं और अपने द्वारा लागू की गई सरकारी योजनाओं का प्रचार-प्रसार भी कर रहे हैं। उनकी यात्रा में चुपचाप शामिल एआईसीसी और पीसीसी की दो अलग अलग टीम विधानसभा सीटों का गहरा सर्वे भी कर रही है। एक तीसरी टीम अलग है। खुफिया एजेंसी की। वह भी इस यात्रा के दौरान अहम चुनावी जानकारी जुटा रही है। यात्रा के दौरान अब तक सौ से ज्यादा विधानसभा सीटों का सर्वे तो वैसे ही हो गया है। यात्रा जहां जहां जाती है, वहां लोग जिस जिस को मिलते हैं, उन तक को भनक भी नहीं लगती कि उनका सर्वे हो गया। सब कुछ बहुत अंदर ही अंदर हो रहा है। कौन किस काम में लगा है कोई नहीं जानता। जो लोग गहलोत की यात्रा में साथ चल रहे हैं, उनको भी खुद को काम के अलावा दूसरे के काम का पता नहीं।
रणनीति बहुत कसी हुई है और रिपोर्ट गोपनीय। सबकी निगाह बाकी सबको छोड़कर उन पर ज्यादा है जो कहने को तो कांग्रेस के नेता है, लेकिन उनके कार्यकर्ता, उनकी ताकत, उनकी कोशिश और मेहनत कांग्रेस की जड़े खोद रही हैं। सर्वे में एक ओर जहां पार्टी को नुकसान पहुंचाने वाले नेताओं की हैसियत और औकात दोनौं की जानकारी जुटाई जा रही है, वहीं यह भी पता लगाया कि चुनाव में टिकट किसे देना फायदेमंद रहेगा। जातिगत जनाधार भी इस बार ज्यादा मायने रखेगा। ताजा खबर यह है कि कई जगह बड़े बड़े दावेदारों को दरकिनार करके अच्छे लोगों को अच्छी तरह से आगे लाने की योजना पर गहलोत काम कर रहे हैं। गहलोत चाहते हैं कि कांग्रेस ही सत्ता में बनी रहे। यह उनकी अच्छी सोच है, क्योंकि वे आदमी अच्छे हैं।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं)

Saturday, June 1, 2013

ब्राहमण, बनियों और राजपूतों की बीजेपी  में ब्राह्मण कहां?
-निरंजन परिहार-
बामन, बनिया और राजपूत। राजस्थान में ये तीनों ही बीजेपी की रीढ़ की हड्डी माने जाते रहे हैं। पर, बामन नाराज। कतई खुश नहीं। बीजेपी में अपने नेताओं के अपमान से सारे बामन आहत। वैसे अब तक बीजेपी उन्हीं के बूते पर फुंफकारती रही है। लेकिन अब बामन महाराज की तस्वीर बिल्कुल साफ है। बनिये भी बेरुख। हर बार की तरह इस बार कोई बहुत ज्यादा अपनत्व नहीं दिखा रहे हैं। पांच साल पहले और आज के परिदृश्य में बहुत बड़ा फर्क है। और राजपूतों का तो कहना ही क्या। वे इधर हैं उधर हैं या किधर हैं, कोई गारंटी नहीं दे सकता। फिर बीजेपी राजस्थान में जीतैगी कैसे। वह तो पार्टी ही बामन, बनियों और राजपूतों की कही जाती है। बीजेपी में बनियों और राजपूतों की रणनीति पर विस्तार से बात कभी और करेंगे। आज बात सिर्फ ब्राह्मणों की। 
Arun Chaturvedi, President of Rajasthan BJP, Ex union Minister
Dr. Sanjay Singh Amethi and Congress MP Raj Babbar launching
new Book of Media Expert Niranjan Parihar in Mumbai.
बीजेपी जिस विचारधारा पर चलने की बात कहती है, वह धारा ही पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने शुरू की थी। वे ब्राह्मण थे। बीजेपी के सबसे श्रद्धेय नेता अटल वाजपेयी भी ब्राह्मण हैं। लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज भी ब्राह्मण और राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जेटली भी ब्राह्मण। बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी से लेकर संसदीय बोर्ड तक में भी बहुत सारे ब्राह्मण ही बिराजमान हैं। मुरली मनोहर जोशी से लेकर कई बड़े बड़े आदरणीय नेता भी ब्राह्मण। दिल्ली से बाहर जाकर देश भर में देखें, तो ज्यादातर राज्यों में पार्टी के प्रदेशाध्यक्ष भी ब्राह्मण हैं। कुछ दिन पहले श्रीमती वसुंधरा राजे बीजेपी का बामन पुराण बांचते हुए यह सब गिना रही थी। कह रही थीं कि बीजेपी में जब सारे बड़े नेता ब्राह्मण ही हैं, सो, हम तो पंडितों के आशीर्वाद के बिना आगे बढ़ ही नहीं सकते। लेकिन उस वक्त शायद वे यह भूल रही थीं कि वे राजस्थान बीजेपी के एक ब्राह्मण अध्यक्ष अरुण चतुर्वेदी को धकियाकर वे अध्यक्ष पद पर काबिज हुई हैं। प्रदेश में ब्राह्मणों के सबसे आदरणीय नेता हरिशंकर भाभड़ा को वे वास्तव में कुछ नहीं मानती। दूसरे बहुत पराक्रमी नेता ललित किशोर चतुर्वेदी को पता नहीं कहां धकेल दिया है। परम सम्माननीय किस्म के भंवरलाल शर्मा जैसे वरिष्ठतम ब्राह्मण नेता को तो अपने पिछले कार्यकाल में ही ठिकाने लगा चुकी थी, यह किसी से छुपा नहीं है। और अब जो सबसे सक्रिय, समर्थ, सिद्ध और प्रसिद्ध ब्राह्मण नेता घनश्याम तिवाड़ी हैं, वे रूठे हुए हैं, बीजेपी फिर भी जीत के सपने देख रही है।

राजस्थान की राजनीति के ऊबड़ खाबड़ रास्तों के पता नहीं किस मोड़ पर श्रीमती राजे को यह समझ तो आ गई थी कि ब्राह्मण समुदाय को साधे बिना बीजेपी को बहुमत में लाना और सरकार में आने की कल्पना करना कोई बहुत समझदारी का काम नहीं है। इसीलिए वसुंघरा राजे ने इसीलिए कुर्सी संभालते ही सबसे पहले राजस्थान ब्राह्मण महासभा द्वारा आयोजित सम्मान समारोह को अपने सरकारी घर में आयोजित करके प्रदेश के ब्राह्मण वोटों को आकर्षित करने के की कोशिश की। लेकिन ब्राह्मणों के प्रति अपने मन में इतना मान रखती है, इस पर शक करने का मन करता है। श्रीमती राजे वास्तव में ब्राह्मणों का इतना ही सम्मान करती हैं और उनका यह मानना है कि ब्राह्मणों के आशीर्वाद के बिना बीजेपी आगे बढ़ ही नहीं सकतीं तो क्या इस बात का जवाब उनके पास है कि राजस्थान बीजेपी के सबसे कद्दावर नेता घनश्याम तिवाड़ी को नाराज करके एक तरफ क्यूं धकेल दिया है। जो लोग तिवाड़ी के बारे में जानते हैं, वे यह भी मानते हैं कि भैरोंसिंह शेखावत जैसे बहुत दिग्ग्ज नेता के सामने भी वे कभी झुके नहीं। स्वाभिमान से समझौता करना तिवाड़ी को नहीं आता। श्रीमती राजे ने उनको मनाने की अब तक कोई गंभीर कोशिश नहीं की। वसुधरा राजे को यह समझना पड़ेगा कि राजनीति में जब किसी को खुश करके भी हम आगे नहीं बढ़ सकते, तो समाज के सबसे प्रबुद्ध वर्ग को नाराज करके सत्ता में कैसे आ सकते है। फिर ब्राह्मण तो ब्राह्मण हैं। शंकरजी ने तीसरा नेत्र खोल दिया तो भस्म होते भी देर नहीं लगती। और अशोक गहलोत तो चाहते भी यही हैं।        (लेखक राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं)